
जनसंख्या वृद्धि की समस्या
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हमारी सामूहिक भौतिक समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या वृद्धि की है। भारत की भूमि और वर्तमान अर्थव्यवस्था जितने लोगों का भार-वहन कर सकती है उसकी अपेक्षा आबादी कहीं अधिक होने से राष्ट्रीय अर्थ संतुलन बिगड़ता है और उसका प्रभाव प्रत्येक नागरिक पर बुरा ही पड़ता है।
सन् 51 की जनगणना 35,68,91,624 थी। भोजन और श्रम की दृष्टि से छोटे बालकों का हिसाब काट कर 100 की आबादी 86 मानी जाती है। इस हिसाब से उस समय लगभग 30 करोड़ खाने वाले थे। प्रति व्यक्ति 14 औंस भोजन के हिसाब से इनके लिए 4.4 करोड़ टन अन्न की आवश्यकता पड़ती थी। पर आँकड़ों के हिसाब से बीज और बर्बादी काट कर करीब 4 करोड़ टन उत्पन्न होता था। तदनुसार 40 लाख टन की कमी पड़ती थी। दस वर्ष बाद सन् 60 की जनगणना के हिसाब से भी वही स्थिति है। अन्न की पैदावार बढ़ाने के सरकारी और गैर सरकारी अनेक प्रयत्नों के बावजूद वह कमी ज्यों की त्यों बनी हुई है। कारण एक ही है जन-संख्या का तेजी से बढ़ते जाना।
अन्न की भाँति दूध की समस्या भी है। भारतीयों के दैनिक भोजन में यह प्राणिजन्य प्रोटीन केवल 5.6 ग्राम मात्र होता है। जब कि न्यूजीलैंड में 69.4, आस्ट्रेलिया में 62.5, अमेरिका में 60.7 और इंग्लैण्ड में 43.4 ग्राम होता है। कैलोरी के हिसाब से परखा जाय तो भी हमारा भोजन बहुत घटिया दृष्टि का है। आयरलैण्ड में प्रति व्यक्ति 3480, न्यूजीलैण्ड में 3380, आस्ट्रेलिया में 3280, अमेरिका में 3117, इंग्लैण्ड में 3080 और भारत में केवल 1620 कैलोरी का दैनिक भोजन होता है। घटिया भोजन मिलने के कारण काम करने की शक्ति भी कम, रोग निरोधक क्षमता और दीर्घ जीवन की संभावना भी कम रहती है। दूध घी न मिलने का कारण भी यही है कि देश के दूध उत्पादन की अपेक्षा जनसंख्या कहीं अधिक है। हर एक के हिस्से में कम मात्रा में और घटिया किस्म का भोजन आता है, फलस्वरूप व्यक्ति की उत्पादन शक्ति भी न्यून ही रहती है।
कितने एकड़ भूमि का खाद्य प्रति व्यक्ति के हिस्से में आवे इस दृष्टि से हम संसार के अन्य देशों की अपेक्षा काफी पीछे हैं। 100 एकड़ भूमि का उत्पादन पोलैण्ड में 31 व्यक्तियों के हिस्से में आता है, इसी प्रकार चैकोस्लेविया में 24 हंगरी में 30 रुमानिया में 30, यूगोस्लाविया में 42 और इंग्लैण्ड में 6 व्यक्तियों को 100 एकड़ के उत्पादन का लाभ मिल जाता है। किन्तु भारत में इतनी ही भूमि को 148 लोगों का पेट भरना पड़ता है। ऐसी दशा में हमें अपर्याप्त एवं अपौष्टिक भोजन से ही काम चलाना पड़ता है।
अपर्याप्त भोजन से शारीरिक दुर्बलता, शारीरिक दुर्बलता से कम उत्पादन, कम उत्पादन से दरिद्रता और दरिद्रता से व्यक्ति का स्तर गिरा हुआ रह जाता है और वह गिरावट प्रत्येक क्षेत्र में निराशाजनक समस्यायें उत्पन्न करती है। कम पूँजी के कारण कृषि पशुपालन तथा उद्योगों में भी उन्नति नहीं हो पाती। लोग जैसे-तैसे काम चलाते हैं, वे जीते नहीं, किसी प्रकार जी भर लेते हैं।
जन शक्ति किसी राष्ट्र की सच्ची सामर्थ्य मानी जा सकती है पर तभी जब उसके निर्वाह के समुचित साधन मौजूदा हों। जनसंख्या की वृद्धि ऐसी सुरक्षा है जो बढ़ते हुए उत्पादन से भी अधिक मुँह फाड़ देती है और हाथ पैर पीटने पर भी अभाव घटता नहीं, बढ़ ही जाता है। बेकारी, बेरोजगारी की समस्या भी विकट होती जाती है। प्रति वर्ष बढ़ जाने वाले लोगों को अन्न ही नहीं रोजगार भी चाहिए। भारत में 70 प्रतिशत लोग कृषि उद्योग में लगे हैं। अब इस उद्योग में इतनी गुँजाइश नहीं रही कि अधिक लोगों का भार वहन कर सके। अन्य उद्योगों में तथा नौकरियों में बहुत थोड़े लोग खप सकते हैं ऐसी दशा में बेरोजगारी हर वर्ष घटने की अपेक्षा बढ़ ही जाती है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस ने लिखा है कि जिस गति से जनसंख्या का प्रवाह बढ़ता है उस गति से उत्पादन बढ़ा सकना संभव नहीं हो सकता इसलिए समझदार लोगों का कर्त्तव्य है कि अपने समाज में अनावश्यक जनसंख्या न बढ़ने दें। जनसंख्या शास्त्री डॉ. एस. चन्द्रशेखर का कथन है- भारत की सुख समृद्धि और खुशहाली इस बात पर निर्भर रहेगी कि बढ़ती हुई जनसंख्या की गति को मन्द किया जाय।
राष्ट्रीय विकास की दृष्टि से जन जीवन का स्तर ऊंचा उठाने के लिए अनेक प्रयत्नों की आवश्यकता है। सरकारी और गैर सरकारी प्रयत्नों से दरिद्रता के विरुद्ध एक बड़ा अभियान छेड़ा ही जाना चाहिए। अशिक्षा, दरिद्रता और बीमारी से ग्रस्त जन-समाज किसी राष्ट्र की शक्ति का नहीं वरन् उसकी दुर्बलता एवं कठिनाई का ही द्योतक हो सकता है। या तो जनसंख्या के अनुरूप साधन उत्पन्न किए जाने चाहिए अन्यथा साधनों के अनुरूप जनसंख्या को सीमित रहना चाहिए। दोनों का संतुलन रहना आवश्यक है। यदि वह असंतुलित होता है और साधनों की तुलना में आबादी बढ़ती है तो उसका प्रतिफल, बीमारी, अकालमृत्यु, दुर्बलता, गंदगी, दीनता, अशिक्षा, बेरोजगारी, अपराध, कलह एवं अशाँति के रूप में ही दृष्टिगोचर हो सकता है।
व्यक्तिगत जीवन में भी अधिक सन्तानोत्पादन का घातक प्रभाव पड़ता है। महिलायें अपना स्वास्थ्य खो बैठती हैं। प्रसव काल में अगणित मृत्युएं हर साल होती हैं। घटिया भोजन, अधिक श्रम, मानसिक उलझनें, ब्रह्मचर्य संबंधी असंयम, वंश परम्परा की दुर्बलता यही बातें स्वास्थ्य बिगाड़ने के लिए बहुत बड़े कारण रूप हैं, इस पर भी यदि नारी को अधिक बच्चे पैदा करने का भार वहन करना पड़े तो उसका स्वास्थ्य किस प्रकार स्थिर रह सकेगा? जिन शरीरों में अपना निज का काम चलाने की भी समुचित क्षमता नहीं है वे अपने थोड़े से रक्त माँस में से ही नये-नये बच्चों के शरीर बनाने और उन्हें बहुत दिन तक दूध के रूप में जीवन रस पिलाते रहने और अपना स्वास्थ्य ठीक बनाये रखने में समर्थ होंगे इसकी आशा करनी व्यर्थ ही है। आज की स्थिति में स्त्रियों पर एक दो बच्चों में अधिक भार पड़ना उनके साथ हुआ अत्याचार ही माना जा सकता है।
बच्चों के उचित पालन पोषण एवं शिक्षा की सुव्यवस्था के लिए जितनी अच्छी आर्थिक स्थिति इस महंगाई के जमाने में अपेक्षित है, उतनी सामर्थ्य बहुत कम लोगों को होती है, फिर भी वे अविवेकपूर्वक बच्चे उत्पन्न करते रहते हैं। जितने मेहमानों को ठहराने और खिलाने का प्रबंध न हो उतने निमन्त्रित कर बैठना बुद्धिमत्ता का चिन्ह नहीं। भुखमरी, अशिक्षा और दुर्दशाग्रस्त जीवनयापन करने के लिये बच्चों को बुला-बिठाना किसी भी विचारशील माता-पिता के लिए लज्जा की बात ही हो सकती है।
परिवार का आर्थिक संतुलन बिगाड़ने और घर के प्रत्येक व्यक्ति को अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करने की उलझन में डालने के लिए अपने आर्थिक स्तर से अधिक संतानोत्पादन से बड़ी गलती और कोई नहीं हो सकती। विचारशीलता का तकाजा यह है कि प्रत्येक सद्गृहस्थ अपने परिवार की सुस्थिरता का विचार करते हुए राष्ट्रीय कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुये संतानोत्पादन को सीमाबद्ध रखने का पूरा-पूरा ध्यान रखें। अधिक बच्चे उत्पन्न करने में खुशी मनाने जैसी बात किसी भारतवासी के लिए तो उसकी अविवेकता ही कहीं जायेगी।