• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • मानव जीवन को सार्थक बनायें
    • उसकी प्रार्थना में बड़ा बल है
    • शास्त्र-चर्चा
    • सुख के आधार वे स्वयं है।
    • आत्म-भावना से आत्म-कल्याण
    • आत्म विकास की विचार-साधना
    • लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
    • उस मोह को धन्यवाद दीजिये
    • संयमी ही आत्मजयी होते हैं।
    • अशान्ति से चिर शान्ति की ओर
    • समता में सब की व्यवस्था है।
    • मनुष्य-जीवन का अमूल्य यात्रा-पथ
    • मैत्री भावना का विकास करें
    • आत्मघात न करें इसी में आपका भला है।
    • सर्वोत्तम विभूति--विद्वता
    • श्रम ही नहीं विश्राम भी
    • गृहस्थ की समुन्नति के लिये समय का सदुपयोग
    • सत्साहित्य से शक्ति और समुन्नति
    • बच्चों को व्यवहारकुशल बनाइये
    • मौत से न डरिये, वह तो आपकी मित्र है।
    • एकाग्रता व संलग्नता से ही लक्ष्य सिद्ध होगी
    • आश्विन का आगामी शिक्षण शिविर
    • विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन
    • दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन
    • हम में से हर एक को यह करना ही चाहिये
    • छह प्रान्तों में युग-निर्माण सम्मेलनों की शृंखला
    • VigyapanSuchana
    • गुरु पूर्णिमा की श्रद्धाञ्जलि
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • मानव जीवन को सार्थक बनायें
    • उसकी प्रार्थना में बड़ा बल है
    • शास्त्र-चर्चा
    • सुख के आधार वे स्वयं है।
    • आत्म-भावना से आत्म-कल्याण
    • आत्म विकास की विचार-साधना
    • लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
    • उस मोह को धन्यवाद दीजिये
    • संयमी ही आत्मजयी होते हैं।
    • अशान्ति से चिर शान्ति की ओर
    • समता में सब की व्यवस्था है।
    • मनुष्य-जीवन का अमूल्य यात्रा-पथ
    • मैत्री भावना का विकास करें
    • आत्मघात न करें इसी में आपका भला है।
    • सर्वोत्तम विभूति--विद्वता
    • श्रम ही नहीं विश्राम भी
    • गृहस्थ की समुन्नति के लिये समय का सदुपयोग
    • सत्साहित्य से शक्ति और समुन्नति
    • बच्चों को व्यवहारकुशल बनाइये
    • मौत से न डरिये, वह तो आपकी मित्र है।
    • एकाग्रता व संलग्नता से ही लक्ष्य सिद्ध होगी
    • आश्विन का आगामी शिक्षण शिविर
    • विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन
    • दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन
    • हम में से हर एक को यह करना ही चाहिये
    • छह प्रान्तों में युग-निर्माण सम्मेलनों की शृंखला
    • VigyapanSuchana
    • गुरु पूर्णिमा की श्रद्धाञ्जलि
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1965 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


मौत से न डरिये, वह तो आपकी मित्र है।

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 19 21 Last
मृत्यु के बारे में सामान्य व्यक्तियों की कल्पनायें बड़ी भयावह होती हैं। सारा भय संसार में मौत का ही है। अँधेरे में पाँव रखते जी काँपता है सोचते हैं कहीं सर्प न काट ले। साधारण-सी बीमारी से व्याकुल हो जाते हैं सोचते हैं कहीं हृदय गति न रुक जाय। दुश्मन से घबड़ाते हैं, कहीं प्राण न हर ले। सर्वत्र मौत का ही भय समाया है। खाते, पीते, चलते, फिरते, उठते, बैठते एक ही आशंका परेशान रखती है, कहीं कुछ हो न जाय जो मौत के मुँह में जाना पड़े।

मौत का विश्लेषण करने से पहले कुछ आत्मतत्व पर विचार कर लें। यह देखते हैं कि सम्पूर्ण शरीर किन्हीं दो वस्तुओं के सम्मिश्रण से बना है। शरीर और उसकी चेतना — यह दो अलग-अलग वस्तुयें हैं। भ्रम इसलिये होता है कि शरीर की तरह ही चेतन-तत्व दृश्य नहीं है। उसे इन स्थूल आंखों से नहीं देखा जा सकता। फिर भी उसके अस्तित्व से तो इनकार नहीं किया जा सकता। यदि शरीर ही सब कुछ होता तो संभवतः मृत्यु ही नहीं होती या फिर उसका स्वरूप ही कुछ और होता। शरीर की विभिन्न क्रियाओं और चेष्टाओं से भी यह बात सिद्ध हो जाती है कि वह किसी भिन्न तत्व से परामष्ट है। यह मूलतः आत्मा या सूक्ष्म शरीर ही हो सकता है। भेद सिर्फ इसलिये है कि वह अदृश्य है और हम विश्वास केवल दृश्य पदार्थों पर ही करते हैं।

किसी बैटरी के सेल तोड़कर देखिये आपको कहीं भी विद्युत दिखाई नहीं देगी। रासायनिक तत्व, जिंक, पीतल या ताँबे की छड़ आप भले ही देख लीजिये पर बिजली नाम की कोई वस्तु देखने को नहीं मिलेगी। जिन तारों से बिजली दौड़ रही हो उन्हें गौर से देखिये आपको कोई भी वस्तु रेंगती हुई दिखाई न देगी। किन्तु “टंग्स्टन” तारों में वही बिजली प्रवाहित होकर प्रकाश के रूप में दिखाई देने लगती है। अतः किसी भी अवस्था में बिजली के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकते।

ठीक यही अवस्था शरीर में आत्म-तत्व की है। वह जो चेतन है वही “मैं” हूँ—इसे जानना चाहिये। जब यह जान लेते हैं कि मनुष्य शरीर नहीं शक्ति है तो हमारे सारे लक्ष्य परिवर्तित हो जाते हैं। दृष्टिकोण ही बदल जाता है। इतनी-सी बात को समझाने के लिये ही मनुष्य के आगे तरह-तरह की घटनायें, ज्ञान और विवेक रखा जाता है।

मृत्यु का भय केवल इसलिये है कि शरीर चला जायगा। हम समझते हैं कि शरीर चला गया तो सारे सुख चले गये पर यह नहीं सोचते कि सुख चेतना की अनुभूति मात्र हैं। भोक्ता शरीर नहीं है। शरीर केवल वाहन है। वह एक प्रकार से हमारी सवारी है। शास्त्रकार ने इसी बात को इस तरह कहा है—

वासाँसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृहणाति नरोपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा

न्यन्यानि संयाति नवनि देही॥

( गीता 2 / 22)

अर्थात् “जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है उसी तरह जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।”

यह बात जान लेने की है कि आत्मा अजर अमर है तो शरीर के प्रति आसक्ति का भाव नहीं होना चाहिये। शरीर वह साधन मात्र है जिससे हम चाहें तो परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं किन्तु जब मूल लक्ष्य भूल जाता है और शरीर के सुख ही साध्य हो जाते हैं तो मनुष्य को मौत का भय सताने लगता है। यह एक तरह से मनुष्य का अज्ञान ही है अन्यथा मृत्यु मनुष्य के लिये हितकारक ही है। जीर्ण-शीर्ण शरीर की उपयोगिता भी क्या हो सकती है? प्रकृति हमें नया शरीर देने के लिये ही तो अपने पास बुलाती है। “नया शरीर प्राप्त होगा” —इससे तो प्रसन्नता ही होनी चाहिये। दुःख की इसमें क्या बात है। अच्छी वस्तु प्राप्त करने में ही तो हर्ष ही होना चाहिये।

महात्मा गान्धी ने लिखा है ‘मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि मृत्यु को जन्म की अपेक्षा अधिक सुन्दर होना चाहिये। जन्म के पूर्व माँ के गर्भ में जो यातना भोगनी पड़ती है उसे छोड़ देता हूँ, पर जन्म लेने के बाद तो सारे जीवन-भर यातनायें ही भुगतनी पड़ती हैं। उसका तो हमें प्रत्यक्ष अनुभव है। जीवन की पराधीनता हर मनुष्य के लिये एक-सी है। जीवन यदि स्वच्छ रहा है तो मृत्यु के बाद पराधीनता जैसी कोई बात न होनी चाहिये। बालक जन्म लेता है, तो उसमें किसी तरह का ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के लिये कितना परिश्रम करना पड़ता है फिर भी आत्म-ज्ञान नहीं हो पाता, पर मृत्यु के बाद तो ब्राह्मी स्थिति का बोध सहज ही हो जाता है। यह दूसरी बात है कि विकारयुक्त होने के कारण उसका लाभ न उठा सकें किन्तु जिनका जीवन शुद्ध और पवित्र होता है उन्हें तो उस समय बन्धन-मुक्त ही समझना चाहिये। सदाचार का अभ्यास इसीलिये तो जीवन में आवश्यक बताया जाता है ताकि मृत्यु होते ही शाश्वत शान्ति की स्थिति प्राप्त कर ले।”

दार्शनिक सुकरात का भी ऐसा ही कथन है। उन्होंने लिखा है—”मृत्यु के बारे में सदैव प्रसन्न रहो, और इसे सत्य मानो कि भले आदमी पर जीवन या मृत्यु के पश्चात् कोई बुराई नहीं आ सकती।” इसलिये मृत्यु से घबड़ाने का कोई कारण हमारी समझ में नहीं आता। मृत्यु से एक शिक्षा हमें मिलती है और वह यह है कि हमसे जितना शीघ्र हो सके परमात्मा को जान लें क्योंकि उसके जाने बिना, जीवन के पाप और बुराइयाँ साथ नहीं छोड़तीं। तरह-तरह की आकाँक्षायें पीछे पड़ी रहती हैं। शरीर इस दृष्टि से एक अत्यन्त उपयोगी यन्त्र है। जीवन साधना के समस्त उपयोगी उपकरण इसमें मौजूद हैं अतः शरीर की यदि कुछ उपयोगिता हो सकती है तो वह इतनी ही है कि अपने ज्ञान, बुद्धि और विवेक के द्वारा, शिक्षा, विचार और वाणी के द्वारा बाह्य और आन्तरिक स्थिति का सही ज्ञान प्राप्त कर लें ताकि फिर दूसरी योनियों में भटकना न पड़े। शरीर के सुख इस दृष्टि से न तो आवश्यक ही हैं और न उपयोगी ही हैं। हमारा उद्देश्य जीवन-शोधन और पारमार्थिक लक्ष्य की प्राप्ति ही होना चाहिये। मृत्यु से डरने की आवश्यकता इसलिये भी नहीं है कि वह एक अनिवार्य स्थिति है। मनुष्य यदि डरे भी तो भी उससे छुटकारा नहीं मिल सकता। जितना जीवन आप को मिला है उससे अधिक कदापि नहीं प्राप्त कर सकते। फिर आप डरें क्यों? बुद्धिमानी तो इसमें है कि आप इस अनिवार्य स्थिति का लाभ उठा लें। आप मृत्यु को बुराइयों से आगाह करते रहने वाला मित्र समझें ताकि इस संसार में रहकर आत्म-कल्याण और परमार्थ के कार्य सुचारु रूप से कर सकें । जितनी जल्दी हो सके आप शुभ कर्मों का अधिक से अधिक संचय कर लें ताकि पटाक्षेप के बाद आप को किसी तरह पछताना न पड़े।

मनुष्य जीवन का कोई भरोसा नहीं है। मृत्यु किस क्षण आ जाय, इसका कोई ठिकाना नहीं है। पल भर में ही परिस्थितियाँ बदल जाती हैं। कबीरदास जी ने सच ही लिखा है—

कबिरा यह जग कुछ नहीं खिन खारा खिन मीठ।

कालि जो बैठा मंडपै आज मसानै दीठ॥

इस तरह हमारा अधिकार केवल मृत्यु से शिक्षा लेना ही है। अनिवार्य स्थिति का मुकाबला करने के लिये तो हम में साहस ही होना चाहिये।

दिन-भर काम करते हुये शरीर थक जाता है तो रात्रि में विश्राम की आवश्यकता पड़ती है। सोना एक प्रकार से थकावट मिटाने की क्रिया है। रात में पूरी नींद पा लेने से शरीर अगले दिन के लिये पूर्ण स्वस्थ और ताजा हो जाता है। एक नई शक्ति और नवीन प्राण भर जाता है जिससे दूसरे दिन शाम तक अथक परिश्रम करते रहते हैं। मृत्यु भी जीवात्मा की ठीक ऐसी ही स्थिति है। जीवन-भर की थकावट मृत्यु की गोद में ही जाकर दूर होती है। अगले जीवन के लिये शक्ति दायिनी स्थिति का नाम ही मृत्यु है। फिर इसे शत्रुवत् क्यों देखें। परम विश्राम की अवस्था से हमें प्यार होना चाहिये। फिर इससे हमें लाभ ही तो हैं। नया जीवन, नई चेतना और नई स्फूर्ति मृत्यु के उपरान्त ही प्राप्त होती है।

First 19 21 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • मानव जीवन को सार्थक बनायें
  • उसकी प्रार्थना में बड़ा बल है
  • शास्त्र-चर्चा
  • सुख के आधार वे स्वयं है।
  • आत्म-भावना से आत्म-कल्याण
  • आत्म विकास की विचार-साधना
  • लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
  • उस मोह को धन्यवाद दीजिये
  • संयमी ही आत्मजयी होते हैं।
  • अशान्ति से चिर शान्ति की ओर
  • समता में सब की व्यवस्था है।
  • मनुष्य-जीवन का अमूल्य यात्रा-पथ
  • मैत्री भावना का विकास करें
  • आत्मघात न करें इसी में आपका भला है।
  • सर्वोत्तम विभूति--विद्वता
  • श्रम ही नहीं विश्राम भी
  • गृहस्थ की समुन्नति के लिये समय का सदुपयोग
  • सत्साहित्य से शक्ति और समुन्नति
  • बच्चों को व्यवहारकुशल बनाइये
  • मौत से न डरिये, वह तो आपकी मित्र है।
  • एकाग्रता व संलग्नता से ही लक्ष्य सिद्ध होगी
  • आश्विन का आगामी शिक्षण शिविर
  • विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन
  • दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन
  • हम में से हर एक को यह करना ही चाहिये
  • छह प्रान्तों में युग-निर्माण सम्मेलनों की शृंखला
  • VigyapanSuchana
  • गुरु पूर्णिमा की श्रद्धाञ्जलि
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj