
अन्ध-विश्वास का इन्द्रजाल
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अन्ध-विश्वास और रूढ़िवादी परम्परायें आज भी हमारे समाज में जड़ जमाये बैठी हैं और जन-जीवन को प्रभावित करती रहती हैं। अशिक्षित, ग्रामीण जीवन में तो इनका पूरा-पूरा बोलबाला है किन्तु शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले घरानों में भी इनका कुछ कम प्रभाव नहीं है। ज्ञान-विज्ञान, प्रतिभा और तर्क ताक में धरे रह जाते हैं जब घर में तथाकथित ‘बुढ़ियापुराण’ की चलती है। बात-बात में मीनमेख, शंका, भय, पश्चाताप, हमारे दैनिक जीवन में बड़ा अवरोध बन जाते हैं। ये हमारे मनोबल को क्षीण करते हैं। कई असामाजिक, अनुत्तरदायी कृत्य हो जाते हैं इन अंधविश्वासों की प्रेरणाओं से।
समाचार-पत्रों में प्रायः ऐसी खबरें निकला करती हैं कि ‘अमुक व्यक्ति ने देवी पर अपनी जीभ काटकर चढ़ा दी, ‘बच्चे की बलि दे दी।’ अकसर लोग किसी विशेष सिद्धि या लाभ के लिए देवी देवताओं की कृपा प्राप्त करने के लिए ऐसे जघन्य कृत्य करते हैं। देवी देवताओं पर मुर्गे, सूअर, बकरे, भैंसे की बलि चढ़ाना इसी तरह की अंध प्रेरणाओं पर आधारित होता है। लेकिन इस तरह के अंध विश्वास की हद हो जाती है जब मनुष्य नर-बलि देता है या अपना अंग काटकर चढ़ाता है। सिद्धि तो किसी को मिलती नहीं लेकिन जघन्य पाप का भागी बनना पड़ता है।
कुछ समय पूर्व एक समाचार निकला था जिसके अनुसार मध्य प्रदेश के एक तालाब में किसी विशेष पर्व पर नहाने और जूते वहाँ छोड़ आने पर शनिदशा दूर हो जाने के अंध विश्वास पर वहाँ छोड़े गए जूते हटवाने में राज्य सरकार का हजारों रुपया खर्च हुआ और तालाब दलदल बन गया। लेकिन कितनों की शनि दशा दूर हुई यह अज्ञात है।
अक्सर कई बार कुछ स्वार्थी लोगों के द्वारा ऐसी खबरें उड़ाई जाती हैं कि ‘अमुक तालाब में नहाने से असाध्य रोग दूर हो गया।’ तब हजारों लोग उसमें डुबकियाँ लगाते हैं। कीचड़ को भी शरीर में लपेटते हैं। लेकिन इस तरह ठीक हुआ एक भी व्यक्ति हमने अभी तक नहीं देखा।
एक व्यक्ति के यहाँ सन्तान जीवित नहीं रहती थी। दो-चार माह में मर जाती थी। अब बूढ़ी अम्मा ने पीर, पुजारी, स्याने, दिवाने, मुल्ला, फकीर सब की तलाश करना शुरू किया। कोई भूत-प्रेत का प्रकोप बताये, कोई भाग्य का चक्र तो कोई मकान में चुड़ैल का बासा बताये। गरज यह है कि जितने मुँह उतनी बातें। तरह-तरह के गण्डे ताबीज बनवाये, पीर पुजारों की मनौतियां पूरी की। स्याने दीवानों ने तरह-तरह से उनकी स्त्री को बहलाया, बकरे मुर्गी के बच्चे की बलियाँ दी गई। तरह-तरह के उतारे करके उनको सामान सिन्दूर दिया, आटा आदि चौराहे पर छोड़ा गया। लेकिन इस सबके बावजूद भी संतान जीवित नहीं रही। कई साल बीत गये तो संयोगवश उनके यहाँ एक सन्तान जीवित रही तो बूढ़ी स्त्रियों द्वारा तरह-तरह के टोटके किए जाने लगे। उसका नाम विद्याभूषण, यज्ञदत्त, शारदानन्द आदि न रखकर बुढ़िया पुराण के अनुसार ‘कूड़ामल’ रखा गया।
बच्चे को काफी बड़ा हो जाने तक दूसरों के माँगे हुए कपड़े पहनाये जाते रहे। शीतला देवी के प्रकोप के भय से टीका नहीं लगवाया। दुर्भाग्य से कुछ ही समय बाद बच्चे को चेचक का प्रकोप हो गया और वह बदसूरत हो गया। नाम तो पहले कूड़ामल था ही अब शक्ल भी वैसी ही हो गई। बच्चे को भूत चुड़ैलों का भय बताकर दो पहर में कहीं जाने नहीं दिया जाता। दूध पीकर बाहर जाने पर मुँह में राख की चुटकी रख दी जाती। कभी कुछ तबियत खराब हो जाती तो चूल्हे में राई नमक मिर्च की चूनी दी जाती जिससे अच्छे भलों को भी खाँसी और छींक का त्रास सहना पड़ता। ज्योतिषी के अनुसार शनि केतु आदि की शाँति के लिए पूजा-पाठ, दक्षिणा आदि का आयोजन हुआ।
हमारे जीवन में इस तरह के अंध विश्वास कुछ कम नहीं है। यह तो एक सामान्य-सा उदाहरण है। छींकने, थूकने किसी के मिल जाने तक पर हमारे कार्यक्रम रद्द हो जाते हैं। सफलता का विश्वास नष्ट हो जाता है। आत्मविश्वास और साहस तो कभी के गायब हो जाते हैँ। भीरुता, कायरपन, आशंकायें हमारे स्वभाव का अंग बन जाती हैं।
हम कहीं जाने को तैयारी हों और कोई व्यक्ति अचानक छींक दे तो हमारा बढ़ा हुआ पाँव तत्क्षण रुक जाता है। बिल्ली रास्ता काट जाय तो आगे बढ़ने में जो कुछ भी बुरा हो जाय वह थोड़ा है। ऐसी मान्यतायें बनी हुई हैं हमारी।
गोरखपुर की तरफ के एक सज्जन के साथ हमें कुछ दिन रहना पड़ा। जब वे कहीं जाते तो अपने सब मिलने वालों से एक दिन पहले कह देते-’भाई कल हम कहीं जायेंगे, हमें टोकना मत।’ भूलवश कोई उन्हें पूछ बैठता- ‘आज कहाँ जा रहे हैं’ तो उनकी आँखें लाल हो जाती और झगड़ा करने पर उतारू हो जाते। फिर कितना ही आवश्यक काम हो वे नहीं जाते। एक दिन पूछने पर उन्होंने बताया- ‘कहीं जाते समय ऐसा पूछने पर हमारी तरफ लाठियाँ चल जाती है।’ इतना ही नहीं रास्ते में कोई धोबी, तेली, डाकोत मिल जाय तो लोग अपनी खैर नहीं समझते। लोग पहले से ही अपनी हानि या सफलता की कल्पना कर लेते हैं। आश्चर्य तो यह देखकर होता है कि इन्हें मैले का टोकरा लादे हुए कोई मेहतर मिल जाय तो भारी खुशी होती है।
धार्मिक पूजा उपासना के लिए मन्दिरों और मूर्तियों का होना अच्छा है किन्तु जगह-जगह पत्थर इकट्ठे कर उन्हें सिन्दूर से रंग कर असंख्य देवी देवताओं पर सिर रगड़ने में हमारा कितना समय बर्बाद होता है? घास बाबा, प्रेत बाबा, पीर, भैरव, भवानी, भूत प्रेत के नाम पर न जाने कितने पत्थरों के सामने हम नाक रगड़ते फिरते हैं, उनसे दुआएं माँगते हैं, पर पीठ फेरने पर चाहे उन पर कुत्ते ही पेशाब क्यों न करें। यह है हमारे अंध-विश्वास का नाटक। स्वामी विवेकानन्द ने एक बार हमें चेतावनी देते हुए कहा था-’जो समाज चौके, चूल्हे तथा बर्तनों को पूजता रहेगा पत्थर-पत्थर पर सिर रखता फिरेगा वह कभी ऊंचा नहीं उठ सकता।’ किसी के बताने पर कि अमुक स्थान पर अमुक देवता ने लीला की थी, या कोई घटना हुई थी तो लोग वहाँ की मिट्टी लेते-लेते गड्ढा कर देते हैं।
किसी भी तीर्थ या मन्दिर में जाने पर हम अपना सौभाग्य समझते हैं और पुण्य कमाते हैं, एक बहुत बड़ा धर्म समझते हैं। किन्तु हमारा वह धर्म खोखला होता है। जब अपने चरणों से इन पवित्र स्थानों को हम गंदा बनाते हैं, मन्दिर के पीछे ही टट्टी पेशाब करने बैठ जाते हैं, किसी पवित्र सरोवर, नदी के वातावरण को दूषित बनाते हैं। हम दान दक्षिणा के नाम करोड़ों रुपया खर्च कर देते हैं किन्तु किसी जरूरतमंद, गरीब की सहायता करने की ओर हमारा ध्यान नहीं होता। तरह-तरह की लीलायें स्वाँग बनाने में धर्म के नाम पर पैसा पानी की तरह बहा दिया जाता है किन्तु जन-जीवन की सुविधा का कल्याण के लिये हम एक पैसा खर्च करना नहीं चाहते। धर्म के नाम पर पाखण्ड और प्रपञ्च रचने वाले सण्डे-मुस्टण्डों की भेंट पूजा में हम दिल खोलकर खर्च करते हैं, किन्तु किसी सद्गुणी, सदाचारी का सम्मान करना हम नहीं जानते। जिनका पेट खूब भरा है उन्हें हम मिठाइयाँ और माल खिलाते हैं किन्तु जिन्हें प्रयत्न करने पर भी रोटी कपड़ा नसीब नहीं होता उनकी ओर से हम आँख मीचे रहते हैं।
इस तरह हमारे जीवन में अन्ध-विश्वास, रूढ़िवादी परम्परायें व्यापक रूप से घर करे बैठी हैं। हम इन्हीं में उलझ कर सत्य से दूर रह जाते हैं। इनका मायावी पर्दा हमें सत्य तक पहुँचने ही नहीं देता। आवश्यकता इस बात की है कि ज्ञान, विवेक और स्वतंत्र चिन्तन के आधार पर इन्हें जाना जाय और अपने व्यवहार, कार्यप्रणाली से अंध विश्वासों को दूर किया जाय।