Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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सुख के आधार वे स्वयं है।
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मृत्यु के आखिरी क्षण तक मनुष्य की एक ही कामना होती है कि उसे सुख मिले। सुख को स्थूल रूप में देखें तो सुन्दर स्वादयुक्त भोजन, धन, भोग की पूर्ति सुन्दर मकान, सौंदर्यवान स्त्री-इन्हें ही सुख कहेंगे। पर यह देखा गया है कि मनोवाँछित वस्तुएं, भोग की सामग्रियाँ होते हुए भी मनुष्य सुखी दिखाई नहीं देता। हेनरीफोर्ड के पास अतुलित धन था पर उसे सुख नहीं मिला, डकैत दिन रात सुन्दर दृश्यों वाले वनों पर्वतों और एकान्त शान्त स्थलों में घूमते रहते हैं पर उन्हें शान्ति नहीं होती, सौंदर्य को विवशता के हाथों परेशान होते देखा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि साधन और सामग्रियों में सुख का अभाव है। बाहर से दिखाई देने वाला सुख, सुख नहीं कल्पना मात्र है।
एक ही परिस्थिति में मनःस्थिति के परिवर्तन से सुख और दुःख बदलते रहते हैं। दो मनुष्य हैं दोनों के पास बेटे हैं बहुएं भी हैं। एक-सी परिस्थितियाँ दोनों को प्राप्त हैं, किन्तु एक गृह कलह से परेशान है दूसरे के पास धन का अभाव है। इसी तरह दो धनियों में एक के पास भले मित्र और अच्छे कर्मचारी नहीं हैं दूसरे को कोई बालक नहीं हुआ। संत प्रत्येक परिस्थिति को पूर्व जन्मों का संस्कार या परमात्मा की इच्छा मान लेते हैं इससे उनका दुःख भाव मिट जाता है सुख-दुख इसलिए कल्पित हैं कि वे एक ही मनोवृत्ति के घटने और बढ़ने से आपस में रूप-परिवर्तन करते रहते हैं, कभी दुःख सुख में बदल जाता है, सुख भी दूसरे क्षण दुख देने लगता है। अतः इन दोनों में से किसी को भी जीवन का साध्य नहीं मान सकते, परिस्थितियों के उतार चढ़ाव हैं, आते हैं और चले जाते हैं।
संकल्प-पूर्ति को वस्तुतः सुख माना गया है किन्तु इसका सदैव रहना असम्भव है। मनुष्य श्रम योग्यता और पुरुषार्थ से अपने संकल्पों का एक अंश पूरा कर भी सकता है किन्तु संकल्पों की पूर्ति में परिस्थितियों की अनुकूलता भी अपेक्षित है। इस प्राकृतिक विधान को मनुष्य बदल नहीं सकता इसलिए प्रत्येक परिस्थिति में संतोष का भाव बनाये रखना ही श्रेयस्कर लगता है। ऐसा न किया जाय तो मनुष्य के जीवन में निरे दुःख ही दुःख, अभाव और विपदाओं के अम्बार ही बने रहेंगे।
संतोष करने का अर्थ है कि आपने प्रकृति के साथ मित्रता कर ली है। कुछ दिन इस तरह का अभ्यास डाल लेने से सुख और दुःख दानों का स्तर समान हो जायगा। तब केवल अपना ध्येय जीवन-लक्ष्य प्राप्त करना ही शेष रहेगा, इसलिये समझाना पड़ता है कि दुःख सुख इनमें से किसी के प्रभाव में न पड़ो । दोनों का मिला जुला जीवन ही मनुष्य को लक्ष्य तक पहुंचाता है। जीवन-लक्ष्य का प्रादुर्भाव दुःख और सुख के सम्मिलन से होता है।
संकल्प-पूर्ति के बाद जो जीवन में जड़ता आ जाती है उसके कारण सुख सार्थक नहीं है। सुख का सदुपयोग अपनी उदारता जागृत करने के लिये है। सभी को अपनाकर, मिले सुख को वितरित कर, आत्म-भाव को फैलाने का वह माध्यम है। इससे मनुष्य के सद्गुण जागृत होते हैं। यदि केवल सुखों का प्रयोग अपने ही भोग के बन्धनों में सीमित हो जाये तो वह सुख तत्काल दुःख में बदल जाता है। स्वार्थ की प्रवृत्ति को इसी से हानिकारक मानते हैं कि उसमें सामूहिकता अथवा आत्म-भावना का अन्त हो जाता है। भेदभाव की यही नीति मनुष्य के दुःख और उसके पतन का भी कारण बन जाती है।
जीवन की समस्याओं का हल उदारता में है, प्रेम में है। पर उदारता अपने जीवन में तभी आती है जब सुख और दुःख को अवस्था मानते हैं, जीवन नहीं। हरिश्चन्द्र, कर्ण भीष्म आदि ने यदि यही दृष्टिकोण न बनाया होता तो उन्हें अमरत्व का सौभाग्य कदाचित न मिला होता, यश और अपयश पीछे की बातें हैं पर मनुष्य जो यशस्वी बनते हैं उनके मूल में उनकी उदारता की वृत्ति ही क्रियाशील रही होती है। प्राप्त सुखों को विश्वहित और विश्व सुख के लिये होम कर देने से ही चिर सुख का विकास होता है। इसके लिये साँसारिक सुख और दुःख से बँधकर नहीं रहना चाहिये। दोनों का ही सहर्ष स्वागत करना उचित है। इन उभय परिस्थितियों की आशा परित्याग कर देना ही निर्भयता प्राप्त करना है। चित्त सुख की आकांक्षा में जब तक डाँवाडोल रहेगा तब तक कायर, डरपोक और भयभीत बने रहेंगे। सारा ध्यान सारी मनः शक्तियाँ एक ही दिशा में लगी रहेंगी। फल यह होगा कि न तो आन्तरिक विकास संभव होगा और न ही निर्भयता प्राप्त होगी। सुख का मूल है निर्भयता, दुःख का कारण है अधैर्य। इन दोनों को उचित मात्रा में प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का क्रम है। इसके लिये सुख की आकाँक्षाओं का दमन और दुख के क्षणों का स्वागत करना भी होगा। इसके सिवाय निराकरण का मार्ग मनुष्य के लिये कुछ भी नहीं है।
क्या आप सुखों से बँधे हैं? यदि आप इन्द्रियों के पराधीन होंगे, साधनों के लिये परेशान घूम रहे होंगे तो आपके जीवन में निर्द्वन्दता बिलकुल भी न होगी। अब सोचिये सुख के पीछे दौड़ने में आपको सुख मिला? नहीं। आप दुखों से घबराते हैं, परिस्थितियों की विपन्नता से डरते हैं, इससे आपकी कठिनाइयाँ हल न होंगी। आने वाली समस्या आपको बिना प्रभावित किये नहीं छोड़ सकती। प्राकृतिक विधान सबके लिये एक-सा है उसी के अनुकूल चलने से ही धैर्य और निर्द्वन्दता प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा न हुआ तो आप के जीवन में कोई मस्ती न होगी, कोई सजीवता न होगी, आप अपने ही सूनेपन से बेखबर और परेशान हो रहे होंगे।
पराधीनता मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं है, मुक्त बनने की अभिलाषा मनुष्य ही नहीं मूक पक्षियों तक में होती है। यह एक अपराध ही है कि मनुष्य इतनी शक्तियों से सम्पन्न होकर भी दीन-हीन जीवन बिताता है। थोड़े से जीवन में सुखों के पीछे अंधी दौड़ लगाने और दुःखों से डरने काँपने और पछताने से मनुष्य की समस्याओं का समाधान नहीं होता। मनुष्य और अधिक जटिलताओं के निविड़ में भटक जाता है। जिस राह उसे जाना था उससे हटकर वह दुनियावी झंझटों में फंसकर मनुष्य जीवन की अमूल्य निधि को बरबाद करता है। सारा जीवन व्यर्थ गया और सुख नहीं मिले तो क्यों इन मायावियों के पीछे पड़े।
सत्य को प्राप्त करने की जिज्ञासा पैदा करने वाले क्षण प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आते हैं। श्मशान घाट की ओर जाते हुये शव सभी ने देखे होंगे। वृद्धावस्था की यातनायें जिन्होंने अभी नहीं उठाई वे भी इसका व्यावहारिक अनुमान लगा सकते हैं। पर क्या कारण है कि हम गौतम बुद्ध की तरह, शुकदेव और शंकराचार्य की तरह इन पर विचार नहीं कर पाते। एक ही उत्तर है भौतिक सुखों की आसक्ति और साँसारिक दुःखों से कातरता। इस संसार को सब कुछ समझने की भूल का यदि सुधार कर सकें तो हमारी प्रशस्ति का द्वार भी खुला हुआ मिलेगा।
यह बुद्धि जब जागृत होने लगती है तो मनुष्य का दृष्टिकोण भी परिवर्तित होने लगता है। भौतिक आकाँक्षाओं में तब असंतोष दिखाई देने लगता है और आध्यात्मिक रसानुभूति मिलने लगती है। जब भी इस प्रकार का असन्तोष मानव-अन्तःकरण में उठा है तब-तब उसने अपने जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये हैं। सुखों दुखों के कारण प्रभावित होने वाली आन्तरिक चेतना को मोड़कर उसने आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर लगाया है। इसलिये हमें देखना है कि कहीं हमारा जीवन एकाँगी दृष्टिकोण का नहीं हो जाए। किसी भी अवस्था में इन परिस्थितियों से बच नहीं सकते, इसलिये इन्हें जीवन की सामान्य गतिविधियों में ही सम्मिलित कर लेना चाहिये। महाकवि कालिदास ने लिखा है :—
कस्यात्यन्तं सुखमुपन्तं दुखमेकान्ततो वा।
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण॥
अर्थात् किसी को न तो सुख ही सुख मिलते हैं और न ही एक मात्र दुःख ही मिलते हैं। रथ के पहिये की भाँति सुख और दुःख आते जाते रहते हैं।
सुख का मूल है परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करना। आग के पास बैठते हैं तो उसकी गर्मी का असर शरीर पर होता है। परमात्मा के समीप बैठने से जीवन का परिहार होता है, व्यावहारिक जीवन में शुद्धता आती है, इससे आत्मिक सुख की अनुभूति होने लगती है। परमात्मा की उपासना से आन्तरिक दिव्यता प्रबुद्ध होकर व्यक्ति के सद्गुणों को जगाती है यह अवस्था सर्वथा न तो सुखमय ही होती है न दुःखमय। इसमें एक अलौकिक आनन्द होता है, प्रेम की गुदगुदी से अन्तरात्मा विभोर रहती है। जिसे इस सुख का क्षणिक आभास भी मिल जाता है उसका मनुष्य जीवन धन्य हो जाता है।