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Magazine - Year 1961 - Version 2

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2-लौकिक सुखों का एकमात्र आधार

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अनेकों गुत्थियों और समस्याओं के साथ मनुष्य का जीवन उलझा हुआ है। उन्हें वह सुलझाना चाहता है और शान्ति पूर्वक रहना चाहता है पर वे सुलझ नहीं पाती। कारण यह है कि समस्याओं का वास्तविक स्वरूप एवं उन्हें सुलझाने का सही तरीका मालूम न होने से इस प्रकार के प्रयत्न किये जाते रहते है जो जड़ की उपेक्षा करके पत्तों को सींचने के समान हास्यास्पद सिद्ध होते है।

परमात्मा सब का पिता है। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्यारे है वह सब का हित और कल्याण चाहता है और सभी के लिए समान स्नेह से सुख साधन एवं सुविधाएँ प्रदान करता है। किन्तु देखा जाता है कि कितने ही व्यक्ति दुखी और कितने ही सुखी है। इस भिन्नता का कारण कोई बाहरी व्यक्ति, परिस्थिति, ग्रह नक्षत्र, या देव दानव नहीं वरन वह स्वयं ही है। प्रारब्ध और आकस्मिक हानि लाभ जो कि दैवी अनुग्रह था कोप समझे जाते है वस्तुतः हमारी अपनी निज की कृति ही है। भूतकाल में हमने जो कुछ शुभ अशुभ कर्म किया है वे ही आज प्रारब्ध बन कर सामने खड़े होते है। पूर्व कृत शुभ कर्मों का जब सुखद परिपाक सामने आता है तब वह दैवी कृपा जैसा लगता और जब अशुभ कर्मों का दुखदायी परिणाम सामने आता है तो वह ईश्वरीय कोप या भाग्य हीनता जैसा प्रतीत होता है। वस्तुतः अपनी प्रत्येक भली बुरी परिस्थिति का उत्तर दायित्व स्वयं अपने ऊपर ही होना है। सुख और दुःख देने की शक्ति बाहर की अन्य किसी सत्ता में नहीं, वह तो व्यक्ति स्वयं ही है जो अपने लिए शुभ अशुभ परिस्थितियों का निर्माण किया करता है। मकड़ी अपना जाला स्वयं बुनती है और उसमें स्वयं ही उलझी रहती है। मनुष्य ने भी अपनी परिस्थितियों का जाला स्वयं ही बुना होता है और वह स्वयं ही उसमें फँसता निकलता रहता है।

इस तथ्य को हम जितना ही अधिक हृदयंगम करते है, उतना ही यह निश्चय होता है कि अध्यात्म ही इस संसार का सबसे बड़ा, सबसे महत्त्वपूर्ण तत्वज्ञान है। यही सबसे बड़ी शिक्षा और यही सबसे बड़ा बुद्धिमत्ता है। जिस आधार पर हमारे सुख दुःख की, उत्थान पतन की, सन्तोष सन्ताप की धुरी घूमती है उस पर ही सब से अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। जड़ को सींचने से ही जब पत्ते हरे हों तो हर कुम्हलाने हुए पत्ते का अलग अलग सींचने या उन पर हरा रंग पोतने का श्रम करने से क्या लाभ? अनेकों प्रकार की गुत्थियाँ और परेशानियाँ हमारे सामने रहती है। यदि उनका उलझना और सुलझना हमारी आन्तरिक स्थिति पर ही निर्भर है तो बाह्य उपचार की अपेक्षा अपने आन्तरिक स्तर का सुधार करने का ही प्रयत्न क्यों न किया जाय?

हर कोई सुखी रहना चाहता है। प्रचुर मात्रा में वैभव और ऐश्वर्य प्राप्त करना चाहता है। पर यह भूल जाता है कि इन्हें प्राप्त करने का स्वस्थ आधार पुण्य ही है। अतीत के शुभ कर्म ही कालान्तर में ऐश्वर्य और वैभव बनकर सामने आते है। किसी समय जिनने शुभ कर्मों पर, पुण्य परमार्थ पर अधिक श्रम किया था वे आज उसका प्रतिफल सुख सामग्री के रूप में उपलब्ध कर रहे है। कई व्यक्ति अनीति से भी धन कमाते या बड़े बनते देखे जाते है पर यह दृष्टि भ्रम ही है।

अनीति का परिणाम तो राजदंड, ईश्वरीय दंड, अपयश और दुःख ही हो सकता है। इसके विपरीत जिन्हें इससे लाभ मिल रहा है उनके बारे में यह विचित्र संयोग ही बना पड़ा है कि एक और वे पाप कर्म करके अपने भविष्य को बिगाड़ने में लगे हुए है और दूसरी ओर पूर्व संचित शुभ कर्मों का उदय होने से सुख सफलता भी मिल रही है। एक ओर पाप कर्मों का करना, दूसरी ओर पूर्व कृत शुभ कर्मों का सत्परिणामों का उदय होना यह एक विचित्र संयोग है कि मनुष्य भ्रम में जाता है और समझने लगता है कि पाप कर्मों से ही यह लाभ कमा लिया गया। यदि वस्तुतः ऐसा ही होता तो सभी दुष्ट कर्म करने वाले फलते फूलते और सुख सौभाग्य प्राप्त करते। पापियों में से कुछ थोड़ा हो ऐसे होते है जो लाभदायक स्थिति में रहते है, अधिकांश तो दुःख दरिद्र में ही पड़े रहते है।

यह एक बहुत बड़ा और नितान्त भ्रम ही है कि पाप कर्मों द्वारा सुख साधन जुटाये जा सकते है। संयोगवश यदि पूर्वकृत सुकृतों का फल पाप कर्म करने के साथ ही मिलने भी लगे तो भी उन दुष्कृतों के कारण मन में इतनी अधिक जलन होती कि उस लाभ से होने वाली प्रसन्नता उसके सामने बहुत ही तुच्छ सिद्ध होती है। ऐसे लोग कुछ कमाई कर लेन पर भी पश्चाताप और सन्ताप की आग में ही जलते रहते है।

सुख सम्पत्ति का, श्री समृद्धि का, वैभव ऐश्वर्य का, एक मात्र आधार पुण्य है। जिन्हें सुख साधनों की इच्छा हो सत्कर्म करने चाहिए। यह सत्कर्म करने की प्रवृत्ति केवल मन्त्र अध्यात्म विचार धारा से ही उत्पन्न होती है और किसी प्रकार नहीं इसलिए यह सुनिश्चित तथ्य मान ही लेना होगा कि यदि किसी को वस्तुतः सुखी रहने की आकांक्षा हो, यदि कोई इसका ठोस और वास्तविक आधार प्राप्त करना चाहता हो तो उसे सन्मार्ग ही अपनाना होगा, सद्भावों को ही धारण करना होगा, सत्कर्मों को ही करना होगा और यह तभी संभव है जब मन क्षेत्र में अध्यात्म विचारधारा की सुदृढ़ स्थापना हो। विचारों से ही क्रिया उत्पन्न होता है। प्रेरणा से ही प्रवाह बनता है। पुण्य परमार्थ की दिशा में विचार और प्रेरणा देने का कार्य आध्यात्मिकता पर ही निर्भर है। यही सुख की एक मात्र कुञ्जी है। जिसने इसे जाना और माना उसका सुख सुरक्षित है उसके लिए दुःख दैन्य का कोई कारण शेष नहीं रह जाता।

देखते हैं कि आज सभ्य कहे जाने वाले वर्ग में अध्यात्म के प्रति उपेक्षा ही नहीं तिरस्कार भी है। जो व्यक्ति अध्यात्म की लोक परलोक की, ईश्वर आत्मा की, भजन पूजन की बात करता है वह मूर्ख समझा जाता है। उसका मखौल बनाया जाता है। इस खेद जनक स्थिति का एक मात्र कारण यही है कि अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप आज हमारी आँखों के आगे नहीं है। जिस तत्वज्ञान का अवलम्बन करके प्राचीन काल में इस देश का प्रत्येक व्यक्ति नर रत्न, महामानव, पुरुषार्थ कर्मी, सद्गुणी, मनस्वी, दीर्घजीवी, निरोग, सम्पन्न, सुखी समृद्ध एवं सभी दिशाओं में सफल होता था, राजा अपने राजकुमारों को, श्रीमन्त अपने लाडलों को, ऋषियों के आश्रमों में जिस अध्यात्म की शिक्षा प्राप्त करने भेजते थे और जिसे ड़ड़ड़ड़ वे पृथ्वी के देवता बनकर लौटते थे, वह अध्यात्म आज वहाँ है? यदि अपना वह प्राचीन काल वाली उपयोगिता अध्यात्मिकता ने आज भी उपस्थित की होती तो निश्चय ही उसका गौरव और सम्मान अक्षुण्ण रहा होना। जिस प्रकार भौतिक विज्ञान का आज कोई तिरस्कार नहीं कर सकता उसकी उपयोगिता और वास्तविकता के आगे सभी को सिर झुकाने के लिए विवश होना पड़ता है वैसे ही यदि अध्यात्म विज्ञान भी अपने शुद्ध स्वरूप को कायम रख सका होता तो घर घर में उस महाविज्ञान का सम्मान होता। प्रेरक व्यक्ति अपने आपको अध्यात्मवादी होने से गर्व अनुभव करता।

परन्तु आज तो स्थिति ही दूसरी है। जैसे हर चीज की नकल चल पड़ी है, असली का स्थान हर क्षेत्र में नकली को मिलता जा रहा है उसी प्रकार नकली अध्यात्म का भी झंडा चारों ओर फहरा रहा है। निकम्मे, निठल्ले, हरामखोर, आलसी, दुर्गुणी, व्यसनी लोग बिना किसी श्रम, पुरुषार्थ, गुण एवं महानता के केवल रामनामी दुपट्टा ओढ़कर सन, महात्मा, सिद्ध, ज्ञानी, और गुरु बन जाते है। वे कुछ राम नाम लेते है। इतनी मात्र विशेषता बनाकर वे जनता से अपने लिए अमीरों जैसा बढ़िया किस्म का निर्वाह, ऐश आराम और पैर पुजाने का सम्मान प्राप्त करते है। दूसरी और उनकी शिक्षा को मानने वाले अपने परिवार को, समाज को, धर्मकर्तव्यों को, जिम्मेदारियों को तिलाञ्जलि देकर संसार को मिथ्या बताने, भाग्य पर निर्भर रहने की विडम्बना में पड़ जाते है। ऐसे लोग सभी दिशाओं में असफल आलसी, प्रमादी और आजीविका की दृष्टि से भी पराश्रित होते देखे गये है। दुनियाँ हर चीज का मूल्य उसके प्रत्यक्ष स्वरूप को देखकर आँकती है। छप्पन लाख अध्यात्मवादियों की यूनिफार्म धारी रजिस्टर्ड सेना तथा घर बाजारों में रहने वाली अन्ध भक्तों को उससे भी बड़ी मलेशिया सेना के गुण, कार्य और महत्व को देखकर हर विचारशील को बड़ी निराशा होती है। हर समझदार आदमी अपने को तथा बच्चों को उससे छूत की बीमारी की तरह बचने की कोशिश करता है ताकि उसी प्रकार का घटिया जीवन उनके पल्ले भी न बँध जाय।

आज के नकली अध्यात्म का तिरस्कार होना उचित ही है। भजन तक ही वह सीमित नहीं है। उस का वास्तविक उद्देश्य है आत्मा का सर्वांगीण विकास ईश्वर का भजन इसमें एक बड़ा आधार है। पर आत्मसुधार, आत्मनिर्माण, आत्मविकास के सुव्यवस्थित आत्म विज्ञान को अनावश्यक तुच्छ एवं उपेक्षणीय मान कर केवल मात्र भजन करते रहने से भी कुछ विशेष लाभ सम्भव नहीं ऐसे अगणित व्यक्ति देखे जाते है जो भजन सारे दिन करते है, पूजा पाठ में बहुत मन लगाते है, पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर की दृष्टि से वे सामान्य श्रेणी के लोगों से भी गये बीते है। इस का कारण यही है कि उनकी साधना एकांगी रहा, भजन को ही उनने सब कुछ माना और आत्म निरीक्षण, आत्म चिन्तन, आत्म शोधन, आत्म परिष्कार आत्म दर्शन एवं आत्म कल्याण के महा कार्य को हाथ में ही नहीं लिया। ऐसी अव्यवस्थित साधना के परिणामों से वैसी ही आशा की जा सकती है जैसी कि आज दृष्टिगोचर हो रही है।

अध्यात्म वस्तुतः एक महान् विज्ञान है। इसे जीवन विद्या या संजीवन विद्या कह सकते है। जीवन जैसे महान् कार्य का सही उपयोग करना इसी ज्ञान के आधार पर संभव होता है। किसी बड़ी जागीर मिल, फैक्टरी, फार्म, संस्था उद्योग या विशालकाय मशीन को चलाने, सुधारने और लाभ दायक स्थिति में रखने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। यदि अनाड़ी हाथों में ऐसे बड़े काम सौंप दिये जाय तो अनर्थ की ही सम्भावना रहेगी। मानव जीवन भी ऐसी ही एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। चौरासी लाख योनियों के बाद प्राप्त हुआ, सृष्टि का सर्वोपरि उपहार, यह सुर दुर्लभ मनुष्य शरीर है। इसको ठीक प्रकार से जीने की भी एक सर्वांगीण विद्या है उसे ही अध्यात्म कहते है। जिसमें अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप जान लिया और उसे अपना लिया उसके लिए यह मानव शरीर ऋषि सिद्धियों का भण्डार है। सुख शान्ति का रत्न कोष है। आनन्द और उल्लास का खजाना है। ऐश्वर्य और वैभव का कल्पवृक्ष है अध्यात्म युक्त जीवन ही वह जीवन ही वह है जिसे प्राप्ति कर मनुष्य अपने आपको देवता की स्थिति में पहुँचा हुआ, अनुभव करता है।

लौकिक जीवन में जितने भी सुख साधन एवं प्रसन्नता दायक है उनका मूल अध्यात्म ही हैं। यदि इस विचारधारा का प्रभाव मन पर न हो तो पुण्य कर्म किस प्रकार बन पड़ेंगे? और उनके बिना सुख साधनों से परिपूर्ण प्रारब्ध कैसे बनेगा। स्त्री पुत्रों का स्वजनों परिजनों का सज्जन और सद्भाव सम्पन्न होना एक बहुत बड़ा सुख है। पर यह सुख उसे ही मिलता है जिसने अपने स्वभाव और चरित्र को आदर्श बनाकर अपने निकटवर्ती लोगों को प्रभावित कर लिया है। दूसरों को सज्जन बनाने के लिए अपना सज्जन होना आवश्यक है। ड़़ड़ड़ड़ नाम के बेटे अवज्ञाकारी ही हो सकते है। ड़ड़ड़ड़ बालक के स्वभाव का बहुत कुछ निर्माण उसके ड़ड़ड़ड़ पूर्व हो जाता है। माता पिता के रजवीर्य से बच्चे का शरीर बनता है और उनके स्वभाव एवं चरित्र से उसका मन विनिर्मित होता है। अच्छी सन्तान पैदा करने के इच्छुक माता पिता को इसके लिए वर्ष पूर्व आत्म निर्माण की साधना करनी पड़ती है। अपना चेहरा कुरूप हो तो फोटो भी कुरूप ही खिंचेगा माता पिता का स्वभाव अव्यवस्थित हो तो उनके बालक कैसे सज्जन और सद्भावी होंगे? बच्चों को पौष्टिक भोजन कराके सद्भावी होंगे? बच्चों को पौष्टिक भोजन कराके उन्हें स्वस्थ और कपड़े जेवर आदि से सजा कर सुन्दर बनाया जा सकता है पर उनके स्वभाव में श्रेष्ठता तो तभी आयेगी जब माता पिता अपनी श्रेष्ठता का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उन पर डाले।

यह कार्य आध्यात्मिक विचार धारा से ओतप्रोत दम्पत्ति ही कर सकते है। इसलिए उत्कृष्ट प्रकार की संतान प्राप्त करना भी उन्हीं के लिए संभव होता है। कभी कभी सज्जनों के घर में भी कुसंस्कारी बालक जन्मने के अपवाद होते तो है पर मोटा नियम यही है कि जैसे भावना प्रवाह में बालक पलता है वैसे ही संस्कार उसके बनते है और धीरे धीरे वह उसी ढाँचे में ढल जाता है। उपदेशों से नहीं, बालक संस्कारों से ढलते है और श्रेष्ठ ढालने का साँचा एक मात्र अध्यात्म ही है।

यही बात परिवार के अन्य सदस्यों के ऊपर लागू होती है। पति पत्नी में से एक भी उत्कृष्ट स्वभाव का हो तो दूसरे की अपूर्णता को बहुत हद तक दूर करके सभी की बहुत ड़ड़ड़ड़ कूल बना सकता है। व्यवहार की सज्जनता से परिवार के अन्य सदस्य भी अपने अनुकूल बन जाते है। मित्रो और संबंधित व्यक्तियों पर भी ये बात बहुत हद तक लागू होता है।

संबंधित व्यक्ति अपने अनुकूल स्वभाव और आचरण रखे, अपने प्रति सद्भाव रखे तो उनके सान्निध्य में रहने से स्वर्ग जैसा सुख मिल सकता है। जिसके निकटवर्ती परिजन विरोधी दुर्भाव रखते है उसके लिए प्रत्यक्ष नरक ही है। भौतिक जीवन के इस स्वर्गं को ड़ड़ड़ड़ स्वर्गं बदल देना हमारे अपने दृष्टिकोण एवं स्वभाव की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता पर बहुत कुछ निर्भर है। अध्यात्म की ओर अभिमुख होकर यदि कोई व्यक्ति अपने परिजनो को स्नेही एवं सहयोगी बना लेता है तो क्या यह कुछ कम लाभ है? धनी होना उतना सुखकर नहीं जितना स्नेही परिवार प्राप्त करना। यह दोनों ही सुखा प्रदान करने का अनन्त क्षमता अध्यात्म विद्या में सन्निहित है। ऐसी महान् विद्या की उपेक्षा करना निश्चित रूप से कोई समझदारी की बात नहीं है।

बहुत आमदनी होने पर तो कोई भी सुख साधन इकट्ठे कर सकता है पर अध्यात्मवादी के लिए कम आमदनी में भी धनियों की अपेक्षा अधिक सुखपूर्वक जीवन यापन करना संभव है। आमदनी की मर्यादा में ही अपना बजट चलाना, फिजूल खचिँयों को त्याग देना, मितव्ययिता और विवेकपूर्ण एक एक पाई का खर्च करना, शौकीनों और विलासिता से घृणा करते हुए सादगी को अपनाना, खर्च में दूसरों की होड़ न करके अपनी ही परिस्थितियों में सन्तोष रखना, आदि अनेक सद्गुण आध्यात्मिकता की ही देन है, जो गरीबी में भी अमीरी का आनन्द उपलब्ध करा सकते है। इन गुणों के होने पर गरीबी गरीबी नहीं लगती और इनके अभाव में अमीरी भी रूखी, फीकी, असन्तोष जनक एवं अपर्याप्त लगती है।

स्वास्थ्य की समस्या का सम्बन्ध लोग पौष्टिक आहार से जोड़ते रहते है। सोचते है कि बढ़िया खाना मिले तो तन्दुरुस्तता बढ़े। पर वास्तविकता यह है कि मानसिक स्थिति पर ही आरोग्य निर्भर रहता है। हँसमुख, चिन्ता रहित, सरल स्वभाव, निष्कपट, सदाचारी व्यक्ति आमतौर से स्वस्थ रहते है क्योंकि उनका अन्तः करण उस आग में नहीं जलता रहता जो स्वास्थ्य को चौपट करने में सबसे बड़ा कारण सिद्ध होती है। असंयम भी स्वास्थ्य की बर्बादी का एक महत्त्वपूर्ण कारण है, जिव्हा का चटोरापन, अटशंट चीजें अनावश्यक मात्रा में पेट में ठूँसते रहने के फलस्वरूप और खराब होती है, रक्त दूषित होता है और नाना प्रकार की बीमारियाँ जड़ जमाती है। ब्रह्मचर्य सम्बन्धी असंयम शरीर को खोखला कर देता है और युवावस्था में ही बुढ़ापा लाकर अल्पायु में मरने के लिए विवश करता है। इससे शरीर का हर अंग क्षीण और दुर्बल होने लगता है और बीमारियाँ घेरती है।

लौकिक जीवन में आरोग्य, धन, स्नेह, सौजन्य यह तीन ही सबसे बड़ी विभूतियाँ मानी गई है। इन्हीं से मनुष्य अपने को सुखी अनुभव करता है। यह तीनों ही विभूतियाँ अध्यात्म के छोटे से उपहार है उन्हें सच्चे अध्यात्मवाद का कोई भी उपासक निश्चित रूप से प्राप्त कर सकता है। आन्तरिक जीवन की वह सुख समृद्धि तो इन लाभों के अतिरिक्त ही है जिन्हें प्राप्त करने वाला अपने को सब प्रकार धन्य और कृतकृत्य अनुभव करता है।

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