Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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सर्वोत्तम विभूति--विद्वता
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शास्त्रकार ने सन्देश दिया है—
गतेऽपि वयसि ग्राह्या विद्या सर्वात्मना बुधैः।
यद्यपि स्यान्न फलदा, सुलभा सान्यजन्मनि॥
“हे मनुष्यों! उम्र बीत जाने पर भी यदि विद्या प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो तो तुम निश्चय ही बुद्धिमान हो। विद्या इस जीवन में फलवती न हुई तो भी दूसरे जन्मों में वह आपके लिये सुलभ बन जायगी।” मनुष्य का सबसे बड़ा विवेक, गौरव और उसकी विभूति उसकी विद्वता है, इससे बढ़कर और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है।
विद्या शब्द ज्ञान की सार्थकता का पर्याय है। जो ज्ञान मनुष्य को लौकिक बन्धनों से मुक्त करे और उसे जीवात्मा की वस्तु स्थिति की बूझ कराये वस्तुतः वही विद्या सार्थक है। दुःख क्लेश और अभाव हमें तब तक पीड़ित करते हैं जब तक आत्म-स्वरूप का हमें ज्ञान नहीं होता। विद्या के प्रकाश में सब कुछ ऐसे झलकने लगता है जैसे सूर्य के प्रकाश से सारा संसार जगमग हो उठता है। मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी इसलिए धन नहीं, सत्ता और रूप सौंदर्य भी नहीं है। विद्या, बुद्धि, सद्ज्ञान, सद्बुद्धि और विवेक के मापदण्ड से ही व्यक्तित्व की श्रेष्ठता की परख होती है। बुद्धिमान ही सच्चे धनी होते हैं योग्यता, विद्वता और प्रतिभा ही बड़प्पन की कसौटी है।
महान् पुरुष सदैव ऐसे ही अधिकारी पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करने की अभिलाषा करते हैं जिन्हें विद्या के माध्यम से ही प्रवीणता प्राप्त हुई हो। महाराज धृतराष्ट्र को कौरवों तथा पाँडवों को शस्त्र-प्रशिक्षण के लिए किसी सुयोग्य आचार्य की आवश्यकता थी किन्तु कोई विद्वान् राजगुरु उन्हें दिखाई न दिया। एक दिन द्रोणाचार्य भी उनकी सभा में आये धनुर्विद्या में प्रवीण आचार्य का पाँडित्य देखकर महाराज मुग्ध हो गये और उन्होंने समझ लिया कि इनके समीप रहकर बालकों के चरित्र का विकास हो सकेगा। अकेले शस्त्र प्रशिक्षण की बात रही होती तो वह कार्य कोई भी कर सकता था। नैतिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए विद्वता भी तो आपेक्षित है।
प्राचीनकाल में अध्यापन कार्य इसीलिये सबसे कठिन कार्य माना जाता था और कोई विद्वान् पुरुष ही शिक्षक बनने का साहस कर सकते थे। ऐसे व्यक्तियों को शिक्षण का कार्य सौंपा जाता था जो अक्षर ज्ञान के साथ मनुष्य की प्रतिभा विकसित करने के लिये सामर्थ्यवान् हो सकते। वह वस्तु विद्या ही है जो मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती और ऊँचे उठाती है। गिरे हुए समाज के उद्धार के लिये भी विद्या एक अनिवार्य आवश्यकता है।
आधुनिक विद्या का स्वरूप कुछ बदल गया है वह पूर्णतया अशक्त हो चुकी है। लोगों का चरित्र-बल, कर्मशक्ति , आशा, विश्वास, उत्साह, पौरुष, संयम और सात्विकता जागृत करने की शक्ति उसमें नहीं रही। जिस विद्या में कर्तव्य-शक्ति को प्रेरणा न मिलती हो, स्वतन्त्र रूप से विचार करने की बुद्धि न आती हो, परिस्थितियों से टकराने की सामर्थ्य जो न दे सके वह विद्या निस्तेज है, निष्प्राण है। आज का युग कुछ ऐसा ही हो रहा है। विद्यार्थी डिग्रियाँ प्राप्त करके निकलते हैं तो उनमें छल-कपट धूर्तता, दुश्चरित्रता, फैशन परस्ती, विलासिता और द्वेष, अहंकार के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। स्वतंत्र चिन्तन का उनमें बिलकुल अभाव होता है। विचारों की पराधीनता का नाम अविद्या है। जो मनुष्य को स्वाधीन बनाये सर्वोपरि साहसी बनाये, विद्या कहलाने का गौरव उसे ही मिल सकता है।
अध्यात्म रामायण में बड़े सुन्दर शब्दों में उल्लेख मिलता है—
देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता।
नाहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विद्येति भन्यते॥
अर्थात्-”मैं देह हूँ” इस बुद्धि का नाम अविद्या है। मैं देह नहीं चेतन आत्मा हूँ इसका ज्ञान प्राप्त करना ही सच्ची विद्या है।
देह, उसकी विशेषतायें और उस के सुखों के प्रति जब मनुष्य की चेतना एकमुखी हो जाती है तो उसकी प्रतिभा का विकास रुक जाता है। विकास का अर्थ इहलौकिक सम्पदाओं की विपुलता प्राप्त कर लेना नहीं है, वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक जागृति का लक्षण है। मनुष्य का स्वत्व है उसकी आत्मा और उसकी विशेषतायें-सद्गुण, सद्प्रवृत्ति और सदाचार। आत्मा की इन विशेषताओं को उपलब्ध करना ही इस जन्म का उद्देश्य है और जो इस दिशा में हमारी चेतना को अग्रसर करे वही सच्ची विद्या है।
यह ज्ञान वैदिक साहित्य में कूट-कूट कर भरा हैं किंतु बाह्य शक्तियों के संघात के कारण परिस्थितियाँ ऐसी बन गई है कि यह वांग्मय आधुनिक शिक्षा के मलबे में दबकर रह गया है। इससे जीवन का आध्यात्मिक क्षेत्र बिलकुल उपेक्षित बनकर रह रहा है। सर्वत्र दुःख क्लेश और अशाँति के लिए इस युग का भौतिकतावादी दृष्टिकोण ही अधिक दोषी है। एक कठिनाई यह है कि इस ज्ञान को व्यवहारिक रूप में प्रस्तुत करने के प्रयत्न भी बिलकुल निर्बल और कमजोर हो गये हैं, जहाँ-तहाँ कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ चलती भी हैं किन्तु व्यक्तित्व के अभाव के कारण वह प्रभाव उत्पन्न नहीं हो पाता जो जन-जीवन की दिशा बदल सके। भारतीय संस्कृति का पतन भी व्यक्तित्व के अभाव में ही हुआ है। देवालयों, शिक्षालयों, बिहार श्रामण और संघों से लोगों की आस्था उठ जाने का कारण यही था कि उनमें व्यक्तित्व न रहा। देव-मन्दिर जड़ थे भला वे, साँस्कृतिक शक्तियों के संघर्ष का जवाब कैसे दे सकते थे। इससे धर्म के प्रति लोगों की आस्था उठ गई और सर्वत्र अविद्या का ही अंधकार छाकर रह गया।
वह विद्या जो मनुष्य को सही दिशा सही मार्ग और सच्चा प्रकाश दिखाती है उसे अध्यात्म कहते हैं। इस अध्यात्म को जागृत करने का काम अपने आपसे शुरू करना होगा इसके लिये विद्वता प्राप्त करना हमारी पहली आवश्यकता है। दुनियावी शिक्षा के रंग-ढंग तो बहुत देख चुके इनसे कोई समस्या हल न हो सकी। निष्कर्ष निकलता भी कैसे? आत्म-ज्ञान के बिना परिस्थितियाँ बदल भी तो नहीं सकती। विवेक जगाने वाली विद्या न रही तो पतित होना स्वाभाविक ही था। इस पतन से जी उकता उठा है, प्रत्येक साँस के साथ जो गन्दगी भीतर जा रही है उसके कारण अब जनजीवन बुरी तरह बेचैन है, छटपटा रहा है। इस घुटन को दूर करने का एक ही उपाय है और वह है आध्यात्म विद्या की प्रवीणता। साधना से और व्यवहार से जब तक जीवन की दिशा सात्विक नहीं होती, गुण, कर्म और स्वभाव में सद्तत्वों का समावेश नहीं होता, जड़ता तब तक दूर हो नहीं सकती। आत्म-विद्या के देवालय में प्रवेश प्राप्त किये बिना न तो शाँति मिल सकती है न संतोष। विद्या सुखी जीवन की प्रमुख आवश्यकता है इसे यों ही ठुकराया नहीं जा सकता।
जिस विद्वता से मनुष्य स्वयं ही अपना योग्य साथी बनता है उसे प्राप्त करने के लिये अधिक अनुभव सहनशीलता और अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। अनुभव का उपयोग जीवन को शुद्ध बनाने के लिये है, कदम-कदम पर जो कठिनाइयाँ मनुष्य का रास्ता रोकती हैं उनसे बचते रहने का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुभवी होना है। अनुभव विवेक का बड़ा भाई है, सत्य-असत्य की शिक्षा उसी से मिलती है इसलिये प्रत्येक गतिविधि को एक पाठ समझकर उसकी विलक्षणताओं का अध्ययन सूक्ष्मता से करते रहना चाहिये। असंगत वस्तुओं का ज्ञान इसी तरह होगा।
विद्या आत्मा की प्यास है। इसकी पूर्णाहुति आत्म-ज्ञान से ही होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि अपने जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए विद्या प्रमुख आवश्यकता है। कठोर प्रयत्नों से भी इसे प्राप्त किया जाना चाहिए। जो इसकी ओर ध्यान नहीं देता और अपने समय को व्यर्थ ही नष्ट किया करता है वह सदा मनुष्य-जन्म के फल से वंचित रहता है। विद्या मनुष्य की मलिनताओं को मिटा कर उसे कान्तिवान् बनाती है। आग में तपाये हुये सोने की शुद्धता में कोई संदेह नहीं रहता। आत्मज्ञान का लक्षण विद्वता है, वह मनुष्य की सर्वोत्तम विभूति है, उसे प्राप्त करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। विद्या से विनम्रता आती है, विनम्रता से योग्यता बढ़ती है, योग्यता से धन और धन से सुख मिलता है यह आप्त पुरुषों का कथन है। हमें भी इस सुख से वंचित न रहना चाहिए।