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Magazine - Year 1965 - Version 2

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दैनिक जीवन में विनीत बने रहिए

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शिष्टाचार भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड है। शिष्टाचार भले व्यवहार का प्रतीक है। इसका मूल उद्देश्य सब के साथ प्रेम रखना, आदर और आत्मीयता प्रदर्शित करना है। पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन की मधुरता के लिए शिष्टाचार की आवश्यकता सर्व प्रमुख है।

भली-बुरी आदतों का समावेश यों किसी से कहने सुनने से बहुत कम होता है, अधिकाँश संस्कार, अच्छी-बुरी प्रवृत्तियाँ तो बाल्यकाल में अपने अभिभावकों से ही सीखते हैं। सभ्य और शिष्ट बालक हों, इसकी शिक्षा उन्हें व्यवहार में मिले तो वह शिक्षा निश्चय ही अधिक प्रभावशाली होगी। बड़े हो जाने पर अच्छी बातें धारण करने में भी लोग लज्जा या संकोच सा अनुभव करते हैं। बालकों में इस परम्परा का विकास अपने शुद्ध आचरण से करना होगा। शिष्टाचार की उन्हें व्यवहारिक शिक्षा देने की जरूरत है।

आम बोलचाल की भाषा में हम लोगों को ‘तुम’ या ‘तू’ कहकर पुकारते है। ऐसा ही अनुकरण बच्चे भी कर लेते हैं और इन अशिष्ट शब्दों की परिपाटी चल पड़ती है। इन शब्दों में कुछ कम मिठास है। ये शब्द- सज्जनोचित भी नहीं लगते। ‘तुम’ के स्थान पर ‘आप’ का प्रयोग करने में कोई कठिनाई भी समझ में नहीं आती। छोटे-बड़े पढ़े-अनपढ़ सभी सुविधापूर्वक ‘आप’ शब्द का उच्चारण कर सकते हैं। दैनिक बोलचाल की भाषा में ‘आप’ सम्बोधन को संयुक्त होना भी चाहिए। इससे बोलचाल में आत्मीयता भी झलकती है और मधुरता भी।

अपने से बड़े गुरुजनों, माता-पिता, भाई-भावजों तथा बहनों को प्रणाम करने की भारतीय परम्परा अति प्राचीन है। प्रातःकाल अपने से बड़ों का आशीर्वाद मिल जाता है तो दिनभर उच्च भावनायें, उल्लास और स्फूर्ति बनी रहती है। आत्मीय सम्बन्ध भी प्रगाढ़ होते है। इसी तरह सायंकाल बिस्तर पर जाने के पूर्व प्रियजनों के उपकारों का स्मरण करना और उनके प्रति आन्तरिक श्रद्धा व्यक्त करना भी अपनी सद्भावनायें बनाये रखने के लिये आवश्यक है। मनुष्य के सुखी जीवन के लिये इन आचरणों का व्यवहार में लाना नितान्त आवश्यक है। सायंकाल दीपक जलाने पर, सामूहिक प्रार्थना या आरती के उपरान्त भी अभिवादन की प्रक्रिया चलाये तो और भी उत्तम है।

जब कोई नया सम्बन्धी या मित्र मिलता है और उसका परिचय कराया जाता है तो हाथ जोड़कर अभिवादन करना चाहिये। इसी तरह यदि कोई पुरस्कार या कुछ खाने की वस्तु देता है तो विनीत शब्दों में आभार प्रदर्शित करना चाहिये। शिष्टाचार में भी कोई कारीगरी नहीं लगती। सीधे सच्चे शब्दों को सरल भाव से व्यक्त कर देना किसी को भी कठिन न होगा।

गुरुजन या माता-पिता जब कुछ समझाते हों तो उस समय भी ‘जी’ या ‘जी हाँ’ कहना अच्छा लगता है। रूखेपन से ‘ऐ’ या ‘हाँ’ कहना अच्छा नहीं समझा जाता, उल्टे कहने वाले का ओछापन ही प्रकट होता है। राजस्थान में ‘हुक्म’ और बंगाल में ‘आज्ञा’ कहने की प्रथा है। इससे भी शिष्टाचार का प्रयोजन पूरा हो जाता है। इसी तरह दूसरों का नाम पुकारने में भी श्री, श्रीमान् माननीय आदि भद्र शब्दों का प्रयोग करना चाहिये। लिखते समय भी इन सम्बोधन कारक शब्दों को प्रयुक्त करें ताकि पत्र की भाषा विनम्र बनी रहे। पत्र में शब्दों की जटिलता नहीं, भाषा की विनम्रता ही प्रिय लगती है।

उठने-बैठने में भी शिष्टाचार का पूरा ध्यान रखना चाहिये। अपने से बड़ों को सिरहाना देना और पायताने की ओर स्वयं बैठने से अपनी श्रद्धा भक्ति व्यक्त होती है, इसी तरह कभी किसी की तरफ पीठ करके भी बैठना अच्छा नहीं होता। बात करते समय नत मस्तक रहना ही भारतीय परम्परा है।

साथ चलना पड़े तो अपने गुरुजनों, माता-पिता, के बराबर चलना अच्छा नहीं लगता। उनसे एक कदम पीछे ही चलना चाहिये। उनके हाथ में कोई सामान हो तो उसे स्वयं ले लेना चाहिये। सवारी पर बैठना हो या दरवाजे में प्रवेश करना हो तो भी उन्हें आगे चलने देना चाहिये। हाँ, यदि द्वार खुला न हो तो उसे आगे बढ़कर खोल दें और पीछे हट जाये। गुरुजनों के साथ रहते हुये उनके सभी छोटे-मोटे कार्य हम स्वयं करें तो उनका आशीर्वाद मिलता है और अपने कोमल भाव भी जागृत रहते हैं।

घर में आये हुये मेहमान, मित्र या किसी सम्भ्रान्त पुरुष का स्वागत बैठे-बैठे ही न करें। आप उठकर आगे जायें उनका स्वागत करते हुये उनके पास जो सामान हो उसे स्वयं उठाकर घर के भीतर तक ले आयें। विदा करते समय भी यह ध्यान रहे कि आप उन्हें बैठे-बैठे ही विदा न कर दें। आप उनके साथ, दरवाजे तक, या सवारी में बैठने तक, बने रहे। विदा होते समय भी नम्र शब्दों में उनकी कुशलता की कामना करें, और प्रणाम करते हुये वापस लौटें। माननीय अतिथि के साथ यदि कोई अन्य व्यक्ति हों तो उनकी भी उपेक्षा न हो। उन्हें भी अतिथि की तरह ही सम्मान देना चाहिये। यह जरूरी नहीं है कि वे आपके परिचित हों तभी आप उन्हें सम्मान दें। साथ में आया हुआ व्यक्ति भी आपका अतिथि है और उसे भी योग्य सत्कार मिलना ही चाहिये।

आगन्तुक व्यक्तियों को कई बार किसी स्थान की, विशेष परिस्थितियों या रीति-रिवाज की जानकारी न होने से वे कभी उल्टा कार्य भी कर सकते हैं या परिस्थितिवश उनसे किसी बात में भूल भी हो सकती है। उस समय आपका हँसना शोभा नहीं देगा। लोग आपको अभद्र समझेंगे। भूल का सुधार कराना ही हो तो विनीत शब्दों में इस तरह कहें जिससे अतिथि को किसी प्रकार की पीड़ा न पहुँचे। अतिथि अपने यहाँ देवता समझा जाता है उसका भूलकर भी अपमान न करना चाहिये।

यात्रा के समय भी शिष्टाचार की सामान्य विधि अपनाये रहने से बड़ी सुविधा मिलती है। रेलगाड़ियों में सीटों को कई लोग गलत ढंग से कब्जे में कर लेते हैं। उनसे भी सीधे शब्दों में ही जगह छोड़ने की प्रार्थना करें। दर्प प्रदर्शित करने से लोग प्रतिवाद करने लगते हैं और इससे कलह का वातावरण भी बन जाता है। इससे आप की हानि भी संभव है। किसी व्यक्ति का परिचय प्राप्त करना हो या कुछ पूछना हो तो इस तरह पूछिए जिससे आपकी सज्जनता एवं शिष्टता टपकती हो। इस तरह शिष्टाचार करने पर आस-पास के व्यक्तियों पर आपकी सज्जनता का असर जरूर पड़ेगा। और तब आप अपनी बात अधिक सुन्दर ढंग से स्पष्ट कर सकेंगे। इस तरह प्रभाव भी यथेष्ट पड़ेगा।

घर या बाहर जहाँ कहीं भी आप जायें यह याद रखें कि आपकी वाणी, व्यवहार और क्रिया से किसी प्रकार का अनुचित कर्म न हो जाय। किसी स्थान को मैला न करें, बीड़ी सिगरेट न पियें, फलों आदि के छिलके आम इस्तेमाल की जगहों में, स्टेशन, सड़क या सार्वजनिक स्थानों में न फेंकें। इन स्थानों के प्रति भी आपके कर्तव्य ऐसे ही हैं जैसे अपने घर के साथ। स्वच्छता का भाव सब जगह रखें। यदि दूसरे लोग ऐसी अशिष्टता कर रहे हों तो आपका यह कर्तव्य है कि उन्हें “कृपया ऐसा न कीजिये” यों कहकर वैसा न करने की सलाह दें। अधिकारपूर्वक किसी को धमकाना अच्छा नहीं होता। जिस कार्य से किसी का जी दुःखी हो, कृपया उसे न किया कीजिये।

सामान्य शिष्टाचार की यह छोटी-छोटी बातें भी बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं। अच्छाई का एक-एक कण मिल कर महान व्यक्तित्व बनता है और बुराई की छोटी सी आदत भी क्लेश, कलह, कटुता और पतन का कारण बन जाती है। दैनिक व्यवहार में विनीत होने की कला का अभ्यास प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है पर यह सब कुछ हो भावनापूर्वक ही। दिखावे के लिये किये गये शिष्टाचार से किसी भले परिणाम की आशा नहीं करनी चाहिये।

दूसरों से सम्मान और सद्भावनायें प्राप्त करने की सभी इच्छा करते हैं। यह कोई मुश्किल बात भी नहीं है पर इतना हमें जरूर जान लेना चाहिये कि हम जैसा भी व्यवहार दूसरों के साथ करते हैं उसी की प्रतिक्रिया ही हमारे साथ होती है। यदि हम चाहते हैं कि लोग हमारे साथ सज्जनोचित व्यवहार करें तो हमें शिष्टाचार का प्रयोग करना पड़ेगा। शिष्टाचार ही सभ्यता की जननी है इसी से हम सभ्य कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकेंगे।

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