
पतिव्रत की तरह पत्नीव्रत भी अत्यावश्यक
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भारतीय संस्कृति में पतिव्रत धर्म नारियों की सर्वोच्च उत्कृष्टता का प्रमाण है। उनके लिये शास्त्रकार ने बताया है कि वे ईश्वर की विधिवत उपासना भले ही न करें पर यदि वे अपने पतियों के प्रति निष्ठावान हैं तो सहज सद्गति प्राप्त कर सकती हैं। परिवार को स्वर्ग बनाकर रखना, सुसन्तति को जन्म देना भी इस व्रत के अंतर्गत हैं। जिस समाज में ऐसी पति पारायण नारियों की कमी नहीं रहती वे समाज, वे जातियाँ निश्चय ही श्री, समृद्धि और सफलता प्राप्त करती हैं।
जो लाभ स्त्रियों को और समाज को शीलवान बनाने से हो सकते हैं, पत्नीव्रत का पालन करने वाले पुरुषों को भी वही लाभ होते हैं। नर-नारी जीवन विकास के समान उत्तरदायित्व लेकर धरती में आते हैं। अलग-अलग दोनों अपूर्ण हैं। दोनों का युग्म ही पूर्णता की स्थिति उत्पन्न कर सकने में समर्थ होता है। स्त्री भावना है, पुरुष कर्त्तव्य, स्त्री शक्ति, पुरुष पौरुष। दोनों एक दूसरे के अविभाज्य अंग हैं। एक के बिना दूसरा जीवित नहीं रह सकता। संसार में न केवल स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ रह सकती हैं और न पुरुष ही पुरुष। प्रकृति और प्राण की तरह स्त्री और पुरुष दोनों के सम्मिलन से ही सृष्टि का आविर्भाव हुआ है और अन्त तक वे साथ ही बने रहेंगे।
स्त्रियों की सद्गति पुरुष को आत्मसमर्पण कर देने से आसान हो जाती है। उसी तरह पुरुष के आत्म-विकास में स्त्रियों का भी योगदान कम महत्व का नहीं। जिन ऋषियों ने शोध कार्यों के लिये अत्यधिक एकान्त वास की आवश्यकता समझी उन्हें छोड़कर प्रायः सभी ऋषि गृहस्थ थे। गृहस्थ में रहकर ही उन्होंने आत्म-कल्याण की साधनायें की थीं। वशिष्ठ के सौ पुत्र थे, उनकी पत्नी न रही होती तो ये बच्चे कहाँ से आते। महर्षि जमदग्नि की पत्नी रेणुका थी, गौतम की अहिल्या, अत्रि की अनुसुइया आदि अधिकाँश ऋषि पत्नीव्रत पालन करने वाले हुये हैं। बीच में जब बुद्ध धर्म का प्रभाव इस देश में बढ़ा उस समय कुछ भ्रान्त धारणायें समाज में फैलीं और नारी को अभिशाप समझा जाने लगा। यह कहना वस्तुतः अपने कर्त्तव्य से विमुख होना ही था। स्त्री बच्चों को त्याग कर आत्म- कल्याण के लिये जंगल भाग जाना त्याग नहीं। पलायनवाद धर्म नहीं, अकर्मण्यता ही कही जा सकती है।
पुरुष सदाचारपूर्वक गृहस्थ धर्म का पालन करता हुआ आत्म-कल्याण की स्थिति प्राप्त कर सकता है। यहाँ जो बात स्त्री के लिये कर्त्तव्य होती है, वही बात पुरुष के लिए भी। चारित्रिक पवित्रता स्त्री में और पुरुष में नहीं होती तो पारस्परिक सम्बन्ध मधुर रह सकेंगे, यह अनिश्चित माना जाता है। स्त्री का कलंक पुरुष को असह्य हो सकता तो पुरुष का प्रेम कोई अन्य स्त्री प्राप्त करे, यह उसकी धर्म पत्नी ही कैसे देख सकती है? मानवीय कमजोरियाँ स्त्री-पुरुष दोनों में समान रूप से होती हैं। पुरुष की दुश्चरित्रता से कितनी ही पति-परायण स्त्री हो उसे दुःख, क्षेत्र और बोझ अनुभव न हो, यह असंभव ही है।
अकेली धर्मपत्नी शील और सदाचार का पालन पारिवारिक जीवन को सुव्यवस्थित नहीं रख सकती पुरुष का समान सहयोग भी आवश्यक है। दोनों गाड़ी के दो पहियों के समान है। एक पहिया लुढ़कता जाए और दूसरा तनिक भी जोर न देता हो, तो गाड़ी जहाँ की तहाँ रहेगी और जीवन की यात्रा पूरी न हो सकेगी। स्त्री पुरुष दोनों मिलकर जोर लगाते हैं तो जीवन की यात्रा खुशी और प्रसन्नता पूर्वक तय हो सकती है।
पत्नीव्रत का पालन, ईश्वर की आज्ञाओं का पालन इसमें पुरुष में पौरुष का विकास होता हैं। । सत्य, दया, कर्त्तव्यपालन, कष्ट, सहिष्णुता, आत्मीयता व सहानुभूति जैसे सद्गुणों का प्रयोग परिवार में रहकर किया जा सकता है और उससे आत्मनिष्ठा को व्यापक बनाया जा सकता है। गृहस्थ धर्म का पालन इसमें किसी तरह की बाधा नहीं उत्पन्न करता।
आत्म-विकास के साथ पारिवारिक जीवन को सुन्दर बनाने का आधार भी यही है कि स्त्री की तरह पुरुष में भी चारित्रिक दृढ़ता हो। प्रेम तभी रह सकता हैं।
सन्देह की स्थिति न बने और यह तभी संभव हैं जब व्यक्ति के जीवन में बनावट न हो। वह शुद्ध अन्तःकरण हो, नाटक न करता हो। घर में स्त्री की एक निष्ठा चाहने वाले और स्वयं बाहर मनमानी करने वालों को अपनी धर्म-पत्नी का विश्वास प्राप्त नहीं हो सकता। हर बार शंका उत्पन्न होगी और आत्मीयता का सूत्र खंडित होता रहेगा।
प्रजनन जैसे कार्य, बालकों के पालन-पोषण का भार और परिवार में सबका ध्यान रखने का कार्य स्त्री करती है। यह कार्य पुरुषों के कार्यों की अपेक्षा अधिक कष्टकारक और बड़े होते हैं। पुरुष यह कार्य नहीं कर सकता। स्त्री के इस कठिन जीवन के प्रति पुरुष को कृतज्ञ, विनम्र और उदार होना चाहिये। उसे स्त्री को अपना प्रेम और स्नेह बराबर देते रहना चाहिये। स्त्री दया की, रक्षा की पात्र है। उसे पुरुष के भी आत्म-समर्पण की अभिलाषा रहती है। अपनी सेवाओं के बदले पुरुष का प्रेम पाने की उसकी हार्दिक कामना होती है।
पतिव्रत पालन की सीमा जिस तरह काम सदाचार तक ही सीमित न रहकर पति के प्रति पूर्ण कर्त्तव्य निष्ठा का भाव जागृत करना है, पुरुष के लिये यही बात पत्नीव्रत के अंतर्गत आती हैं। चारित्रिक दृढ़ता के साथ यह भी आवश्यक है कि स्त्री को पर्याप्त सम्मान मिले और उसकी भी भावनाओं की इज्जत की जाय। अपने जीवन साथी को उत्साहित करना, ऊँचा उठाना, शिक्षित, सुसंस्कृत, सभ्य नागरिक बनाने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया जाना चाहिये। पुरुषों में बड़ा बनने की हीन महत्वाकांक्षा होती है। वह अपने सम्मान के विपरीत हर छोटी बात को पकड़ता और बात-बात पर धर्म-पत्नी पर झल्लाता रहता है। पति के चिड़चिड़े स्वभाव से स्त्रियाँ दुःखित हो जाती हैं फलस्वरूप वहाँ वैमनस्यता का वातावरण उठ खड़ा होता है।
स्त्री के हर अच्छे कार्य की प्रशंसा करना पुरुष का धर्म है। अपनी आत्मीयता प्रकट करने में किसी को जरा सी संकोच न करना चाहिये। आप यह समझ लीजिये कि आपकी धर्म-पत्नी वैसी ही है जैसा आपका बच्चा। बच्चे की प्रसन्नता के लिये क्या कुछ नहीं किया जाता। यही आत्म-भाव नारी के लिये भी होना चाहिये और उसकी उन्नति से सच्चा सुख अनुभव किया जाना चाहिये।
आप यह चाहते हैं कि आपकी धर्म-पत्नी आपके प्रति सहिष्णु रहे, नम्रता से बात करे, साफ-सुथरी रहे, आपके बाहर से आने पर आपकी कुशलता की खैर पूछा करे तो आप भी कृपया उसके साथ ऐसा ही व्यवहार किया कीजिये। आपको यह अनुभव करना चाहिये कि नारी आपन की दासी बनकर आपकी सेवा में हाजिर नहीं हुई। कुछ सेवायें आप उससे चाहते हैं तो कुछ उसकी भी सेवायें करिये। ताली एक हाथ से नहीं बजती, गाड़ी एक पहिये से नहीं चलती। स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक बनकर रहें-दाम्पत्य जीवन की सुख-सुविधाओं के लिये यह बहुत जरूरी बात है।
जो कमाकर लाते हैं, उसे अपनी धर्म-पत्नी को सौंपिये, बच्चों की शादी में उससे लीजिये। मकान बनवाना हो, चाहे दुकान खोलनी हो-प्रत्येक कार्य की शुरुआत में धर्म-पत्नी की इच्छा वैसी ही होनी चाहिये जैसी राजा अपने मन्त्री की इच्छाओं और योजनाओं का समादर करता है। इसमें पुरुष की हानि नहीं होती वरन् बोझ कुछ हल्का हो जाता है। धन और घर के आन्तरिक मामलों का न्यायकर्ता तो जहाँ तक संभव हो स्त्री को ही रखना चाहिये। इससे उसे यह अनुभव होता रहेगा कि मेरा भी इस घर में समान अधिकार है। नारियों को प्रायः ऐसी पिपासा सर्वत्र होती है और यह उचित भी है।
परिवार में जैसी भी कुछ स्थिति बन जाती है, वह सब पुरुष के चरित्र और व्यक्तित्व की ही देन होती हैं। अपनी भावनाओं और कर्त्तव्य कर्मों के उचित- अनुचित निर्वाह पर उसकी गृहस्थी का समुन्नत होना निर्भर करता है। पुरुष की सद्भावनाओं से परिवार की सद्भावनायें बढ़ती हैं, प्रेम से प्रेम का विस्तार होता है। द्वेष से द्वेष बढ़ता है। जैसी भी पुरुष की मानसिक स्थिति होगी, दाम्पत्य-जीवन की स्थिति भी वैसी ही होगी क्योंकि पुरुष संचालक है, गृहस्थी का नियामक है। अतः उसका चरित्र उसकी भावनायें और आचरण सब शुद्ध, पवित्र एवं सहयोगात्मक होने चाहिये। गृहस्थ की समुन्नति, सुसन्तति का निर्माण केवल स्त्री के पतिव्रत द्वारा ही पूरा नहीं हो जाता, उसके लिये पत्नीव्रत भी चाहिये। इसमें से कोई भी अंग छोड़ा नहीं जा सकता। व्यवस्था को एकाँगी बनाने से पूर्णता का लाभ भी नहीं उठाया जा सकता।
स्वतन्त्रता की प्रतिमा-