Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
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यह संसार दो रूपों में विभक्त है, दृश्य और अदृश्य। दृश्य स्थूल नेत्रों से दिखाई देने वाला सम्पूर्ण भौतिक जगत है। अदृश्य तत्व परमात्मा है जो प्राण-रूप में सर्वत्र व्याप्त होकर विविध खेल रचना करता है। परमात्मा सब कालों में एक-सी स्थिति में रहता है, किन्तु प्रकृति परिवर्तनशील है, उसका स्वरूप बदलता रहता है इसलिए उसे मिथ्या कहा है। सुखोपभोग की स्थूल-वासना और आसक्ति की दृष्टि से उसे मिथ्या, असार, या मनोमात्र कहना अनुचित नहीं है। इस संसार के विषयों में ही मनुष्य जब भटक जाता है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि यह संसार भ्रम है, धोखा है, मृग-मरीचिका है। इससे अलिप्त रहने में ही कल्याण है।
शास्त्रकार ने भी कहा है—
लोक एव विषयानुरंजनं दुःखगर्भमपि मन्यते सुखम्।
आमिषं बडिशगर्भमप्यहो मोहतो ग्रसति यद्वदण्डजः॥
अर्थात्— मछली जिस प्रकार माँस को—देखती है, उसके नीचे छिपे हुये काँटे को नहीं। वैसे ही संसार विषयों के आकर्षण को ही देखता है। विषयों के परिणाम स्वरूप अवश्यम्भावी दुःख की ओर वह दृष्टिपात भी नहीं करता। जगत का मिथ्यात्व इसी दृष्टि से है क्योंकि यहाँ मनुष्य सुख की मृगतृष्णा में भटक जाता है और पाप करने लगता है, जिससे वह अपने जीवन लक्ष्य से पतित होकर जन्म-जन्मान्तरों तक यहाँ के दुःख और कष्ट के भोग, भोगता रहता है।
श्री गौडपादाचार्य ने लिखा है—
आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा।
वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिता॥
स्वप्नमापे यथा दृष्टे गर्न्धव नगरं यथा।
तथा विश्व मिदं दृष्टं वेदान्तेषु विचक्षणैः॥
अर्थात्— जो वस्तु उत्पत्ति में पूर्व न रही हो, नाश हो जाने पर भी न रहती हो, किन्तु बीच में सत्य प्रतीत होती हो, उसको सत्य नहीं मानना चाहिए जिस तरह स्वप्न में गंधर्व नगरी के से सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं, किन्तु जाग जाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता, संसार भी उसी तरह दृश्य मात्र है। आज इसे जिस रूप में देखते हैं मृत्यु के अनन्तर वह किसी दूसरे ही रूप में दिखाई देगा।
मनुष्य का ज्ञान जितना बढ़ता जाता है उतना वह अपने शरीर को अधिक महत्व देता चला जाता है, इसी को नहलाने-धुलाने खिलाने-पिलाने सजाने—आदि में ही सारा जीवन बर्बाद कर देता है। उसको प्रतीति होती है कि वह शरीर नहीं हैं, किन्तु चूंकि जीवन धारण के पूर्व उसकी स्थिति शरीर नहीं थी मृत्यु के अनन्तर भी शरीर शेष नहीं रहता केवल जीवन के क्षणों में ही वह सत्य जैसा प्रतीत होता है, इसलिये धर्माचार्यों ने बार-बार समझाया है कि यह संसार और यहाँ की वस्तुयें छल हैं, प्रपंच हैं। इनमें धोखा नहीं खाना चाहिए। साधनों को निस्सार समझ कर उनके पीछे भागने की अपेक्षा अपने मानव जीवन को सार्थक बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।
सती मदालसा ने अपने बच्चों को बड़ा मार्मिक उपदेश दिया है—
शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरञ्जनोऽसि
संसार माया परिवर्जितोऽसि।
संसार स्वप्नं त्याग मोह निद्राँ
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम्॥
“हे पुत्र, तू मेरे वचन को सुन—तुम स्वरूप से शुद्ध, बुद्ध मुक्त हो। इस मायामय संसार के साथ गठबन्धन से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यह दिखाई देने वाला संसार स्वप्न मात्र है इसलिए मोह रूपी निद्रा का परित्याग कर अपने शाश्वत स्वरूप को पहचानने का प्रयत्न करो।” वास्तव में यह उपदेश हम में से प्रत्येक के लिए सारपूर्ण है हम जब तक अपने आपको नहीं पहचानते तब तक इस मनुष्य शरीर का कुछ उपयोग नहीं है। इसलिए उचित है कि विषय विकारों का परित्याग कर पारलौकिक जीवन की शोध की ओर उन्मुख हों। परिवर्तन हमारे देखने में न जाते हों ऐसा तो नहीं है किन्तु दुःख है कि उन पर विचार नहीं किया जाता। शरीर की तीन अवस्थायें,जन्म, वृद्ध, और मरण के अनेकानेक दृश्य प्रत्येक को देखने को मिलते हैं। यह भी सभी जानते हैं कि मृत्यु के मुख से कोई बचता नहीं फिर भी पारलौकिक जीवन की ओर हम में से बहुत थोड़े ही उन्मुख होते हैं। अधिकाँश लोग काम, क्रोध, मोह और शोक के पीछे अन्त तक भटकते रहते हैं परिणाम स्वरूप जीवात्मा को मृत्यु के अनन्तर यहीं भटकते रहना पड़ता है। उससे बड़ी अशान्ति व असन्तोष होता है। पर तब तक मानव जीवन का अलभ्य अवसर हाथ से निकल गया होता है। अतः केवल पश्चाताप ही शेष रहता है।
इस संसार की हवा में एक विषैला नशा है। सौंदर्य की चमक-दमक में कुछ अजीब-सा आकर्षण है, इससे मनुष्य धोखा खा जाता है। अन्धेरे में पड़ी हुई रस्सी के जिस तरह से सर्प होने का भ्रम होता है उसी तरह यहाँ के प्रत्येक पदार्थ में एक प्रकार का मोहक भ्रम भरा पड़ा है, इसी से लोग उन्हीं में भटकते रहते हैं। आकर्षण रूप समाप्त होता है, दूसरा नया, उससे भी आकर्षण रूप सामने आ जाता है। न पहले से तृप्ति होती है न दूसरे से तृष्णा ही समाप्त होती है। बावला इन्सान इसी रूप-छल की भूल-भुलैया में गोते मारता रहता है। उसे अपने मूल-रूप की ओर ध्यान देने का अवसर भी नहीं मिल पाता। यह स्थिति बड़ी ही दुःखद है।
वेदान्त दर्शन का मत है कि आँख से दिखाई देने वाले दृश्य, नाक से सूँघे जाने वाली गन्ध, जीभ से चखा जाने वाला स्वाद-यह सभी मिथ्या है, परिवर्तनशील हैं। फूल देखने में बड़ा सुन्दर लगता है। किन्तु मुरझा जाने पर वही कूड़ा-करकट सा लगता है। तब उसकी सुगन्ध भी लुप्त हो जाती है। इसी तरह वृक्ष-वनस्पति, नदी पहाड़, पशु-पक्षी सभी बदलते रहते हैं, एक रूप में स्थिर रहने वाली कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती। सूर्य चन्द्रमाओं तक की विभिन्न कलायें अस्थिरता और चंचलता ही हैं। जीवात्मा जबतक अपने परम-पद को नहीं प्राप्त कर लेता तब तक उसे स्थायी प्रसन्नता, शाश्वत सुख और चिरस्थायी शान्ति नहीं मिलती। इसलिए प्रतिभासिक सत्ता को साधन मात्र समझ कर अपने पारलौकिक हित-चिन्तन में लगे रहना चाहिए।
जहाँ माया मोह के विचार सहज न छूट रहे हों वहाँ यह सोचना चाहिये कि इस मकान, जमीन, बाग-बगीचे आदि पर अब तक कितने ‘दाखिल- खारिज’ हो चुके हैं पर इन्हें कोई स्थायी तौर पर प्राप्त नहीं कर सका तो हमें ही यह वस्तुयें कब तक साथ दे सकेंगी। साँसारिक खेल-मात्र में इन सभी वस्तुओं की उपादेयता है इन्हें इसी रूप में ही देखना भी चाहिये और अपने चरम-कल्याण में तत्परता पूर्वक स्थिर रहना चाहिये।
इस संसार की यदि कुछ सार्थकता है तो वह परमात्मा का विराट रूप होने से है। शास्त्रकार का कथन है—’सर्वं खल्विदं ब्रह्म।’ इदं सर्व खलु ब्रह्म-यह जो कुछ भी दिखाई देता है वह सारा जगत ब्रह्म रूप है। परमात्मा हमारी सेवा और पुण्यार्जन का आधार है अतः इस संसार को भी इसी रूप में ही देखना चाहिये। इसे परमात्मा का स्वरूप समझ कर सत्कर्मों द्वारा यदि कुछ प्रेरणा और प्रकाश ग्रहण कर सकें तो यह संसार ही हमारी जीवन मुक्ति में सहायक हो सकता है।
“संसार माया है” यह कहने का तात्पर्य मनुष्य को उसके जीवन लक्ष्य की याद दिलाते रहना है ऐसा न हो कि प्राणी साँसारिक भोग-वासनाओं में ही भटकता रहे और पारलौकिक सुख को भूल जाय, इस दृष्टि से इस संसार को स्वप्नवत् बताना उचित ही है।
सृष्टि का दूसरा स्वरूप ईश्वर-मय है। वह हमारे कर्त्तव्य-पालन के लिये है। माया-माया कहकर यदि कर्मों का परित्याग कर दिया जाय तो सारी सृष्टि व्यवस्था में गड़बड़ी उत्पन्न हो सकती है। जीवात्मा जिन सुखों के भोग के लिये यहाँ आया कर्त्तव्य-पालन के अभाव में वह भी तो पूरे नहीं होते अतः इस संसार को परमात्मा का ही प्रतिरूप समझकर निष्काम भावना से अपने कर्त्तव्य-कर्मों का पालन करते रहना चाहिये। इस तरह मनुष्य इह-लोक के सुख और पारलौकिक शान्ति सुगमता से उपलब्ध कर सकता है।