
आत्म बल कैसे बढ़े
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आत्म-बल मानव जीवन का सबसे प्रभावशाली बल है। यह अपने पास हो तो उसके द्वारा हर क्षेत्र में सफलता ही सफलता प्राप्त होगी। असफलताओं का कारण ही अपनी आन्तरिक निकृष्टता है। ओछी आदत, आलस्य और दुष्प्रवृत्तियों के कारण मनुष्य का अन्तस्तल निकृष्ट कोटि का रहता है। उसमें धैर्य, साहस, दृढ़ता, लगन जैसे सद्गुण पनपते नहीं। सफलता के लिए जिन सद्गुणों की ऊंची, स्वभाव की और सत्प्रवृत्तियों की आवश्यकता है वे यदि अपने में न हों तो फिर बड़े-बड़े लाभ प्राप्त करने की आशा दुराशा मात्र ही बनी रहेगी। इस दुनिया में हर वस्तु कीमत देकर प्राप्त की जाती है। यही यहाँ का नियम है। सफलताएं भी उत्कृष्ट मनोभूमि और आत्मबल के मूल्य पर खरीदी जाती हैं, यदि यह साधन पास में न हो तो फिर बड़ी-बड़ी आशाएं और आकाँक्षा करना निरर्थक है।
परमात्मा की इस सुव्यवस्थित दुनिया में हर चीज की नाप-तोल और व्यवस्था बनी चली आ रही है। उसका व्यतिक्रम नहीं हो सकता। कभी-कभी अपवाद देखने में आते हैं उनके पीछे भी पूर्व जन्मों के संग्रह का अनायास लाभ मिलना ही कारण होता है। प्रयत्न और पुरुषार्थ चाहे अब किया जा रहा हो, चाहे पहले कर लिया गया हो, लाभ उसी के आधार पर मिलेगा। पुरुषार्थों में सबसे बड़ा पुरुषार्थ अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुसंस्कृत बनाना है। जिसने अपने को सुधार लिया उसकी सारी उलझनें सुलझ जाती है। जिसने अपना निर्माण कर लिया उसके लिए हर क्षेत्र में सफलता हाथ बाँधे खड़ी होगी।
सफलता के प्राप्त करने की इच्छा और आशा बाँधने से पूर्व हमें अपने आपको उसका पात्र और अधिकारी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। क्षमता उत्पन्न होने पर सफलता का मार्ग सहज ही प्रशस्त हो जाता है। जिसके पास पैसा हो वह किसी भी दुकान से अपनी अभीष्ट वस्तु खरीद सकता है पर जिसकी जेब खाली है उसे निराश ही रहना पड़ेगा। बाहरी साधन सामग्री की सम्पत्ति को ही लोग क्षमता मानते हैं पर वस्तुतः मनुष्य के पास असली सम्पत्ति उसकी आँतरिक क्षमता ही होती है। जिसमें सद्गुण मौजूद है, जिसमें आत्म-तत्व मौजूद है वह साधना सामग्री, अनुकूल परिस्थिति एवं जन सहयोग को सहज ही प्राप्त कर लेता है, किन्तु जो दोष, दुर्गुणों से भरा पड़ा है, उसकी सम्पदा और साधना सामग्री भी देर तक ठहर न सकेगी। लक्ष्मी कुपात्रों के पास नहीं रहती इसी प्रकार ओछे लोगों को सच्चे मित्रों और सहायकों से भी वंचित रहना पड़ता है।
उन्नति और सुख समृद्धि के लिए आकाँक्षा करना उचित है पर इसके लिए आवश्यक क्षमता एवं योग्यता का जुटाना भी आवश्यक है। बाह्य परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही अनुकूल क्यों न हो पर यदि भीतर से खोखला है तो उसे प्रतिकूलता का ही सामना करना पड़ेगा। इसलिए अभीष्ट मार्ग पर सफलता प्राप्त करने के लिए बाह्य उपकरण जुटाने के साथ-साथ आन्तरिक सुधार के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए। यह भूल नहीं जाना चाहिए कि दुर्गुणी व्यक्ति कोई क्षणिक सफलता भले ही प्राप्त कर ले उसे अन्तःकरण असफल ही रहना पड़ता है।
अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों को अनेकों ऋद्धि सिद्धियाँ मिल सकती हैं पर उसके लिए आन्तरिक स्तर की उत्कृष्टता निताँत आवश्यक है। भजन पूजन का साधनात्मक कर्मकाण्ड आवश्यक है पर अन्तःशुद्धि के बिना वह निष्प्राण ही बना रहता है। कितने ही व्यक्ति जीवन भर भजन पूजन करते रहते हैं पर अपने दोष दुर्गुणों को सुधारने की ओर ध्यान नहीं देते। काम, क्रोध, लोभ, मोह में उनका मन घटिया श्रेणी के लोगों की तरह ही डूबा रहता है। स्वार्थपरता और संकीर्णता उन्हें बुरी तरह घेरे रहती है। दोष और दुर्गुणों से मन भरा रहता है। ऐसी दशा में उनके भजन में कोई लाभ होगा, ऐसी आशा नहीं करनी चाहिए। जलते तवे जैसे पानी की कुछ बूंदें दुर्गुणों से भरा हुआ मन पूजा के थोड़े छींटें लगने मात्र से शाँत नहीं हो सकता। उसके लिए आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार और आत्म-निर्माण की विशेष साधना करनी पड़ती है।
मन शुद्ध होने पर थोड़ा-सा भी भजन पर्याप्त हो सकता है। धुले कपड़े पर जरा सा रंग लगा देने से वह रंग जाता है पर मैले और काले कंबल पर ढेरों रंग लगाने से भी उसमें परिवर्तन नहीं होता। भजन भी एक प्रकार का रंग है जो तभी खिलता है जब उपासना करने वाले की मनोभूमि पवित्र हो। इस ओर उपेक्षा बरती गई तो फिर उन लाभों की आशा नहीं करनी चाहिए जो अध्यात्म-मार्ग पर चलने वाले को मिलते हैं। ईश्वर-प्राप्ति और आत्म-कल्याण की साधना में सफलता उसी को मिलती है जो अपना आत्मशोधन करने के लिए प्रायः प्रारंभ से प्रयत्न करता है। ऐसे साधकों की थोड़ी-सी उपासना भी उन्हें उसके लक्ष्य तक पहुँचा देती हैं। इसके विपरीत यदि अन्तःकरण पाप अंक में डूबा रहा तो भजन से भी कुछ काम न चलेगा।
आज भजन पूजन तो बहुत लोग करते हैं पर अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं पर ध्यान नहीं देते। वे भूल जाते हैं कि आत्म-कल्याण के लिए भजन की आवश्यकता इसलिए मानी गई है कि ईश्वर को सर्वव्यापी और न्यायकारी मान कर उसे हर घड़ी ध्यान में रखें और अन्तःकरण की पवित्रता को बढ़ाते हुए ईश्वर की कृपा प्राप्ति का अधिकारी बनें। यदि यह लक्ष्य भुला दिया जाय और ऐसा सोचा जाय कि केवल भजन से ही सब कुछ हो जायेगा, उतने मात्र से ही ईश्वर प्रसन्न हो जायेगा तो यह धारणा गलत है। लाखों व्यक्तियों का तो पेशा ही आज भजन बना हुआ है, इतने पर भी उनके जीवन में कोई प्रतिभा दिखाई नहीं पड़ती, इससे प्रकट होता है कि उनके कार्यक्रम में कोई भूल रह गई है। वह भूल है एकाकी साधना। जब तक सद्गुण न बढ़ेंगे, आत्म-शोधन का प्रयत्न न चलेगा तब तक पूजा अर्चना की प्रक्रिया एक विडम्बना ही बनी रहेगी।
आध्यात्मिक मार्ग के पथिकों के लिए भजन करना उचित है पर उनके साथ ही यह भी आवश्यक है कि अपने भावना स्तर को ऊंचा करें, चरित्र निर्माण की ओर ध्यान दें और गुण, कर्म, स्वभाव का ऐसा विकास करें जो एक आध्यात्मिक कहलाने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक है। यह प्रक्रिया सम्पन्न होते ही आध्यात्मिक सफलता का लक्ष्य सहज ही पूरा होगा, उसमें विलम्ब का कोई कारण शेष न रह जायेगा।
ईश्वर की कृपा से मनुष्य का निश्चय ही बड़ा कल्याण होता है, ईश्वर का साक्षात्कार और उसकी प्राप्ति निश्चय ही मानव जीवन की बहुत बड़ी सफलता है पर वह मिलती उन्हें ही है जो आत्म-निर्माण, आत्म-सुधार और आत्म-विकास के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इसलिए ईश्वर-प्राप्ति और आत्म-कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करने के मूल आधार आत्म-निर्माण की ओर हमें पूरा ध्यान देना चाहिए। बीज बोने से ही फल प्राप्त होगा, और जड़ को सींचने से ही पत्ते और फूलों की शोभा दीख पड़ेगी। आत्म-बल बढ़ाने के लिए हमें ईश्वर उपासना करनी चाहिए पर साथ ही जीवन शोधन और परमार्थ कार्यक्रमों को अपनाये रहने का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए। सन्मार्ग पर चलना ही आत्म-बल बढ़ाने का अमोघ साधन है।