Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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संयमी ही आत्मजयी होते हैं।
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परमाणु-शक्ति को धारण करने वाला बम, कहते हैं कि इतनी शक्ति शाली धातु का बना होता है कि उस पर बाहरी आघात का कोई प्रभाव नहीं होता इतनी कड़ी और मजबूत धातु का आवरण उस पर न चढ़ाया जाय तो उस बम के किसी भी क्षण विस्फोट हो जाने का खतरा बना रहेगा। मानसिक शक्ति, के संगठन से आत्मा की चैतन्य शक्ति भी बढ़ती है। इस शक्ति को धारण करने के लिये भी पुष्टिमान शरीर की आवश्यकता होती है अतः आत्म-विजय के साधक को शक्तियों पर नियन्त्रण करने की विद्या आनी चाहिये। एक ओर शक्ति को श्रम, साधना और एकाग्रता से संचय करें और उसे इन्द्रिय-छिद्रों से निर्बाध बहजाने दे तो शक्ति शाली बन सकने का अनुमान गलत ही सिद्ध होगा। प्रयत्न और परिश्रम का फल संयम से मिलता है । जो अपने आवेगों, भावों और इच्छाओं को वश में रखता है, आत्म-विजय की कीर्ति का वही सच्चा अधिकारी है।
आवेगों को निरन्तर काबू में रखने की सहन शक्ति का ही पर्याय है संयम। आवेग और इच्छायें मनमें पैदा होती हैं, फिर उनका प्रभाव और प्रतिक्रिया इन्द्रियों पर पड़ती है। इसलिए विपरीत परिस्थितियों से निरन्तर संघर्ष करने की मानसिक दक्षता होनी चाहिये। अवाँछित बातों का प्रभाव मस्तिष्क को उत्तेजित न करे यही संयम की कसौटी है।
यूनान के विख्यात दार्शनिक ‘पैरी क्लीज’ के पास एक दिन कोई क्रोधी व्यक्ति आया। वह पैरीक्लीज से किसी बात पर नाराज हो गया और वहीं खड़ा होकर गालियाँ बकने लगा। पर पैरीक्लीज ने उसका जरा भी प्रतिवाद न किया। क्रोधी व्यक्ति शाम तक गालियाँ देता रहा। अँधेरा हो गया तो घर की ओर चल पड़ा पैरीक्लीज ने अपने नौकर को लालटेन लेकर उसे घर तक पहुँचा आने के लिये भेज दिया। इस आँतरिक सहानुभूति से उस व्यक्ति का क्रोध पानी-पानी हो गया ।
सामान्य श्रेणी का व्यक्ति होता तो वह भी लड़ बैठता और हिंसा भड़क उठती । दोनों पक्षों की हानि होती, शक्ति खर्च होती । आत्म-संयम, मनुष्य को अनेक झगड़ों से बचा कर शक्ति का अपव्यय रोक देता है।
मानसिक संयम, शारीरिक संयम की बुनियाद है। मन इच्छानुवर्ती हो जाता है और उसकी दिशा संयम की ओर मुड़ जाती है तो शारीरिक शक्तियों का असाधारण विकास होना संभव है। यौगिक साधनाओं के लिये तो संयम साक्षात् कामधेनु है। बड़े-बड़े चमत्कार दिखाने वाले पहलवान राममूर्ति संयम के बल से बड़ी-बड़ी गाड़ी मोटरों को रोक लेते थे। हाथी को छाती पर चढ़ा लेना उनके लिये सहज कार्य था। संयम ही वस्तुतः साधना की पृष्ठ भूमि है इसके बिना कोई विशेष शक्ति पाना प्रायः असम्भव ही है।
अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेना मनुष्य की सर्वोत्कृष्ट साधना है। इन्द्रियों की लालसायें, क्रोध, मोह, पापकर्म आदि से जो लोग घिरे रहते हैं उनके शरीर और मन का पतन निश्चित है। इस कारण उन्हें व्याधियाँ सताती रहें तो यह कुछ अनहोनी बात न कही जायेगी। हीनता, दुर्बलता और मानसिक दुर्दशा का कारण ये वासनायें ही हैं उनसे मुक्त हुये बिना आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। मनमें जब तक क्रोध है, तब तक विष की क्या आवश्यकता? ईर्ष्या अग्नि के समान जलाती रहती है। इन्हीं में पड़े रहने से मनुष्य जीवन का कोई भी लक्ष्य पूर्ण नहीं होता। कठोपनिषद् में इस सम्बन्ध में बड़ी मार्मिक उक्ति दी है। लिखा है :—
विज्ञान सारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान् नरः।
सोऽध्वनः पारमाप्नोतितद्विष्णों: परमं पदम्॥
[1। 3। 9 ]
अर्थात् जो मनुष्य विवेकी सारथि के समान जागृत बुद्धि के द्वारा मन की लगाम को वश में रखता है वह इस संसार से पार होकर परमेश्वर का परम पद प्राप्त करता है।”
असंयम का प्रभाव मनुष्य जीवन पर सदैव ही दूषित होता है। गुस्से में या अपमान जनक बात सुनने के बाद उस पर तुरन्त अपना मन्तव्य प्रकट करना या अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना भला नहीं होता। कामुकता पर भी इसी तरह सद्यः निर्णय पतनकारी होता है। आप पर उस समय जो आरोप लगाये गए हैं, अथवा किसी कामुक विचार ने यदि आक्रमण किया है तो उसी वक्त उसे मत मान लीजिये। थोड़ी देर रुककर, एकान्त में जाकर उस पर विचार कर लीजिये। हित-अहित का यथोचित विचार किए बिना प्रायः हानि ही उठानी पड़ती है। आक्रमण परिस्थिति को कुछ देर तक के लिए टाल देने से तुरन्त के आवेग से आप बच जाते हैं और निर्णय के लिये समय मिल जाता है। विपक्षी का व्यवहार भी तब तक शाँत हो जाता है अपने मानसिक आवेशों को भी इसी तरह भुलाया बहकाया जा सकता है। भावुकता से दूर रहकर विषय को हर दृष्टि से परख लेने से समस्या का एक अच्छा हल निकल आता है और व्यर्थ के शक्ति -व्यय से बच जाते हैं।
मनुष्य की इन्द्रियाँ रात-दिन उसे अपनी ओर खींचती रहती हैं। जीभ चाहती है कि तरह-तरह के मिठाई-पकवान और स्वादिष्ट व्यंजन खाने को मिलें। सुन्दर दृश्य देखने के लिये आंखें बार-बार उत्सुक रहती हैं, कानों को हमेशा मधुर संगीत की खोज रहती है। इन्द्रियाँ और मन के विषय असीम हैं। इनसे मनुष्य की कभी तृप्ति नहीं होती है, वरन् जीवन दिशा पूर्णतया साँसारिक हो जाती है और आत्म-ज्ञान की महत्वपूर्ण आवश्यकता बीच में ही छूट जाती है। अनन्त सुख-सामर्थ्य सौंदर्य और माधुर्य का भण्डार हमारी आत्मा है। वह नित्य शाश्वत, अव्यय और अविनाशी है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, राग द्वेष, ईर्ष्या आदि हीन वृत्तियों के आधीन होकर आत्म-विजय की मूलभूत आकाँक्षा को मनुष्य ठुकरा देता है। कदाचित यह ज्ञान मनुष्य को मिल भी जाय तो भी वह इन प्रलोभनों से जल्दी ही नहीं छूट पाता। संयमी व्यक्ति ही आत्मोन्नति की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
मान लीजिये थोड़ी देर के लिये आप इन्द्रियों का सुख प्राप्त कर ही लेते हैं तो क्या शक्ति के अपव्यय से निराशा, उत्तेजना और असंतोष पैदा नहीं होता।? इन्द्रियों के सुख कभी मनुष्य को तृप्त नहीं कर पायें हैं इसलिये उधर से मुख मोड़ने में ही मनुष्य का परम कल्याण है। वासनाओं की तृप्ति के लिये जिस तरह अभ्यास पड़ जाता है उसी तरह आत्म-संयम की प्रवृत्ति को प्रखर बनाया जा सकता है। अपने उद्यम, पुरुषार्थ, साहस, संलग्नता, विवेक आदि से उच्च आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं किन्तु इन्द्रिय लोलुपता को सर्व प्रथम दमन करना होगा। इसके बिना कोई तपश्चर्या चाहे वह अध्यात्मिक हो अथवा साँसारिक उन्नति सम्बन्धी कभी भी फलदायक नहीं होगी। संयम-ही सफलता का मूल-मन्त्र है।
प्रायः लोगों की शिकायत रहती है कि क्या करें , हम से तो संयम होता ही नहीं। अधिकाँश व्यक्तियों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि लोगों की संकल्प शक्ति इतनी कमजोर होती है कि वे किसी उच्च विचार पर देर तक स्थिर नहीं रह पाते। एफ. डब्ल्यू, रावर्टसन ने लिखा है “चरित्र बल दो शक्तियों पर अवलम्बित है, दृढ़ संकल्प और आत्म-दमन। सशक्त भावों के साथ-साथ उन पर दृढ़ अधिकार होना भी सच्चरित्रता के आवश्यक अंग हैं।”
आत्मा हमें सुपथ पर ले जाती है पर उसकी बात अनसुनी कर देने की मनुष्य में बहुत बड़ी कमजोरी है। उसकी तलाश तात्कालिक सुखों की ही होती है। दूरगामी परिणामों के प्रति स्थिरता न होने के कारण ही जीवन सारा विशृंखलित होता है। आत्म-संयम की वृत्ति देखने में कठोर रूखी, नीरस भले ही प्रतीत हो पर कालाँतर में जब शक्ति का प्रवाह हमारे अन्दर फूट पड़ता है तो सारा जीवन उल्लास और प्रसन्नता से परिपूर्ण हो जाता है।
किसी भी प्रकार हो, हमें जीवन लक्ष्य में उच्च-भावना से मन को एकाग्र करके मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिये अनेकों मार्ग धर्म-प्रणेताओं ने निर्धारित किये हैं। अपनी शक्ति, योग्यता के अनुसार कोई भी रास्ता चुन सकते हैं। किन्तु उस पर पूर्ण एकाग्रता से चलना पड़ेगा। सारी शक्तियों को केन्द्रित- करके जब शर-सन्धान किया जाता है तभी लक्ष्यपूर्ति होनी है। शक्ति-संचय का मार्ग है संयम। संयमित जीवन में ही सफलता के सारे रहस्य खुलते हैं। इसी से आत्म-जय की आकाँक्षा पूर्ण होती है।