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Magazine - Year 1965 - Version 2

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सर्वनाशी क्रोध

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गीताकार ने क्रोध की सर्वनाशी शक्ति के बारे में बताते हुए कहा है।

“क्रोधात् भवति संमोहः संमोहात्स्मृति विभ्रमः।

स्मृति भ्रंशाद् बुद्धि नाशो बुद्धि नाशात्प्रश्यति॥

“ क्रोध का आवेग आने पर मूढ़ता पैदा होती है। मूढ़ता से स्मृति भ्रान्त हो जाती है। स्मृति के भ्रान्त होने से बुद्धि का नाश हो जाता है। और बुद्धिहीन मनुष्य स्वयं नष्ट हो जाता है।”

क्रोध के आवेग में जो कुछ भी हो जाय कम ही है। यह व्यक्ति के सर्वनाश का संकेत है क्योंकि इसका आवेग आने पर मनुष्य की सोचने विचारने की शक्ति क्षीण हो जाती है और वह आवेग में कुछ भी कर सकता है। मार पीट, कत्ल, आत्महत्या, नृशंस घटनायें क्रोध के आवेग में ही घटती हैं। सन्त तिरुवल्लरु के शब्दों में “आवेग उसे ही जलाता है जो उसके पास जाता है किन्तु क्रोध तो पूरे परिवार, समाज को संतप्त कर देता है। क्रोध एक प्रकार की आँधी है, जब वह आती है तो विवेक को ही नष्ट कर देती है और अविवेकी व्यक्ति ही समाज में अपराध तथा बुराइयों के कारण बनते हैं।

शास्त्रकार ने क्रोध को सर्वनाश बताते हुए लिखा है-

क्रोधःप्राणहरः शत्रुः क्रोधोमित मुखोरिपुः।

क्रोधोऽसिः सुमहातीक्ष्णः सर्वक्रोधोऽपकर्षति॥

“क्रोध प्राण नाशक शत्रु है, क्रोध अपरिमित मुख वाला बैरी है, क्रोध बड़ी तेज धार वाली तलवार है वह मनुष्य का सब कुछ हरण कर लेता है।”

क्रोध का कारण बताते हुए गीता में कहा है “कामात् क्रोधोऽभिजायते” कामना से क्रोध का जन्म होता है। अक्सर मनुष्य को अपने सुख की आराम की आनन्द की लाभ आदि की कामनायें होती हैं जब इन कामनाओं में कोई विक्षेप का कारण उपस्थित हो जाता है तो मनुष्य में क्रोध का उदय होता है। दूसरे शब्दों में अपनी हानि या दुःख का कोई कारण उपस्थित होने पर क्रोध का आवेग पैदा होता है। स्मरण रहे जिस समय में कामना जितनी प्रगाढ़ होगी क्रोध का स्वरूप भी उतना ही प्रबल और वेगवान होगा। अपने मनोरथों को विफल करने वाले, अभीष्ट की प्राप्ति के मार्ग में बाधक बनने वाले का स्पष्ट परिचय पाकर क्रोध का उदय होता है। कई बार अपनी असफलता का प्रयोग भी किसी मानसिक उद्विग्नता के कारण भी संपर्क में आने वाले लोगों से क्रुद्ध व्यवहार हो जाता है। अपने मन की जटिलताओं के कारण भी मनुष्य का स्वभाव क्रोधी बन जाता है। इन सबके मूल में एक ही तथ्य है, वह है अपनी कामनाओं में विक्षेप पड़ना, उन्हें सफल होते न देख पाना।

जब क्रोध का आवेग आता है तो उसका एक ही लक्ष्य होता है, जो अपनी कामनाओं में बाधक बना है उसे नुकसान पहुँचाना। मार-पीट कर, सामान को नष्ट कर, काम में रोड़ा अटकाकर जैसे भी बने क्रोध का लक्ष्य दूसरे को हानि पहुँचाना ही होता है। वह भले ही किसी भी रूप में पहुँचाई जाय। कभी-कभी लोग क्रोध से प्रेरित होकर अपना ही सिर फोड़ने लगते हैं। अंग भंग, आत्महत्या तक कर लेने को उद्यत हो जाते हैं, ऐसे लोग। किन्तु इसका आधार भी अपने कुटुम्बियों, स्नेह, सम्बन्धियों को वर्तमान या भविष्य में हानि पहुँचाना ही होता है। स्मरण रहे ऐसी हरकतें बेगानों के साथ कभी नहीं की जातीं। ऐसा मनुष्य तभी करता है जब दूसरों को इस प्रपंच की परवाह होती है वे इस क्रोध प्रदर्शन से प्रभावित होते हैं।

लेकिन कई बार जब मनुष्य अपने प्रतिकार की भावना को पूर्ण नहीं कर पाता, दूसरे के शक्तिशाली या समर्थ होने पर क्रोधी जब अपने मन्तव्य में सफल नहीं हो पाता तो वह स्वयं अपने ऊपर वैसी ही क्रिया करने लगता है, जैसी दूसरे को हानि पहुँचाने के लिए करता है। वह अपना सिर फोड़ने लगता है, बाल नोंचता है, अंग भंग करता है। इस तरह क्रोध की कार्य पद्धति एक ही है, वह है नाश करना तोड़ फोड़ करना, नुकसान पहुँचाना।

क्रोध अन्धा होता है। वह केवल उस ओर देखता है जिसे दुख का कारण समझता है, या अपनी कामनाओं का बाधक मानता है। और उसका नाश हो, उसे हानि, दुःख पहुँचे, क्रोधी का यही लक्ष्य होता है। क्रोधी व्यक्ति कभी अपने बारे में नहीं सोचता। मेरी भी कोई भूल है, कुछ मैंने भी किया है, या जो मैं करने जा रहा हूँ, उसके क्या परिणाम होंगे? इनके बारे में कुछ भी नहीं सोचता। इसके कारण बड़े-बड़े अनर्थ हो जाते हैं।

क्रोध के इस अन्धेपन के कारण ही कभी-कभी निर्दोष व्यक्तियों को हानि उठानी पड़ती है। दफ्तर से बिगड़कर आया बाबू घर में पत्नी या बच्चों को मारता पीटता है। कभी नौकर पर क्रोध उतारता है। चाणक्य का क्रोध प्रसिद्ध है। वह विवाह करने जा रहा था। मार्ग में कुश उसके पैर में चुभ गये। उसने मठ्ठा और कुदारी लेकर कुशों को खोदना शुरू किया, उनकी जड़ में मठ्ठा देना शुरू किया। कई लोग जब चूल्हा जलाते-जलाते थक जाते हैं, तो वह नहीं जलता तो चूल्हे को ही फोड़ देते हैं, या पानी डाल कर अपना गुस्सा उतारते हैं। अपनी असावधानी वश जब राह चलते पत्थर या ईंट की ठोकर लग जाय तो कई व्यक्ति उसे उखाड़ कर चूर-चूर करने को उद्धत हो जाते हैं।

क्रोध का अधिक अभ्यस्त हो जाने पर मनुष्य की प्रकृति “क्षणे रुष्टः” क्षण-क्षण में बात-चीत पर चाहे वह उसके भले की ही क्यों न हो क्रुद्ध होने की आदत-सी पड़ जाती है। क्रोध का लम्बा अभ्यास हो जाने पर तो मनुष्य की मानसिक स्थिति कुछ ऐसी हो जाती है कि उसे लड़े भिड़े बिना रहा नहीं जाता। जिस तरह नशेबाज को नशे की भूख उठ आती है उसी तरह एक लम्बे अभ्यास के बाद क्रोधी व्यक्ति की मानसिक स्थिति ऐसी बन जाती है, कि उसे बात-बात पर क्रोध होने लगता है। लड़ना, भिड़ना, मारना पीटना, गाली देना बुरा कहना ऐसे व्यक्तियों के स्वभाव का स्थायी अंग बन जाता है।

क्रोध इतना फुर्तीला मनोविकार है कि इसमें सोचने-विचारने, समझाने-बुझाने का अवसर नहीं रहता। बात-बात में क्रोध का उदय हो ले जाता है। कभी-कभी हम उसका कारण सोच समझ भी नहीं पाते कि क्रोध अपने प्रचण्ड रूप में प्रकट हो उठता है। अन्य मनोविकारों के साथ अचानक ही क्रोध आ धमकता है।

क्रोध से मनुष्य के पुण्य कार्य, सद्भावनायें, सद्गुण उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे बाढ़ आने पर कोई उद्यान नष्ट हो जाता है। ऋषि ने कहा है-

संचितस्यापि महतो वत्स क्लेशेन मानवैः।

यशसस्तपसश्चैव क्रोधो नाशकरः परः॥

“वत्स! मनुष्य के द्वारा बहुत प्रयत्नों से अर्जित यश और तप को भी क्रोध सर्वथा नष्ट कर डालता है।”

सन्त कबीर ने इसी तथ्य को प्रतिपादित करते हुये कहा है :-

“कोटि परम लागे रहें, एक क्रोध की लार।

किया कराया सब गया, जय आया हंकार॥

तपते यतते चैव यच्च दानं प्रयच्छति।

क्रोधेन सर्व हरति तस्मात् क्रोधंविवर्जयेत॥

“मनुष्य जो तपः संयम दान आदि करता है उस सब को क्रोध नष्ट कर डालता है। इसलिये क्रोध का त्याग करना चाहिए।”

क्रोध को मन में स्थान देना भयंकर जहरीले नाग को घर में बिठाना है, जो एक दिन हमको सर्वथा नष्ट कर डालता है। जब क्रोध किसी कारण दब जाता है तो यह विष अन्दर ही अन्दर फैलता है और हमारे स्वभाव, मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता है।

क्रोध सामाजिक शान्ति भंग करता है। यह संक्रामक है। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फैलता है। एक व्यक्ति का क्रोध दूसरे में भी क्रोध का संचार कर देता है। और इस तरह पूरे समाज में अशान्ति की आग सुलग जाती है इस कारण वश क्रोध तत्काल प्रकट नहीं तो पाता या वह बहुत दिनों तक बना रहता है तो बैर का रूप ले लेता हैं। इसमें क्रोध की उग्रता और उसका वेग तो क्षीण पड़ जाता है किन्तु लक्ष्य को हानि पहुँचाने का भाव दिनों दिन दृढ़ होता जाता है। और अपने बचाव के लिए सोच विचारने का ध्यान रखा जाता है। फिर मौका लगते ही दूसरे पर वार कर दिया जाता है। यह क्रोध का ही परिवर्तित रूप है।

उक्त विभिन्न रूपों में क्रोध हमारे जीवन के लिए भयंकर विष सिद्ध होता है। इसीलिए सभी धर्मों समाज व्यवस्थाओं में क्रोध त्याग का उपदेश दिया गया है। हम को भी जीवन के इस भयंकर शत्रु से बचने के लिए सावधान रहना चाहिए।

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