• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • अन्तःकरण की आवाज सुनो और उसका अनुकरण करो
    • प्रार्थना को दैनिक जीवन में प्रमुख स्थान मिले
    • आत्म-शक्ति का अकूत भंडार
    • श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं
    • Quotation
    • भारतीय संस्कृति मानवता का वरदान
    • वसुधैव कुटुम्बकम्
    • जीवन एक वरदान है इसे वरदान की तरह जियें
    • सुन्दरता बढ़ाइए पर साथ ही आन्तरिक पवित्रता भी
    • Quotation
    • निग्रहीत मन की अपार सामर्थ्य
    • सर्वनाशी क्रोध
    • धन का सही उपार्जन और सही उपयोग ही उचित है।
    • Quotation
    • दैनिक जीवन में विनीत बने रहिए
    • जीवन को स्वस्थ, सार्थक एवं सुखी बनाइये
    • भारत के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाली ‘बहिन निवेदिता’
    • हमारी वीरता अक्षुण्ण रहनी चाहिये
    • मधु-संचय
    • मधु-संचय (Kavita)
    • आदर्श गुरु शिष्य परम्परा फिर जागे ?
    • सुखी न भयउँ ‘अभय’ की नाईं
    • घर छोड़कर भागना पाप है।
    • काम में लगन भी हो और भावना भी
    • कर्ज से छुटकारा पाना ही ठीक है।
    • युग निर्माण आन्दोलन की प्रगति
    • हमारा निमन्त्रण दूसरों तक पहुँचाइए
    • धर्म मंच से युग-निर्माण का प्रेरणाप्रद साहित्य
    • उद्बोधन!
    • उद्बोधन (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login





Magazine - Year 1965 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 3 5 Last
गुरुनिष्ठ, जबाला के पुत्र सत्यकाम ब्रह्मा को जानने की इच्छा से महर्षि हरिद्रुमत के पास गये। गुरुजन तब शिष्य की श्रद्धा की परीक्षा लिया करते थे। श्रद्धावान् शिष्य ही ब्रह्मा-ज्ञान प्राप्त कर सकते है। अतः उनकी यह परीक्षा लेने के उपरान्त ही उन्हें विशद-ज्ञान दिया जाता था। महर्षि ने भी वही किया। सत्यकाम को 4 सौ अत्यन्त कृश गायें सौंपी गईं और उनकी संख्या एक हजार न होने तक उसे वापस न लौटने की आज्ञा कर दी गई। सत्यकाम गायों की सेवा में तत्पर हुये। उनकी अटूट श्रद्धा के कारण ही उन्हें वृषभ, अग्नि, हंस तथा मद्रु नामक जल मुर्ग पक्षी के द्वारा ब्रह्मा ज्ञान प्राप्त हो गया।

छान्दोग्य उपनिषद् की इस कथा में उपनिषद्कार ने श्रद्धा को ही ब्रह्मा-ज्ञान की पृष्ठ भूमिका सिद्ध की है। साधना के क्षेत्र में जो अनेक विघ्न व बाधायें आती हैं, उनसे बचाने के लिए श्रद्धा अनिवार्य है। ब्रह्मा-ज्ञान की पूर्णता तक पहुँचने के लिए जिज्ञासु के अन्तःकरण में तरह तरह की शंकायें उठा करती हैं, वह कभी ब्रह्मा की ओर, कभी माया की ओर खिंचता रहता है। इनमें मायावी तत्व, साँसारिक भोग वासनाओं में ऐसी आकर्षक शक्ति भरी होती है कि वह एक क्षण में मनुष्य को साधन-विरत कर देती है। इनसे बचाने का एक मात्र पाथेय मनुष्य की आन्तरिक श्रद्धा है। हृदय में श्रद्धा और मन में विश्वास हो तो अनेक कठिनाइयों के होते भी मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ चला जायगा। श्रद्धा मनुष्य में दृढ़-निश्चय शक्ति पैदा करती है, जिससे वह उस कंटकाकीर्ण पथ को प्रसन्नतापूर्वक पार कर लेता है, साधारण व्यक्ति जिस पर चलने से भी डरते, कतराते और दूर भागते हैं। इसलिए श्रद्धा के द्वारा ही आध्यात्मिक जीवन का श्री गणेश माना जाता है।

श्रद्धा से यद्यपि निश्चयात्मक बुद्धि का संचार होता है किन्तु वह बुद्धि से निम्न तत्व है। बुद्धि साँसारिक, सामाजिक एवं व्यवहारिक जीवन की शक्ति है। जबकि श्रद्धा आपका और परमात्मा के असीमत्व को बाँधने और पकड़ने वाली प्रचण्ड क्षमता है। अतः वह बुद्धि की अपेक्षा अधिक सद्-प्रवृत्त और जागृत है। श्रद्धा एक प्रकार की आत्मा के सूक्ष्म अन्तराल से प्रस्फुटित होने वाली आनन्दपूर्ण कृतज्ञता है जो निराश हृदय को सान्त्वना, अवलम्बन एवं जीवन देती है। प्रेक का क्षेत्र एकाकी है, इसलिए उसका विस्तार श्रद्धा की अपेक्षा कम है। श्रद्धा सर्वात्मा की अनुभूति कराने वाली शक्ति का नाम है। इसमें आत्म-समर्पण का भाव है इसलिए वह अन्य सभी सद्भावनाओं से श्रेष्ठतम है। श्रद्धा परमात्मा के प्रेक का प्रतीक है।

संत बिनोवा ने कहा है- “सद्विचार पर बुद्धि रखने का नाम ही श्रद्धा है। यही श्रद्धा मनुष्य को शक्ति, प्रेरणा एवं आध्यात्मिक प्रकाश देती है और मनुष्य जीवन को सार्थक बनाती है।” महात्मा गाँधी जी के विचार में “श्रद्धा का अर्थ है आत्म विश्वास।” इस तरह का विश्वास मनुष्य जीवन में सदैव अपेक्षित है क्योंकि व्यक्ति की यदि ‘अहं’ भावना का नाश नहीं होता तो उसकी अन्तर्मुखी दृष्टि भी जागृत नहीं होती। केवल बाह्य पदार्थों में सुख अनुभव करने और उनमें ही अपना अधिकार प्रदर्शित करते रहने से मनुष्य की बुद्धि पूर्णतया साँसारिक बन जाती है। श्रद्धा के द्वारा विनयशीलता आती है, नम्रता का उदय होता है। परमात्मा को प्राप्त करने की यह आवश्यक शर्त है कि मनुष्य अपने आपको बिल्कुल छोटा अहंकार विहीन बना ले। जब तक मनुष्य की यह आन्तरिक वृत्ति जागती नहीं तब तक उसे विषय-विकारों से निवृत्ति भी नहीं मिलती। श्रद्धा के द्वारा मनुष्य में भक्ति भाव आता है। वह अपने आपको परमात्मा के हाथों सौंपकर हलकापन अनुभव करता है इससे उसकी आध्यात्मिक दिशा सरल एवं बोधगम्य बनती है और मनुष्य तेजी से जीवन सार्थकता की ओर बढ़ता चला जाता है।

लोग समझते हैं कि परमात्मा की कृपा जब तक नहीं होती तब तक ईश्वरीय ज्ञान का अभ्युदय नहीं होता, किन्तु बात ऐसी नहीं है। परमात्मा की कृपा सब पर समान है। मनुष्य यदि उसकी कृपा से वंचित है तो इसका मूल कारण उसका अपना ही दर्प व अभिमान है। जो मनुष्य अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर श्रद्धानुरत कर लेते हैं वे दिव्य ज्ञान या परमात्मा की कृपा के अधिकारी बन जाते हैं। मन और इन्द्रियों का संयम श्रद्धा से ही होता है, श्रद्धा से ही आत्म ज्ञान की तत्परता आती है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्ध्वा पराँ शान्ति मचिरेणाधि गच्छति॥

(गीता 4 । 39)

अर्थात्- साधन परायण, इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने वाले, श्रद्धावान् व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस प्रकार ज्ञान प्राप्त व्यक्ति ही परमात्मा को प्राप्त करते हैं।

श्रद्धा, क्षणिक भावुकता या आवेश का नाम नहीं है वरन् यह साधना की कठिनाइयों को झेलने की कसौटी है। आवेशपूर्ण श्रद्धा से जीवन में कोई विशेष लाभ नहीं होता किन्तु जो लोग दृढ़तापूर्वक साधन की कठिनाइयों को सहन करते रहते हैं उनकी श्रद्धा और भी तेजस्वी बनती है और मन पर तथा इन्द्रियों पर संयम करना आसान हो जाता है।

“हम हैं” और “हमें सुखपूर्वक, भोगपूर्वक जीवित बने रहना चाहिये” जब तक मनुष्य इतने ही घेरे में पड़ा रहता है तब तक उसे केवल भौतिक वस्तुओं का ही ज्ञान रहता है, इसी को ही वह सब कुछ मानकर दिन-रात इसी प्रयोग में लगा रहता है। किन्तु मनुष्य जब अपने आपको घुलाकर अपने सुखों को दूसरों पर ढाल देना चाहता है तो उसका आत्म तत्व जागृत होता है। आत्मा और “मैं शरीर हूँ” का भेद प्राप्त होने पर मनुष्य की विचार प्रणाली में परिवर्तन आता है तब वह सोचता है मैं क्या हूँ, मेरी उत्पत्ति का कारण क्या है, उद्देश्य क्या है? इन प्रश्नों की गहराइयों में बढ़ते हुये मनुष्य को एक विश्वास प्राप्त होता है कि सचमुच उसका अपना अस्तित्व इस संसार में कुछ भी नहीं है। सम्पूर्ण जगत की तुलना में वह मिट्टी के एक कण से भी बहुत छोटा है। इस तरह के आत्म ज्ञान का आभास होने पर आत्मा के विषय में वह दृढ़ हो जाता है और इस तरह ईश्वर के प्रति विश्वास दृढ़ हो जाता है। श्रद्धेय के प्रति अपनी श्रद्धा का विकास करने से उसे आत्म विषयों में और भी अधिक आनन्द की अनुभूति होने लगती है। फलस्वरूप श्रद्धा से ही उस मनुष्य के जीवन में सुख का विस्तार होता है और परमात्मा की प्राप्ति में पड़ने वाले विघ्नों को, घेरों को तोड़ते हुये जीवन उद्देश्य की ओर बढ़ते रहने का साहस जाग जाता है। इस स्थिति में पहुँचने के उपरान्त आध्यात्मिक प्रगति में बाधायें आते हुये भी वह मन्द या शिथिल नहीं होती। आगे बढ़ने का उत्साह सदैव ही बना रहता है।

भोगवादी व्यक्ति जिस तरह भोग की लालसा में अनुचित-उचित का विचार नहीं करता और उसी में सुख का अनुभव करता है उस तरह सदाचारी व्यक्ति भी अपने चारों ओर प्रसन्नता देखना चाहता है। अपनी प्रसन्नता का निश्चय श्रद्धा द्वारा ही होता है, क्योंकि अपनी यथार्थ शक्ति और सामर्थ्य का बोध श्रद्धा द्वारा ही होता है। भले ही उन अभूतपूर्व परिणामों की तत्काल उपलब्धि न हो किंतु श्रद्धा के साथ जो आशा का अविचल सम्बन्ध है, उससे मनोभूमि की निराशा तथा दुःखों का अन्त हो जाता है। ऊपर से देखने में दूसरे लोग भले ही यह अनुमान करें कि उसका जीवन शुष्क, रसहीन है किंतु उसके अन्तर में जो आनन्द का स्रोत उमड़ता रहता है उसे दूसरा समझ नहीं पाता, पर वह व्यक्ति अपनी आन्तरिक आनन्द की स्थिति से ही अपने चारों ओर प्रसन्नता का अनुभव कर लेता है।

श्रद्धा इस तरह मनुष्य के व्यक्तिगत उत्थान का ही साधन नहीं वरन् उससे औरों को भी आदर्श की प्रेरणा और मंगल कार्यों में उत्साह मिलता है। क्योंकि मनुष्य अपने हृदय का परिचय श्रद्धा द्वारा ही तो देता है। श्रद्धावान् व्यक्तियों के आचरण में पवित्रता होती है, आत्मीयता, सौहार्द्र एवं सौजन्यता होती है। इन सद्गुणों के रहते हुए चारुतायुक्त वातावरण का निर्मित होना स्वाभाविक भी है। आन्तरिक श्रद्धा का धारण करने वाले मनुष्यों की सान्निध्यता में सभी को सुख मिलता है क्योंकि वहाँ किसी के लिए दुर्भावना नहीं होती।

श्रद्धा के अनुसंगी विचारों का संचार जब सामाजिक जीवन में करते हैं तो उससे स्वस्थ वातावरण बनता है। इसे समाज की आन्तरिक भूख समझनी चाहिये। ऐसे व्यक्तियों के बैठने, चलने, फिरने, हँसने, बोलने तथा व्यवहार करने से ही उनके शील एवं प्रतिभा का परिचय मिलता है फलतः दूसरे भी उनका अनुकरण करते हैं और दैवी-सम्पदाओं वाले समाज का विकास होता है।

आत्म-ज्ञान से निरुत्साहित इस युग में मनुष्य के अज्ञान का कारण मनुष्य की अश्रद्धा ही है, जिसके कारण वह मोह-बन्धनों में भटकता फिर रहा है। उसका व्यक्तिगत जीवन तथा सामाजिक जीवन दुःखमय होने का कारण भी यही है। स्वस्थ समाज की रचना के लिये, आत्म-ज्ञान एवं ब्रह्मज्ञान की नितान्त आवश्यकता की पूर्ति के लिए श्रद्धा ही साधन है। इसी से सच्चा ज्ञान समृद्ध होता है तथा लोक-मंगल की भावनाओं का विस्तार होता है।

First 3 5 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • अन्तःकरण की आवाज सुनो और उसका अनुकरण करो
  • प्रार्थना को दैनिक जीवन में प्रमुख स्थान मिले
  • आत्म-शक्ति का अकूत भंडार
  • श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं
  • Quotation
  • भारतीय संस्कृति मानवता का वरदान
  • वसुधैव कुटुम्बकम्
  • जीवन एक वरदान है इसे वरदान की तरह जियें
  • सुन्दरता बढ़ाइए पर साथ ही आन्तरिक पवित्रता भी
  • Quotation
  • निग्रहीत मन की अपार सामर्थ्य
  • सर्वनाशी क्रोध
  • धन का सही उपार्जन और सही उपयोग ही उचित है।
  • Quotation
  • दैनिक जीवन में विनीत बने रहिए
  • जीवन को स्वस्थ, सार्थक एवं सुखी बनाइये
  • भारत के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाली ‘बहिन निवेदिता’
  • हमारी वीरता अक्षुण्ण रहनी चाहिये
  • मधु-संचय
  • मधु-संचय (Kavita)
  • आदर्श गुरु शिष्य परम्परा फिर जागे ?
  • सुखी न भयउँ ‘अभय’ की नाईं
  • घर छोड़कर भागना पाप है।
  • काम में लगन भी हो और भावना भी
  • कर्ज से छुटकारा पाना ही ठीक है।
  • युग निर्माण आन्दोलन की प्रगति
  • हमारा निमन्त्रण दूसरों तक पहुँचाइए
  • धर्म मंच से युग-निर्माण का प्रेरणाप्रद साहित्य
  • उद्बोधन!
  • उद्बोधन (kavita)
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj