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Magazine - Year 1965 - Version 2

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प्रार्थना को दैनिक जीवन में प्रमुख स्थान मिले

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आज भारत ही नहीं सारे संसार की बड़ी भयावह स्थिति हो गई है। संसार एक ऐसे बिंदु के समीप पहुँच गया है जहाँ पर किसी समय भी उसका ध्वंस हो सकता है। आज संसार को भयानक ध्वंस से बचाने के लिए वैयक्तिक तथा सामूहिक प्रार्थनाओं की परम आवश्यकता है।

द्वापर काल में महाभारत युद्ध की भयानक भूमिका देखते हुए दूरदर्शी भगवान व्यास, राष्ट्र और विश्व की कल्याण-भावना से विकल होकर अपनी दोनों भुजाएँ उठा कर पुकार करते रहे कि “ऐ मदान्ध लोगों! अर्थ और काम से धर्म श्रेष्ठ है, अर्थ को इतनी महत्ता देकर अनर्थ मत करो, परमार्थ का आश्रय लो, परमार्थ का आश्रय लो।” किंतु अर्थ और काम के गुलाम लोगों ने उनकी पुकार न सुनी, जिसके फलस्वरूप महाभारत का युद्ध हुआ।

आज संसार पुनः उसी महाभारत की स्थिति में पहुँच गया है। आज के आणविक अस्त्र उस समय के अस्त्र-शस्त्रों से अधिक भयानक और विनाशक हैं। साथ ही आज का संसार उस समय से कहीं अधिक लोलुप, स्वार्थी और अर्थलिप्सु बन गया है। आज भी जाने कितने मनीषी महात्मा व्यास की भाँति विहलता से पुकार कर रहे है किंतु आज का मनुष्य उसी प्रकार से फिर जैसे बहरा हो गया है। न उसे कुछ दिखलाई देता है और न सुनाई।

फिर भी सदैव की भाँति जहाँ एक ओर आसुरी सम्पद् के लोग भौतिक साधनों द्वारा संसार के विनाश की तैयारी कर रहे है, वहाँ दूसरी ओर संसार का कल्याण चाहने वाले दैवी सम्पद् के लोग आध्यात्मिक साधनों द्वारा परमात्मा से कल्याण की कामना करते हैं और इस देवासुर द्वन्द्व में “धर्म की विजय और अधर्म का नाश” के सिद्धान्त पर अन्ततोगत्वा धर्म की ही विजय होगी।

आज जिस प्रकार विनाशक तत्व संसार में व्याप्त हो गये हैं, उसी प्रकार उनका नाश करने के लिए व्यापक प्रयत्न की आवश्यकता है। धर्म-प्रिय लोगों के पास ध्वंसक वृत्ति के व्यक्तियों की भाँति भौतिक साधनों का भण्डार तो होता नहीं और न वे इनमें विश्वास करते हैं, अपितु उनके पास जो प्रभु-स्मरण और उसकी प्रार्थना रूपी अपरिमित शक्ति है वह संसार की सारी शक्तियों के अपेक्षा कहीं अधिक बढ़कर है। यदि आज संसार की सब सदाशयी व्यक्ति एक-एक अथवा एक साथ प्रभु से प्रतिदिन प्रार्थना ही करने लगें तो भी संसार के सारे अनिष्ट दूर हो जायें और उनके स्थान पर सुख और शाँति का स्रोत बहने लगे।

यह निर्विवाद है कि यदि आज के धनधारी, सत्ताधारी, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ आदि अपना काम करते हुए नित्य कुछ समय प्रभु की प्रार्थना का भी कार्यक्रम अपना लें, तो आज के यह सारे विनाश साधन स्वतः निर्माण साधनों में बदल जायें। उनके जीवन का प्रवाह अनायास ही स्वार्थ की ओर से परमार्थ की ओर बह चलेगा और तब वे स्वयं ही ध्वंसक उपादानों से घृणा करने लगेंगे और अपनी क्षमताओं को विश्व-कल्याण की दिशा में मोड़ देंगे।

किंतु उनमें यह परिवर्तन लाने के लिए अधिक से अधिक लोगों को प्रार्थनायें करनी चाहिए और अपनी प्रार्थनाओं में इन लोगों की सद्बुद्धि मिलने का भी भाव रहना चाहिये।

निरन्तर देखा जाता है कि जब किसी व्यक्ति या राष्ट्र पर कोई आपत्ति आ जाती है तो वे भी तत्परता से ईश्वर से आपत्ति दूर करने के लिए प्रार्थनायें करने लगते हैं। युद्ध के समय मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों व गुरुद्वारों में सामूहिक प्रार्थनायें होने लगती हैं, घण्टे, घड़ियाल और घण्टियाँ बजने लगती हैं, अजानें, नमाजें और ग्रन्थों की पाठ-ध्वनि होने लगती है। लोग अनुष्ठानों और प्रभु कृपा के लिए पंडितों, पुजारियों को नियुक्त करने लगते हैं। इस बात से स्पष्ट प्रकट होता है कि लोग प्रार्थनाओं में महत्व को समझते हैं और उनमें विश्वास करते हैं, किंतु तब पता नहीं कि नित्य प्रति प्रभु-प्रार्थना क्यों नहीं करते जिससे संसार में आपत्तियाँ आये ही नहीं।

आज प्रत्येक व्यक्ति संसार के तट पर खड़ी आपत्ति को देख रहा है, फिर क्यों नहीं प्रार्थनाओं के अमोघ साधन द्वारा उनके निराकरण में लग जाता ? क्या वह इस बात की राह देख रहा है कि विनाश का ताँडव-नृत्य होने लगे तब वह प्रार्थनाओं का प्रारम्भ करे। यह ठीक नहीं है। जब विनाश अपना ताँडव प्रारम्भ कर देगा तब तो मनुष्य की बुद्धि ही ग्रसित हो जायेगी। सबको अपनी-अपनी पड़ जायेगी और तब उस अशाँत भाव मनःस्थिति में प्रार्थनाओं का वह प्रभाव न होगा जो शाँत मनःस्थिति में होता है।

अतः आज से ही हम सब को वैयक्तिक और सामूहिक रूप से प्रभु-प्रार्थना का कार्यक्रम अपने और संसार के कल्याण के लिए बना लेना चाहिये।

परमात्मा की प्रार्थना एक ऐसा साधन है जिससे एक स्थायी शाँति सहज रूप में संसार में लाई जा सकती है। यदि प्रतिदिन संसार में हो रहे शाँति-सम्मेलनों का सत्य उद्देश्य शाँति ही लाना है तो इनके साथ थोड़ी-सी प्रार्थना भी आवश्यक है। ईश्वर की प्रार्थना करने से मनुष्य में सद्भावनाओं का विकास होता है। बिना सच्ची सद्भावनाओं के शाँति स्थापना नहीं की जा सकती फिर क्यों न लाख शाँति सम्मेलन होते रहें।

मनुष्य जितना परमात्मा की ओर उन्मुख रहता है उतनी ही उनमें शाँति आती है। संसार में शाँति लाने के लिए अपने हृदय में जितनी अधिक शाँति लेकर प्रयत्न किया जावेगा वह उतना ही अधिक सफल होगा।

केवल संसार ही नहीं अपने छोटे से दायरे, परिवार और यहाँ तक कि अपने व्यक्तिगत जीवन में शाँति की परम आवश्यकता है। आज संसार में सामूहिक अशाँति ही नहीं वैयक्तिक अशाँति भी बहुत बढ़ गई है। प्रत्येक मनुष्य अशाँति से जलता हुआ दिखाई देता है। पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहिन, स्वामी-सेवक सब एक दूसरे से कलह करते और अशाँत होते देखे जाते हैं। क्या मनुष्य को ऐसा नारकीय जीवन बिताना शोभा देता है ? क्या वह अच्छा लगता है कि कदम-कदम पर ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, और अविश्वास का वातावरण मिलता रहे ? संसार में सुँदर स्निग्ध स्नेह की धारा बहने के बजाय आग की लपटें बढ़ती रहें?

कौन ऐसा है जो आज इस अशान्त वातावरण से त्रस्त नहीं हो गया है? एक भी ऐसा व्यक्ति देखने को नहीं मिलेगा जो इससे मुक्ति न चाहता हो। इन सारे दुःखों से छूटने का एक ही उपाय है- ‘प्रार्थना’। सच्चे अन्तःकरण से मानव को दोष, दुर्गुणों से रहित सत्पथगामी बनाने की प्रार्थना प्रारम्भ होते ही संसार से सारे दुःख, क्लेश दूर होने लगेंगे।

प्रार्थना एक विज्ञान है जिसमें मनुष्य को बदल देने की शक्ति होती है। साधारण व्यवहार में जब विनम्रता सफलता का कारण बनती है तो ईश्वर को लक्ष्य बनाकर जो विनय की जावेंगी उसकी शक्ति का कितना व्यापक प्रभाव पड़ेगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

जब एक व्यक्ति भी प्रार्थना करेगा तो उससे वातावरण में जो प्रभाव पड़ेगा, उससे अन्य व्यक्ति प्रभावित होकर प्रार्थना करने के लिए उत्सुक हो उठेंगे, और अन्यों से अन्य, इस प्रकार एक दिन सारे संसार का वातावरण प्रभावित हो उठेगा। जब अनुकरण की सहज बुद्धि से मनुष्य दूसरों की बुराइयों को सीख लेता है तो क्या कारण है कि यह अच्छाइयों को ग्रहण न करेगा? आज जब एक राष्ट्र अन्य राष्ट्र का अनुकरण कर रहा है, तो कौन कह सकता है कि एक देश में यदि नियमित रूप से सामूहिक प्रार्थनाओं का राष्ट्रगत कार्यक्रम अपनाया जावे तो दूसरे राष्ट्र उसका अनुकरण नहीं करेंगे।

प्रार्थना का हमारे दैनिक जीवन में नित्य के आवश्यक कार्यों की तरह स्थान रहना चाहिए। जिस प्रकार स्नान, भोजन आदि को भुलाया नहीं जाता उसी प्रकार प्रार्थना को भी भुलाया न जाय। आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली इस पुण्य प्रक्रिया को दैनिक जीवन की एक आवश्यक क्रिया मानकर उसे नित्य प्रति निष्ठापूर्वक करते रहा जाय।

अच्छा तो यह हो कि प्रार्थना का महत्व समझाने और उसे दैनिक जीवन में स्थान देने के लिए एक जन आन्दोलन जैसी योजना बनाई जाय। इससे आस्तिक ईश्वर भक्त और प्रार्थना की शक्ति से सम्पन्न भारत, अपने कल्याण की ही शक्ति सामर्थ्य प्राप्त नहीं करेगा वरन् उससे समस्त विश्व का भी कल्याण होगा।

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