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Magazine - Year 1965 - Version 2

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उस मोह को धन्यवाद दीजिये

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मनुष्य शरीर की रचना सृष्टिकार की सर्वोत्तम कृति है, इसका एक-एक अंग इतना उपयोगी और आवश्यक है कि कोई उन्हें हजारों की कीमत पर भी बेचने को तैयार नहीं होता। ठीक भी है, परमात्मा के दिये हुये वरदान को इस तरह बेरहमी से बर्बाद करके कोई कष्ट क्यों उठाये, दुःख क्यों मोल ले। बड़ी सुखदायक वस्तु है यह शरीर, इसकी सुंदरता और उपयोगिता के लालच में देवता तक नर-तनु धारण करने के लिये तरसते रहते हैं । पर यदि शरीर के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण प्रारम्भ करें तो उसमें बुराइयाँ भी अच्छाइयों की अपेक्षा कम नहीं मिलेंगी। एक जगह पर गन्दी काम-वासना, एक जगह पर क्रोध, कहीं आलस्य, कहीं दुर्विचार सब इसी प्रकार शरीर में आश्रय लिये हुये हैं। पदार्थ की दृष्टि से भी उसमें हाड़-माँस, मल-मूत्र, कफ -पित्त आदि अनेकों दुर्गन्धित वस्तुयें ही भरी पड़ी हैं। प्राण निकाल जाने पर इस दुर्गन्धित शरीर के पास सगे-सम्बन्धी भी अधिक देर तक ठहरने का साहस नहीं करेंगे।

एक वस्तु के दो रूप-परमात्मा की सृष्टि में यह विचित्रता सर्वत्र विद्यमान है। आग में जीवन भी है, मृत्यु भी, विद्युत में प्रकाश के साथ ही प्राण-घातक शक्ति भी है। वर्षा से अन्न की वृद्धि होती है, फसलें भी बरबाद हो जाती हैं। अन्न में अमृत भी है, विष भी। सर्व-गुण-सम्पन्न कोई भी वस्तु इस संसार में नहीं है। कोई वस्तु नितान्त बुरी भी नहीं। घृणित से घृणित वस्तु का भी कुछ न कुछ उपयोग है।

प्रत्येक वस्तु को अपनी बुद्धि और विवेक के द्वारा जिस रूप में देखते हैं वह वैसी ही दिखाई देने लगती है किन्तु गुण की दृष्टि से कोई भी वस्तु बेकार नहीं होती। अपनी भावनाओं के द्वारा जिस वस्तु को जिस रूप में देखिये वह वैसी ही प्रतीत होने लगेगी। शरीर में सुखद भावों की कल्पना से ही यह प्रिय लगता है अन्यथा क्या इसमें बुराइयाँ कुछ कम हैं। काम, क्रोध, लोभ और मोह का भी अपना औचित्य है । परमात्मा ने इन्हें बिलकुल बेकार समझ कर नहीं बनाया। काम की इतनी निन्दा की जाती है पर कौन नहीं जानता कि सृष्टि संचालन के लिये वह कितने उपयोग की वस्तु है। क्रोध न होता तो सद्-प्रवृत्तियों और सत्कर्मों की रक्षा के लिये शायद कोई भी तत्पर न होता। लोभ के द्वारा संचय से ही जीवन की अनेकों सुविधायें मनुष्य प्राप्त करता है। यह भाव भी उतने ही आवश्यक हैं जितने कि अन्य सद्-भाव। बुरा तो उनका विकृत रूप है। काम, क्रोध या लोभ की आसक्ति या अनुचित मात्रा बुरी है। नियन्त्रित रूप से इन्हें अपने जीवन में धारण करें तो यह सभी समान उपयोग की वस्तुयें हैं।

शास्त्रों में मोह को बड़ी निन्दा की गई है और स्थान-स्थान पर उससे बचकर रहने की सलाह दी गई है किन्तु यहाँ बिल्कुल शब्दार्थ पर न जाकर उसके भावार्थ पर जाने की भी बड़ी जरूरत है तभी वस्तुस्थिति को ठीक प्रकार से समझा जा सकता है। मोह के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उससे बुद्धि का नाश होता है, धर्म और अर्थ दोनों नष्ट होते, मनुष्य में इससे नास्तिकता आती है दुराचार में प्रवृत्त होते हैं, भय का कारण है आदि-आदि। पर इस प्रकार की भर्त्सना मोह के विकृत रूप अर्थात् मोहासक्ति की, की गई है स्वाभाविक जीवन में जिस प्रकार काम और क्रोध आवश्यक हैं उसी तरह मोह न होता तो सम्भवतः अब तक संसार की सारी व्यवस्था ही बिगड़ गई होती। प्रेम, स्नेह, दया, कर्त्तव्य पालन, उदारता, सदाचार आदि सद्गुणों का विकास मोह की ही पृष्ठभूमि पर होता है सत्य का मोह, आदर्श का मोह, राष्ट्र भावना का मोह, धर्म का मोह—क्या इन सब मोह-स्वरूपों को कोई अनुचित ठहरा सकता है और तो और महान् योगियों को भी तो अपने जीवन लक्ष्य और परमात्मा की प्राप्ति का मोह होता है जिसके लिये वे सामाजिक मोह- ममत्व को भी ठुकरा देते हैं।

मोह को अनुचित बता कर घर से भाग जाना वस्तुतः बन्धन-मुक्ति का लक्षण नहीं, कर्त्तव्य-पलायन है। अपने पीछे बालक बच्चों, पत्नी परिवार को निराश्रय कर जाने की अपेक्षा उस व्यक्ति का जीवन बेहतर मानेंगे जो दिन-रात अपने बाल-बच्चों की सेवा एवं कर्त्तव्य पालन में लगा रहता है। अपने प्रति-परिवार समाज और राष्ट्र के प्रति-अपने उत्तरदायित्व का पालन करने वाले सद्-गृहस्थों का वह मोह उचित है जिसके कारण वे सम्पूर्ण जीवन कर्त्तव्य कर्म करते रहते हैं। साधारण मनुष्यों के लिये वह मोह ही सबसे बड़ा ज्ञान है, जिससे वे एक निश्चित ढाँचे में रहकर, सदैव कर्त्तव्य पालन करने में ही सुख का अनुभव करते हैं। उन बेचारों की भावनायें बहुत ऊँची न हों तो न सही पर कर्त्तव्य निर्वाह का श्रेय तो उन्हें मिलता ही है।

घर छोड़कर भाग खड़े होने वाले के पीछे बिलखते हुये परिवार को देखकर कोई भी व्यक्ति यही कहेगा कि जिन्हें हम मोहग्रस्त कहते हैं वह भी इनसे अच्छे हैं। भले ही अनजान में, पर समाज-सेवा का एक छोटा-सा रूप तो वे अपनाये ही हैं। औरों के आश्रित रहकर जीवन निर्वाह करने वाले धर्मध्वजी व्यक्तियों की अपेक्षा, जो मोह को बन्धन का कारण बताते रहते हैं, वे गृहस्थ अच्छे जो अपना निर्वाह स्वतः कर लेते हैं और राष्ट्रीय-व्यवस्था में योगदान देते हैं। परमात्मा के समीप पुत्र-मनुष्य सब समान हैं। किसी के प्रति उपेक्षा, उदासीनता या कर्त्तव्य पलायन परमात्मा को प्रिय लगेगा, यह सोचना नितान्त भ्रम है। उसकी सच्ची सेवा प्राणि- मात्र की सेवा में ही सन्निहित है। प्राणियों की सेवा अर्थात् अपने कर्त्तव्य कर्म की अवहेलना करना भारी भूल है इस भूल से अधिकाँश व्यक्तियों को बचाने वाला यह मोह ही है जिनके कारण मनुष्य अपने पारिवारिक जीवन में बँधा रहता है और मृत्यु का ध्यान किये बिना अन्त तक अपने कर्त्तव्य का जिन्दा-दिली के साथ पालन करता रहता है।

मोह अपने स्वाभाविक रूप में बुरा नहीं है। बुरा केवल इतना ही है कि जब कर्त्तव्य-पालन में भावना नहीं रहती और अपने को अधिकारी पात्र समझकर ही कोई काम करते हैं तो उससे गलती पैदा होती है, और अपराध होने का भय रहता है। मोह के इसी रूप में विष है। बालक के प्रति मनुष्य की अनेक जिम्मेदारियाँ होती हैं, पर इन जिम्मेदारियों का पालन संकुचित हृदय से किया जाना ही बुरा है। अपना ही बालक हो तो उसके साथ अच्छा व्यवहार, बर्ताव करें यह भेद-बुद्धि ही मोहासक्ति उत्पन्न करती है। जब तक कर्त्तव्यों का पालन हृदय को विशाल रखकर किया जाता है तब तक एक छोटे क्षेत्र में रहकर कर्त्तव्य पालन भी बुरा नहीं, वरन् उससे जीवन की स्वाभाविकता बनी रहती है।

जगत के प्राणी पदार्थों में हमारी जो आसक्ति है, राग है इसी को अज्ञान कहते हैं। नाशवान् पदार्थों के प्रति आसक्ति न हो इसीलिये मोह को अनुचित कहा गया है। पारिवारिक या सामाजिक दृष्टि से कर्त्तव्य पालन मोह नहीं। लोकाचार रहे तो फिर साँसारिक सुखों का महत्व ही क्या रहेगा? अनुकूल के प्रति झुकाव और प्रतिकूल के प्रति जो विराग है उसी का नाम ‘मोह’ है और इसी मोह की निन्दा की गई है ताकि मनुष्य का जीवन एक पक्षीय अर्थात् केवल भोगवादी ही न रहे। विपरीत परिस्थितियों से टक्कर लेने में भी उसकी उतनी ही रुचि होनी चाहिये जितनी सुखों की ओर। इस प्रकार के जीवन को कभी मोह या माया नहीं कहेंगे। ऐसे ही जीवन में सही आनन्द होता है।

परिवार के बिना जीवित नहीं रहेंगे, धन-सम्पत्ति ही सर्व सुख है, ऊँचे से ऊँचा पद मिलना ही चाहिये, मान-सम्मान, पद प्रतिष्ठा, डिग्री जाति, कुल सौंदर्य, वर्ण आदि के प्रति अनियन्त्रित अनुराग का नाम मोह है और मोह का यही रूप दुःखद है। स्वाभाविक दृष्टि से पारिवारिक जीवन, धनार्जन, पद, प्रतिष्ठा, कुल, परम्पराओं का निर्वाह करने में व्यक्तिगत तथा सामाजिक सभी तरह की व्यवस्थायें रहती हैं।

जीवन के इन नियमों का यदि यथावत् पालन न किया गया होता और सम्बद्ध जीवन को मोह और ममत्व बताकर पलायनवादी नीति पूर्व पुरुषों ने अपनायी होती, तो आज कहीं भी व्यवस्थित जीवन न पाते। मनुष्य जीवन में जिन सुखों एवं पुण्यों के अर्जन की कल्पना की जाती है वह परिस्थितियाँ मृतप्राय हो गई होतीं। आज जिस विकसित रूप में मनुष्य बढ़ रहा है इसके लिये उसकी निन्दा नहीं धन्यवाद ही देना चाहिये। मोह को यदि विशुद्ध रूप से कर्त्तव्य पालन समझें तो इस रूप में वह हमारे पुण्य और कल्याण की ही वस्तु है।

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