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Magazine - Year 1965 - Version 2

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निग्रहीत मन की अपार सामर्थ्य

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सूर्य की स्वाभाविक धूप जो शरीर पर पड़ती है कठिन गर्मी में भी उसे शरीर सहन कर लेता है। किरणें बिखरी हुई होती हैं अतः वे अपना सामान्य ताप ही दे पाती हैं। किन्तु नतोदर शीशे के लेन्स से एक इंच स्थान की धूप को केन्द्रित कर दिया जाय तो उस ताप को शरीर का कोई भी अंग सहन न कर सकेगा। कोई भी वस्त्र उसमें बिना जले न रहेगा। उससे कहीं भी अग्नि पैदा की जा सकेंगी और विविध प्रयोजन पूरे किये जा सकेंगे।

सूर्य किरणों की केन्द्रीभूत शक्ति की तरह निग्रहीत मन की शक्ति और सामर्थ्य भी अतुलित है। अस्त-व्यस्त मनोदशा से जीवन का कोई विशेष उद्देश्य पूरा नहीं होता। सामान्य श्रेणी के जीवों की तरह ही वह आहार-विहार की साँसारिक बातों में ही उलझा रहता है किन्तु यदि उसे एक लक्ष्य पर स्थिर कर दिया जाय तो उससे साधारण जीवन में भी कई गुनी शक्ति दिखाई देने लगेगी और मन चाही कल्पना पूरी की जा सकेगी।

साधारण लोगों के मन की कोई निश्चित गति नहीं होती। तालाब के पानी की तरह जिधर से हवा चली उधर से, वैसी ही कम-ज्यादा वेग वाली लहरें उठने लगेंगी। प्रायः लोग अपने से बड़े, पास-पड़ोस और उस समाज के व्यक्तियों के आचरणों का ही अनुकरण करते रहते हैं और उतने ही क्षेत्र में विचार उठाते रहते हैं। इससे मनुष्य के जीवन में कोई विशेषता नहीं आती। किन्तु यदि मन को संकल्पपूर्वक किसी विशेष लक्ष्य की पूर्ति में लगा दिया जाता है तो उसमें समुद्री ज्वार-भाटे की तरह ऐसी शक्ति भर जाती है कि कठिन दिखाई पड़ने वाले कार्य भी आसानी से पूरे हो जाते हैं। लोग उनकी सफलता पर आश्चर्य प्रकट करते हैं, यह सब उन्हें चमत्कार-सा लगता है। पर चमत्कार-सी दिखाई देने वाली यह सफलता एकाग्र मन की संग्रहीत शक्ति के परिणाम से और कुछ अधिक नहीं होती। मन की तन्मयता में वह शक्ति है जो बड़े से बड़े कार्य आसानी से पूरी कर सकती है।

मन में उठने वाली इन विचार तरंगों को स्वेच्छापूर्वक विचरण न करने देना चाहिए। क्योंकि निरन्तर उठते रहने वाले विचार अच्छे बुरे जैसे भी होंगे वैसे ही तत्व वे सूक्ष्म जगत से आकर्षित करते रहेंगे और वह विचार स्वभाव में परिणत होने लगेगा। बाह्य रूप से शारीरिक परिवर्तन भले ही दिखाई न पड़े पर यदि कुविचारों में ही मन रस लेता रहे तो बुरे स्वभाव का परिपक्व हो जाना अवश्यम्भावी है। इस अवस्था में मनुष्य अपना नैतिक पतन तो करता ही है औरों को भी पथ-भ्रष्ट करने का एक सजीव केन्द्र सा बन जाता है। इस तरह के विचारों वाले मनुष्य की समीपता जिसे भी मिलेगी उनके भी दुष्ट और दुराचारी हो जाने की सम्भावना रहेगी।

मनः शक्ति के इस दूषित पक्ष को देखकर ही उसे स्वेच्छाचारी न होने देने की सलाह दी गई है। शास्त्रकारों ने निरन्तर अभ्यास द्वारा उसे नियंत्रण में रखने की शिक्षा दी है। उन्हें यह मालूम था कि दृश्य जगत के संपर्क में रहने के कारण मनुष्यों की वासना एवं तृष्णा परक आकाँक्षाओं का उठना स्वाभाविक है। उन्हें जिधर आकर्षण दिखाई देगा उधर ही दौड़ेगी। मन को स्थूल भोगों में ही अधिक सुख मिलता है अतः उसकी इच्छायें, आकाँक्षायें, कल्पनायें तथा विचारणायें भी वैसी ही अधोगामी होंगी। हीन विचारों के कारण मनुष्य के जीवन में चंचलता, अस्थिरता, क्षुद्रता और निकम्मापन आता है। फलस्वरूप यह जीवन अनेक कष्टों एवं उद्वेगों में फँसा रहता है। उस उलझन में न किसी तरह की भौतिक उन्नति ही हो पाती है न आध्यात्मिक लक्ष्य ही पूरा हो पाता है।

अनियंत्रित मन प्रयोग रूप में अनेकों आकाँक्षायें बनाता बिगाड़ता रहता है। कभी वह असंख्य धन प्राप्त करने की इच्छा करता है, कभी विद्वान होने का सपना देखता है। पहलवान बनने, नेता बनने, प्रतिष्ठा पाने, धनी होने, भोग भोगने की अनेकों योजनायें वह बनाया करता है। यह योजनायें स्थिर नहीं होती है। औरों के जीवन की प्रतिक्रिया स्वरूप ही वह इन लालच भरे सपनों के पीछे अंधी दौड़ लगाया करता है। पर उसकी कोई भी आकाँक्षा निर्दिष्ट नहीं होती। हृदय की संवेदनशीलता के कारण वह प्रत्येक अवस्था में अपने आपको ही ठीक समझता है, पर इन अनेक कामनाओं का वह समन्वय नहीं का पाता। एक ही समय पर कोई वक्ता बनना चाहे और पहलवान बन सके यह असम्भव है। एक बार में एक ही क्रिया को अधिक सुविधा और सफलतापूर्वक पूरा किया जा सकता है। अभी खाना, अभी पानी, अभी घर, अभी दुकान, अभी रेल, अभी मोटर- सब बातें एक साथ नहीं होतीं। उन्हें क्रमिक रूप से पूरा करने से ही कोई उचित व्यवस्था बन पाती है। इनका क्रम किस प्रकार हो? कौन सी आकाँक्षा किस सीमा तक संजोकर रखी जाय? उसकी पकड़ कितनी मजबूत हो? इन सब पर भली प्रकार विचार करने से ही जीवन दशा को सुनियोजित रखा जा सकता है।

सबसे महत्व की बात यह है कि एक लक्ष्य के लिए अनेक आकाँक्षायें परस्पर पूरक कैसे बनें? इस स्थिति को यदि विचारपूर्वक समझ लिया जाय तो अपने अभीष्ट मनोरथों को लोग बड़ी आसानी से पूरा कर सकते हैं। इच्छायें जीवन के विशिष्ट पहलू व परिस्थितियों से बँधी होती हैं, अतः उनका योग्य निर्धारण तथा उपयोग सम्पूर्ण जीवन का एक केन्द्र बिन्दु, एक लक्ष्य निश्चित करने में है। यह लक्ष्य जितना महान होगा, उच्चस्तरीय, भव्य सम्पूर्ण जीवन को दृष्टिगत रखकर निर्धारित, सर्वांगीण और व्यापक होगा इच्छाओं और आकाँक्षाओं का वेग भी उतनी ही मजबूती तथा कठोरता से सम्हालने की जरूरत पड़ेगी। छोटी ऊँचाई से गिरने पर चोट की उतनी आशंका नहीं रहती जितनी बड़ी ऊँचाई से गिरने पर लगती है। ऊँचे लक्ष्यों को साधने के लिए इसीलिए अधिक लगन, गहन तत्परता और कठोर मानसिक नियंत्रण की आवश्यकता पड़ती है। यदि मन को साध लिया जाय और वह रुचि पूर्वक लक्ष्य पूर्ति में लगा रहे तो कठिनाइयाँ सरल हो जाती हैं और मनुष्य अभीष्ट सफलता प्राप्त कर लेता है।

पर यह कार्य उतना सरल नहीं है। लक्ष्य पूर्ति के मार्ग में अनेक द्विविधायें तथा उलझन भरे प्रश्न आते हैं जिनका निराकरण करना कठिन हो जाता है। एक प्रश्न के दो पहलू आ जाते हैं, दोनों ही उचित और आवश्यक प्रतीत होते हैं पर चुनाव एक का ही करना होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि आवश्यकता से भिन्न कोई बात सामने अटल प्रारब्ध बनकर आ जाती है उस समय यह अनुमान करना कठिन हो जाता है किसे ग्रहण करें और किसे छोड़ दें। पर यदि मन स्वस्थ और नियंत्रित है तो वह अपने विवेक बल से अच्छे बुरे का, उचित-अनुचित का ज्ञान प्राप्त कर परिस्थितियों को काबू में ला सकता है। आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि ऐसी स्थिति में विवेक का अंकुश, मनः नियंत्रण इतना कठोर हो कि उसे प्रलोभनों की ओर झुकने न दिया जाय। क्योंकि मन प्रायः अपनी रुचि के ही निर्णय निकालता है जो लक्ष्य पूर्ति में बाधक भी हो सकते हैं।

आशा, विश्वास, दृढ़ता, तन्मयता, कर्मठता, धैर्य और कष्ट सहिष्णुता मनोबल के प्रतीक हैं। मन को संतुलित अवस्था में रखने, एक ही लक्ष्य की ओर उसे प्रेरित करने में इन गुणों का प्रादुर्भाव होता है और आन्तरिक महानता विकसित होने लगती है। इन गुणों से मन की तमाम शक्तियाँ केन्द्रीभूत होकर एक प्रचंड दावानल सी बन जाती हैं। ऐसे बलवान मन को चाहे जहाँ लगा दिया जाय उधर से ही सफलता का मार्ग खुलता हुआ दिखाई देगा। निराशा, उद्विग्नता, चंचलता, और अश्रद्धा यह मनोविकार है। ईर्ष्या, विद्वेष, कुढ़न, चिड़चिड़ापन आदि से मानसिक शक्तियों का पतन होता है और जीवन में किसी विशेषता या महत्ता के दर्शन नहीं होते। यह दोनों ही पहलू मनुष्य के सामने हैं जिसे चाहे चुन लें और वैसा ही सफल या असफल जीवन बना लें।

मन बड़ा शक्तिशाली है। पर उससे कोई विशिष्ट लाभ तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उसे पूर्ण नियंत्रण में रखा जाय। जीवन लक्ष्य की प्राप्ति, साँसारिक सुख सुविधायें प्राप्त करने के लिए भी यह शर्त अनिवार्य है। हमारा मन वश में हो जाय तो इस जीवन को स्वस्थ व समुन्नत बना सकते हैं और पारलौकिक जीवन का भी मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

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