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Magazine - Year 1965 - Version 2

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Language: HINDI
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घर छोड़कर भागना पाप है।

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किसी भी मार्ग का अनुसरण करें गुण-दोष कुछ न कुछ सभी में मिलेंगे। यह समझ कर सहज कर्म करने में ही मनुष्य को रुचि लेना चाहिये। छोटे-छोटे दोषों पर पारिवारिक मनोमालिन्य या किसी साधारण सी बात को लेकर गृहस्थ जीवन का परित्याग करने वाले या घर छोड़कर भाग खड़े होने वालों की भर्त्सना ही की जा सकती है। अपने बालक-बच्चों तथा आश्रितों को असहाय अवस्था में छोड़कर भागने वालों को परमात्मा के कोप का भाजन बनना पड़े तो इसमें अनुचित भी क्या है। ईश्वर की उपासना के लिये भी इस तरह घर छोड़कर भाग खड़े होना न शास्त्र सम्मत है न ईश्वर इच्छा के अनुरूप। एक व्यक्ति की सुविधा के लिये अनेकों को दुखी एवं कष्टमय जीवन बिताने के लिये विवश करना ईश्वर का विधान कभी नहीं हो सकता। मनुष्य में इतना साहस होना चाहिये कि छोटी-छोटी कमियों, गलतियों, त्रुटियों, कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों में भी स्वधर्म-पालन पर अड़ा रह सके। गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है-

“सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्”

‘हे अर्जुन! सर्वत्र कोई न कोई दोष होता ही है, किन्तु कर्तव्य पालन का फिर भी परित्याग नहीं होना चाहिये।” हमें जिस स्थिति में परमात्मा ने पैदा किया है और जो स्वभाव के अनुसार है, विवेकयुक्त हैं, जिसमें धर्म की अधिकाँश मर्यादायें समाहित हों, उसका मनोयोगपूर्वक पालन करने से श्रेय की प्राप्ति होती है। अपना धर्म ठुकराकर, गृहस्थ से भागना या घर छोड़कर केवल अपने सुख के लिये इधर-उधर मारे-मारे घूमना पाप है।

सभी मनुष्यों को इच्छानुकूल सुविधायें मिलती रहें ऐसी व्यवस्था इस संसार में नहीं है। विद्यार्थी का परीक्षाफल में उत्तीर्ण होना ही नहीं, असफल होना भी संभव है। फेल हो जाने पर यह सोचना कि अब मैं किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा, घरवाले क्या कहेंगे, मित्रों के सामने जाते हुये अतीव ग्लानि एवं लज्जा का अनुभव होगा, यह आँधी मति विद्यार्थी को कभी शोभा नहीं दे सकती। जीवन को गतिमान रखने के लिये असफलताओं के आघात आवश्यक भी हैं, निरन्तर सफलता भी जड़ता का ही चिन्ह है। उसमें मनुष्य जीवन के सर्वांगीण विकास की दृढ़ता नहीं प्राप्त कर सकता।

कोई-कोई व्यक्ति घर के झगड़ों से क्षुब्ध होकर, या जीवन में आती रहने वाली अन्य कठिनाइयों का इच्छित समाधान न कर सकने के कारण आत्म हत्या कर लेते हैं या घर छोड़कर भाग जाते है। इस तरह कर्तव्य कर्म से विमुख होना तो अपना ही नहीं अपने स्वजन परिजनों के साथ भी आत्म-घात ही हुआ। पीछे बिलखते हुये अभिभावक या त्रास भोगते हुये निरीह बालक-बालिकाओं को छोड़ जाना भी क्या मनुष्य का धर्म हैं? ऐसा करने वालों की निन्दा ही की जा सकती हैं, भले ही परिस्थितियाँ कितने ही नाजुक दौर तक पहुँच गई हों। उनका डटकर हिम्मत के साथ मुकाबला करना चाहिये। कठिनाइयों से घबरा जाय, वह भी कोई आदमी है। ‘आल्पस पर्वत’ से टक्कर लेकर ही एक मामूली इन्सान, महान् नैपोलियन बनता है। ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेकर एक मामूली वकील महात्मा गाँधी बनता है। स्वतन्त्रता संग्राम में एक नई आजाद हिन्द फौज खड़ी कर देने को सुभाष की सी हिम्मत होनी चाहिये। छोटी-छोटी बातों पर भाग्य की दुहाई पुरुष को तो विषमताओं से जूझने के लिये हर घड़ी तैयार रहना ही चाहिये।

परिस्थितियों पर विचार करने के लिये मनुष्य को सदैव गंभीरता से काम लेना चाहिये। आज जैसी स्थिति कल भी रहेगी यह सोचना अबुद्धिमत्तापूर्ण है। हम साहस, शौर्य और कर्मठता से काम करें तो असफलता को सफलता में, निर्धनता को धन प्राप्ति में, अस्वस्थता को उत्तम स्वास्थ्य में क्यों नहीं बदल सकते? थोड़ा समय ही तो लगेगा। एक दिन में किसी को सफलता मिली भी हैं? फिर आप ही उतावले क्यों होते है। धैर्य रखिये और कठिनाइयों से लड़ पड़िये। आपका खराब समय जरूर टल जायेगा। गरीबी दूर होगी। जरूर आपके स्वास्थ्य में परिवर्तन होगा।

शारीरिक दृष्टि से पीड़ित या मानसिक विक्षोभ के कारण गृह-परित्याग कर देने वालों की तरह एक ओर भी वर्ग होता है जो किसी ऋद्धि-सिद्धि के चक्कर में बाबाओं द्वारा चेले मूँड़ लिये जाते है या आवेश और अत्यधिक भावुकता के कारण गृहस्थ-जीवन को जंजाल, मिथ्या, माया और भ्रम बताकर घर से भाग जाते हैं। हम इस स्थिति को पहले से भी अधिक दुःखदायक मानते हैं। हम इस स्थिति को पहले से भी अधिक दुःखदायक मानते हैं। हम इस स्थिति को पहले से भी अधिक दुःखदायक मानते हैं। यदि मनुष्य के लिए पारिवारिक जीवन, बालकों, परिजनों का पालन पोषण ही माया है तो यह सारा संसार अन्न, वस्त्र यह भी तो सब माया ही है। फिर क्यों दूसरों के दरवाजे पर भीख माँगते घूमते हैं ? क्यों दूसरों के गाढ़े पसीने की कमाई मुफ्त में खाते हैं ? माया और जंजाल इस संसार में कुछ भी नहीं हैं। मनोविकार ही हैं जिन्हें माया कहें, शैतान कहें या भटकने वाला समझें। मनुष्य सद्विचारों से ओतप्रोत हो, तो परमात्मा की उपासना का वही सुख घर में रहकर भी प्राप्त कर सकता है जो दर-दर भटकते से भी संभव नहीं हैं। छोड़ना ही है तो मनुष्य के शरीर में बसे हुए काम, क्रोध, लोभ, मद तथा मोह आदि को ही क्यों न छोड़ा जाय। इससे यह जीवन भी शान से जीने का आनन्द मिलता है और परलोक में भी सुख मिलता है।

जो मनुष्य सामाजिक जीवन में रहकर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रखता वन में जीने या घर बार छोड़ देने से उसका मन भी बदल जायगा। वहाँ भी वह अपने पाप के नये-नये तरीके ढूंढ़ लेगा। और नहीं कुविचारों के रहते हुए भला उसे आत्म-शान्ति कैसे मिलेगी ? इधर घर वालों की कलपती हुई आत्माओं से निकली हुई दुर्भावनायें भी क्या उसे चैन से रहने देंगी। सामाजिक जीवन कर्त्तव्य के अनेकों रास्ते होते हैं जिनमें लगा रहकर मनुष्य मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है और आसानी से अपना पारमार्थिक लक्ष्य पूरा कर सकता है। अन्यत्र रह कर पाप के कीचड़ में फिसल जाने का भी खतरा हो सकता है किन्तु उपयुक्त गृहस्थ जीवन में ऐसी तो कोई भी आशंका नहीं होती।

धर्म और ईश्वरत्व की आड़ में कितने ही लोग घर के क्लेश के कारण कष्ट का अनुभव होने पर लज्जा, भय और क्रोध के वशीभूत होकर घर से पलायन कर जाते है। दूरदर्शी न होने के कारण ही वे ऐसा करते है। बाहर जाकर जब उन्हें और भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तब पश्चाताप करते हैं। इधर घर न लौटने की मिथ्या लोक लाज के कारण मन और भी विक्षुब्ध बना रहता है। ऐसी अवस्था में किसी वेषधारी साधु-महात्मा के चक्कर में पड़कर बेचारे स्वयं भी वैसा ही छल, कपट और आडम्बर का जीवन बिताने को मजबूर होते है।

इस तरह पाखण्ड-प्रचारकों के मन से पाप की भावना तो जाती नहीं, सुख-शान्ति भी नहीं मिलती, दूसरे ढर्रे से तृष्णा और दूसरे ढंग से विषय पतले पड़ जाते हैं, और वे अधोगति की ओर ही ले जाते हैं। इसलिए हमें गीता के इस आदेश को बार-बार स्मरण करना चाहिये-

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमो द्वारैस्त्रिभिर्नरः।

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति पराँ गतिम्॥

अर्थात्-हे अर्जुन! काम, क्रोध, मोहादि विकारों से छूटा हुआ मनुष्य आत्म-कल्याण का आचरण करता रहे तो इससे उसे सहज ही परम गति प्राप्त हो जाती है।

गीता में इसीलिए स्वधर्म पालन पर विशेष बल दिया गया है। इस अभिप्राय को ठीक-ठीक समझ लेने पर मूढ़ कल्पना से बच जाता है। इतिहास में जिन महापुरुषों ने घर त्यागा है उनने समाज सेवा के लिए पूरा समय लगाने की दृष्टि से ही वैसा किया है। इसका अभ्यास गृहस्थ में से भी थोड़ा समय सेवा कार्यों के लिए लगाकर किया जा सकता है और जब अनुकूल अवसर हो तब विवेकपूर्ण समाज सेवा का व्रत लेकर पूरे समय भी घर से बाहर रहा जा सकता है। यह स्थिति अलग है। संसार को माया कह कर घर छोड़ भागना तो इससे बिलकुल ही उलटी और हेय स्थिति है। इससे हर विचारशील को बचना ही उचित है।

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