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Magazine - Year 1964 - Version 2

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युग-निर्माण योजना को गतिशील बनाने का उत्तरदायित्व परिवार के सक्रिय कार्यकर्ताओं- शाखा संचालकों के कंधे पर आया है। उन्हीं के सहयोग से गत वर्ष में इतनी प्रगति संभव हुई है और आगे धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने का आज का स्वप्न यदि कल साकार होना होगा तो इन्हीं कर्मठ नरपुंगवों के त्याग एवं बलिदान के आधार पर ही संभव होगा।

योजना की सफलता के लिए ‘समय दान’ की आवश्यकता है। इस ज्ञान-यज्ञ में ‘समय’ की आहुतियाँ पड़नी चाहिए। युग-यज्ञ में भाग लेने वाले याज्ञिकों से ‘समय’ श्रद्धाँजलि लेकर राष्ट्र वेदी पर उपस्थित होने का आह्वान किया गया था। प्रसन्नता की बात है कि परिजनों ने परीक्षा की घड़ी में न तो बगलें झाँकी और न मुँह छिपा कर कायरता का परिचय दिया। वरन् एक से एक आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा लगाये हुए युग-निर्माण की दिशा में बहुत कुछ कर गुजरने के लिए कटिबद्ध होकर एक सुदृढ़ सेना की तरह अग्रिम मोर्चे पर जा खड़े हुए हैं।

रचनात्मक कार्यों के लिए समय दान ही अपेक्षित होता है। धन या दूसरी ऐसी ही अन्य वस्तुएं जन-मानस के निर्माण में अधिक सहायक नहीं हो सकती। श्रद्धा के साथ किया हुआ श्रम, भावनापूर्वक दिया हुआ समय ही युग-परिवर्तन के लिए आरंभ किए गए इस महायज्ञ में अभीष्ट आहुतियों का उद्देश्य पूरा कर सकते हैं। इसलिए निष्ठावान स्वजनों में इस बार ‘समय दान’ की योजना की गई और कितने हर्ष की बात है कि स्वजनों ने इस संबंध में आशाजनक उदारता का परिचय दिया है।

अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को युग निर्माण के लिए कुछ ‘समय दान’ नित्य नियमित रूप में करते रहने का आह्वान किया है। अधिक व्यस्त और संकोची स्वभाव के व्यक्तियों को भी इतना तो करना ही पड़ता है कि अपने निज के व्यक्तित्व और परिवार को सुविकसित करने के लिए कुछ समय नियमित रूप में लगाया करें। साधना, स्वाध्याय, व्यायाम आदि द्वारा आत्म-विकास करें और एक घंटा नित्य अपने परिवार को सुशिक्षित एवं विचारशील बनाने के लिए गोष्ठी का कार्यक्रम चलाया करें। घर का कोई वयस्क व्यक्ति ऐसा न बचे जो अखण्ड-ज्योति पढ़ता या सुनता न हो। घर के लोगों को और अपने को आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देते रहने की समाज-सेवा तो हर परिजन के जिम्मे आई है। इसे अधिकाँश सदस्य पूरा कर रहे हैं जिसने अभी शिथिलता बरती है उनसे जल्दी इस क्रम को आरंभ कर देने की आशा की जाती है।

पर आज की विषम परिस्थितियों में इससे बड़े और कड़े प्रयत्नों की आवश्यकता है। थोड़ी आग लगे तो एक लोटा पानी छिड़क कर या दूसरे छोटे प्रयत्नों से उस पर काबू पाया जा सकता है। पर जब भयंकर अग्निकाण्ड हो रहा है और गगनचुम्बी लपटें उठ रही हों तो ‘फायर ब्रिगेड’ की आवश्यकता पड़ती है। भारी मात्रा में तीव्र गति से जल डालने पर ही वह आग बुझती है। आज सर्वत्र अनाचार की आग लगी हुई है। उसकी विभीषिका प्रत्यक्षतः सामने है। इसे बुझाने के लिए दमकलों की फायर ब्रिगेडों की आवश्यकता है। परिवार के सक्रिय कार्यकर्ताओं को शाखा संचालकों को हम इसी रूप में देखते और मानते हैं। उनके तप और त्याग की शीतल धारा जलते हुए मानव-समाज को शाँति प्रदान कर सकने में समर्थ हो सकती है ऐसा हमें पूरा और पक्का विश्वास है।

जिनमें कुछ अधिक साहस और श्रद्धा है, जिनमें त्याग, बलिदान के कुछ अधिक तत्व मौजूद है, जिनका अन्तरात्मा विश्व विराट परमात्मा की उपासना के लिए कुछ अधिक भावनाशील हो, उन सब स्वजनों को यह कहा जा रहा है कि वे अपने व्यक्तित्व और अपने परिवार तक ही सीमित न रहें वरन् इससे आगे बढ़ कर जन-जीवन को सुविकसित करने के लिए कुछ बड़े क्षेत्र में काम करें। कम से कम अपनी विचारधारा के व्यक्तियों से संपर्क बनाने उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए कुछ समय देते रहने को तैयार हो ही जायें। ऐसा सेवा कार्य ईश्वर उपासना या आत्मकल्याण की साधना में किसी भी प्रकार कम नहीं है। जिसने यह आदर्श स्वीकार कर लिया है और जो लोक-सेवा का परमार्थ करने के लिए घर से बाहर भी कुछ समय देने लगे हैं उन्हें अखण्ड-ज्योति परिवार का ‘शाखा संचालक’ कहा जाता है।

अखण्ड-ज्योति परिवार में गत वर्ष की अपेक्षा सदस्य बहुत बढ़ गये हैं और गत वर्ष जो शिथिल थे उनमें से अनेकों में उत्साह भी बहुत बढ़ा है इसलिए गत वर्ष के सक्रिय कार्यकर्ताओं की अपेक्षा अब उनकी संख्या कहीं अधिक है। अपना नाम ‘शाखा संचालकों’ के रजिस्टर में बहुत लोग नोट करा चुके हैं, अब इसकी जरूरत नहीं, अब इस बात की आवश्यकता है कि जिनकी अन्तरात्मा में इस महान मिशन को सफल बनाने के लिए कुछ करने की प्रेरणा उठे वे उसे कार्यान्वित करने में तुरन्त ही लग पड़े। उस कार्य को ही किसी के ‘शाखा संचालक’ होने, न होने का प्रमाण माना जायेगा।

सबसे पहला-सब से महत्वपूर्ण-सबसे आवश्यक कार्य एक ही है कि परिवार के व्रतधारी सक्रिय सदस्य-शाखा संचालक दस परिवार को प्रोत्साहन देते रहने का उत्तरदायित्व उठा लें। जो प्रशिक्षण अखण्ड-ज्योति द्वारा किया जा रहा है इसे जीवन्त बनाने के लिए हमारे व्यक्तिगत प्रतिनिधि की तरह उन शिक्षार्थियों के पास प्रेरणा देते रहने के लिए स्वयं जाना और मिलना आवश्यक है। विचारों के साथ-साथ जब व्यक्तित्व जुड़ा होता है तभी कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है। अखण्ड-ज्योति पाठकों के पीछे एक प्रेरक व्यक्ति होना ही चाहिए।

गत अंक में ‘युग-निर्माण योजना’ पाक्षिक पत्रिका के संबंध में सक्रिय सदस्यों से यह अनुरोध किया गया था कि वे अपने पैसे से या संबंधित दस सदस्यों से इकट्ठे हुए पैसे से एक पत्रिका मंगाना आरंभ करें और उसे एक-एक दिन दसों सदस्यों के घर पहुँचाने का प्रबंध करें। जरूरी नहीं कि स्वयं ही देने और लेने जाया करें, यह क्रम एक सदस्य दूसरे के घर पहुँचाने या लेने जाने का क्रम बना कर भी चला सकते हैं। इसमें शिथिलता न आने पाये यह देखते रहना संचालक का ही काम है। इसी बहाने हर ‘शाखा संचालक’ दस व्यक्तियों से संबंध बनाये रह सकता है और समय-समय पर यथा अवसर चर्चा करते हुए योजना को प्रेरणाओं को हृदयंगम करने के लिए उन्हें प्रोत्साहन देता रह सकता है।

हर ‘अखण्ड-ज्योति’ कम से कम पाँच व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जानी चाहिए। जिस घर में वह पहुँचती है उसका एक भी वयस्क सदस्य ऐसा न बचे उसे पढ़ता या सुनता न हो। तभी किसी घर में पत्रिका का पहुँचना सार्थक है। किसी के दबाव से चंदा तो दे दिया पर पत्रिका को रद्दी में पटक दिया तो इससे अपना घाटा सह कर अपनी अन्तरात्मा का रस निचोड़ कर इतना उपयोगी आध्यात्मिक भोजन परोसने के पीछे हमारा जो उद्देश्य है वह कहाँ पूरा हुआ? सक्रिय कार्यकर्ता शाखा संचालकों का यह कर्त्तव्य है कि अपने समीपवर्ती दस अखण्ड-ज्योति सदस्यों के यहाँ समय-समय पर जाया करें और यह देखा करें कि उस परिवार के लोग उसे पढ़ने या सुनने का लाभ उठाते हैं या नहीं। यदि इस संबंध में शिथिलता दिखाई पड़े तो अपनी सारी बुद्धिमता इस बात में खर्च करनी चाहिए कि उन लोगों को इन विचारों के पढ़ने एवं सुनने में अभिरुचि तथा आकर्षण पैदा हो जाय। यदि यह सफलता मिल गई तो समझना चाहिए कि ‘शाखा संचालक’ ने अपने कर्त्तव्यों का एक बड़ा भाग पूरा कर लिया।

प्राचीन काल में धर्म पुरोहित अपने यजमानों की एक सीमित संख्या रखते थे और उनसे निरन्तर संपर्क रख कर आवश्यक प्रेरणाएं देते रहते थे। इस प्रकार पुरोहित वर्ग इस सारे समाज को उत्कृष्ट प्रेरणाओं से ओत-प्रोत किये रहता था। आज उस आवश्यकता को हम और शाखा संचालक दोनों मिलकर पूरा कर सकते है। दो अठन्नियों से मिलकर भी एक रुपया बन सकता है। हम आदर्श जीवन की प्रेरणाएं अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों में लपेट कर भेजते हैं उन्हें पाठकों के गले उतारना शाखा संचालक अपने जिम्मे ले लें तो यह हम दोनों का मिला−जुला प्रयत्न प्राचीन काल के धर्म पुरोहितों जैसी आवश्यकता पूर्ण कर सकता है।

प्रत्येक घर में औसतन पाँच वयस्क नर-नारी माने जायं तो दस घरों में पचास व्यक्ति ऐसे होने चाहिए जो अखण्ड-ज्योति की प्रेरणा को सुन और समझ सकें शाखा संचालक जिसने दस अखंड-ज्योति सदस्यों के परिवारों के साथ अपना व्यक्तिगत संबंध जोड़ते हुए इस विचारधारा को उस क्षेत्र से हृदयंगम कराने का लिया है, सरलता से पचास व्यक्तियों का प्रेरणा केन्द्र बना रह सकता है और समय-समय पर उन्हें आवश्यक परामर्श एवं प्रोत्साहन देकर उत्कृष्ट जीवन जीने के लिए प्रस्तुत कर सकता है। एक व्यक्ति दूसरे पचास व्यक्तियों को प्रकाश देने लगे तो इसे सामान्य नहीं असामान्य बात ही मानी जायेगी। इसे छोटी नहीं बड़ी वस्तु ही कहा जायेगा। वैसे यह कार्य करने में उतना कठिन नहीं है। एक घंटा रोज लगा कर एक-दो व्यक्तियों से मिलते रहने का उद्देश्यपूर्ण कार्यक्रम बना लिया जाय तो यह कार्य उतना कठिन नहीं है जिसमें सामान्य स्थिति के व्यक्ति को भी कुछ कठिनाई प्रतीत हो। जहाँ दस से कम सदस्य हैं वहाँ यह क्रम थोड़े सदस्यों से भी चलाया जा सकता है। पीछे प्रयत्न करके और नये सदस्य भी बढ़ाये जा सकते हैं। जिन सज्जनों ने जिन्हें अखण्ड-ज्योति का ग्राहक बनाया है, वे तो सहज ही उनके शाखा-संचालक बन सकते हैं।

हम चाहते हैं कि अखण्ड-ज्योति परिवार का जून के अन्त तक इस पद्धति से वर्गीकरण हो जाय। दस सदस्यों से संपर्क बनाये रहने का कार्य एक सक्रिय कार्यकर्ता अपने जिम्मे ले लें। दो सक्रिय कार्यकर्ता अपने संबंधित सदस्यों की बीस अखण्ड-ज्योतियाँ अपने नाम रेल या डाक से मंगा लिया करें और हर महीने उनके घर देने जाया करें। इस प्रकार उन्हें एक बार तो अपने इस विचार परिवार से मिलने का विशेष अवसर मिल ही जाया करेगा। अंक खोने की शिकायतों से भी इस प्रकार सहज ही छुटकारा मिल जायेगा।

इस महीने हम प्रत्येक अखण्ड-ज्योति सदस्य से यह आशा करेंगे कि वह एक से दस की संगठन पद्धति के अनुसार संगठित हो जाय। दस पीछे एक शाखा संचालन चुन लिया जाए, नियुक्ति हो जाय या कोई कर्मठ कार्य-कर्ता स्वतः ही करने लगे। जिस नगर में अधिक सदस्य है वहाँ भी इसी पद्धति से वर्गीकरण कर लिये जाय और इन शाखा संचालकों का हर नगर में एक संगठन बना रहे। अगले वर्ष अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जाने हैं उसका आधार उनका यह संगठन क्रम ही होगा। इसलिए इसे अत्यंत आवश्यक एवं महत्वपूर्ण कार्य मानकर इसी महीने पूरा कर लेना चाहिए।

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