Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
हमारी प्रत्येक इच्छा पवित्र और प्रखर बने
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इच्छा मनुष्य जीवन की संचालिका शक्ति हैं। यही वह प्रेरणादायक अनुभूति है जिसके बल पर कभी-कभी मनुष्य अपनी सामान्य क्षमता से अधिक कार्य कर दिखाता है।
संसार में यदि इच्छा का अस्तित्व न रहे तो इसकी सारी क्रियायें ठहर जायें। सारा जड़ चेतन संसार केवल मात्र जड़ चेतन होकर रह जाये। न कोई कुछ काम करे और न कोई सम्बन्ध रखे। संसार की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय तीनों अवस्थायें एक मात्र इच्छा शक्ति पर निर्भर करती हैं। संसार के प्रत्येक कार्य का कारण एक मात्र इच्छा ही है। मनुष्य कुछ चाहता है तभी वह किसी कर्म में प्रवृत्त होती है।
विचारकों ने इच्छा को शक्ति की जन्मदात्री बताया है। जहाँ इच्छा नहीं वहाँ शक्ति नहीं और जहाँ शक्ति नहीं वहाँ कर्म नहीं, जहाँ कर्म नहीं वहाँ जीवन नहीं। इसे इस प्रकार एक वाक्य में भी कहा जा सकता है कि जहाँ इच्छा नहीं वहाँ जीवन नहीं। इच्छाओं की हलचल जीवन के अस्तित्व को ही प्रकट करती है।
मनुष्य की इच्छाओं की कोई सीमा नहीं। उसमें प्रतिपल इच्छाओं का उदय अस्त होता रहता है। किन्तु उसकी असंख्य इच्छाओं में से केवल कतिपय इच्छायें ही पूरी हो पाती हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि जिस इच्छा में दृढ़ता होगी, तीव्रता और उत्सुकता होगी उसमें एक शक्ति का निवास होता है, जो हर परिस्थिति में अपना मार्ग प्रशस्त कर लेती हैं।
जीवन में लक्ष्य की सिद्धि इच्छा शक्ति की प्रबलता पर निर्भर रहती है। यदि इच्छाओं में प्रबलता नहीं, तो वे कदापि सफल नहीं हो सकतीं। निर्बल इच्छायें वास्तव में लोलुपता मात्र ही होती हैं। लोलुप व्यक्ति में सक्षम शक्तियों का प्रायः अभाव ही रहता हैं। मनुष्य की इच्छा ज्यों-ज्यों बलवती होती हुई संकल्प के रूप में बदलती जाती है त्यों-त्यों उसका लक्ष्य समीपतर होता है। इच्छा की परिपक्व अवस्था का ही नाम संकल्प हैं। संकल्पवान व्यक्ति की सारी क्षमतायें एकाग्र होकर ध्येय पथ की ओर ही गतिशील रहती हैं और शक्तियों का संगठित अभियान ही किसी भी सफलता का एक मात्र मूलमंत्र है।
संकल्पवान सैनिक सेनापति बन सकता है और संकल्पवान मुमुक्षु मुक्ति प्राप्त कर लेता है। संसार के समस्त महापुरुष साधनों की अपेक्षा अपनी संकल्प शक्ति से अधिक आगे बढ़े हैं। संसार में अनेकों ऐसे महापुरुष हुये हैं जिन के साधनों और ध्येय में जमीन आसमान का अन्तर है, किन्तु उन्होंने संकल्प शक्ति के बल पर असम्भव को सम्भव कर दिखाया है। कहाँ साधन विहीन चाणक्य और कहाँ समस्त साधन-सम्पन्न मगध राज महा पद्यनन्द। किन्तु एक अकेले चाणक्य ने मगध राज का उन्मूलन करके ही छोड़ा। अन्यायी शासक के विरुद्ध साधनहीन जनता का संघर्ष संकल्प-बल पर ही सफल होता है। संकल्प का बल लेकर उठा हुआ व्यक्ति कुछ ही समय में एक अखण्ड संगठन खड़ा कर देता है। लाखों करोड़ों व्यक्तियों को एक ध्येय और एक सूत्र में आबद्ध कर देता है।
दृढ़ इच्छा-शक्ति के चमत्कारों से यह संसार भरा पड़ा है। संसार में जो कुछ उन्नति और इतिहास में जो कुछ महान दिखाई देता है, वह वास्तव में मनुष्य की इच्छा शक्ति का ही प्रतिफल है। पहाड़ों की चोटियों पर बने मंदिर, जल के नीचे बने महल, पर्वतों के उदर से निकले हुये मार्ग और कुछ नहीं मनुष्य की दृढ़ इच्छा शक्ति का ही प्रमाण है।
जिसकी समस्त इच्छायें किसी एक महान इच्छा में समाहित होकर एकीभूत हो गई हैं और वह एक इच्छा दृढ़तम होकर यदि संकल्प में बदल चुकी है, तो निश्चय है कि ऐसे एकनिष्ठ व्यक्ति का मार्ग मनुष्य तो क्या स्वयं विधाता भी नहीं रोक सकता। कहाँ हिमाच्छादित गगनचुम्बी हिमालय का गौरीशंकर शिखर और कहाँ मनुष्य के नन्हे-नन्हे कदम! असंख्यों अवरोधों से भरे हुये मार्गहीन पर्वतों के आरोहण में मनुष्य का शरीर कदापि सक्षम नहीं था, फिर भी मनुष्यों ने जो उसके शिखरों को पद-दलित किया है, वह केवल अपनी इच्छा शक्ति और संकल्प के बल पर। अनन्त एवं अज्ञात महासागरों की छाती पर अकस्मात चल देने वाले जिन साहसिक नाविकों ने नये-नये महाद्वीपों की खोज की है, वह केवल अपनी संकल्प शक्ति से ही तो।
मनुष्य में करने, और कर डालने की इच्छा भर होनी चाहिये, शेष सारे साधन और शक्तियाँ स्वयं संकल्प ही इकट्ठा कर लेता है। एक बार किसी में कुछ करने की इच्छा जगा दीजिये उसकी संकल्प शक्ति को सजग कर दीजिये फिर देखिये कि वह व्यक्ति हर प्रकार से साधन हीन होने पर भी बड़े-से बड़ा कार्य कर दिखायेगा। निर्बल विद्यार्थियों अकर्मण्य शिष्यों को सक्षम एवं सफल बनाने के लिये गुरुओं के पास एक ही उपाय रहता है-उनकी संकल्प शक्ति का जागरण कर देना। तुलसी, सूर और कालिदास जैसे विषयासक्त एवं जड़ बुद्धि व्यक्तियों ने संकल्प शक्ति के बल पर ही संसार में महाकवियों का प्रतिष्ठित पद पाया है। हृदय में अविचल संकल्प लेकर चलने वाले व्यक्ति के मार्ग से अवरोध उसी प्रकार हट जाते हैं जिस प्रकार प्रबल जल-प्रपात के मार्ग में पड़े हुये शिलाखण्ड।
जिसमें दृढ़ इच्छा शक्ति की कमी है संकल्प-शक्ति का अभाव हैं, वह वास्तव में नास्तिक है। जो नास्तिक है वह निर्बल है और जो निर्बल हैं वह निकम्मा है, निरर्थक है, धरती पर भार स्वरूप है। संकल्प-शक्ति वास्तव में एक दैवी शक्ति हैं। उसकी उपासना न करने वाला संसार में सबसे निकृष्ट व्यक्ति है। मनुष्य का जन्म ही संसार में कुछ ऊँचा कार्य सम्पादित करने के लिये हुआ है। जो अपने इस कर्तव्य को पूरा नहीं करता, संसार को सुन्दर एवं समुन्नत बनाने में अपना अंश दान नहीं करता, उसे कर्तव्यघाती के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता हैं। जिसकी इच्छाओं में दृढ़ता नहीं, संकल्प में शक्ति नहीं, वह संसार में कोई भी श्रेयस्कर कार्य सम्पादित नहीं कर सकता। इस प्रकार का संकल्पहीन व्यक्ति जानवरों की तरह उत्पन्न होता है, उन्हीं की तरह जीवन-यापन करता और अन्त में अहमत्त्वपूर्ण मृत्यु मर कर चला जाता है। इस प्रकार की अस्मरणशील मृत्यु आत्म-हत्या से किसी प्रकार कम नहीं।
साधारण एवं असाधारण व्यक्तियों में जो अन्तर दिखाई देता है, उसका मूलभूत कारण उनकी अपनी-अपनी इच्छा शक्ति ही है। जिन्होंने अपने संकल्पों को ऊँचा, बनाया, इच्छाओं को स्वार्थ के दायरे से निकाल कर परमार्थ की ओर निसृत किया उन्होंने जीवन में महानता पाई और जिन्होंने अपनी इच्छाओं को स्वार्थपूर्ण बना कर निकृष्ट भोगों तक ही सीमित रक्खा, खाने-पीने और उड़ाने को ही जीवन का लक्ष्य माना वह उन्हीं तक सीमित रहकर निकृष्ट बन गया।
जिस सीमा तक मनुष्य की इच्छाओं की परिधि फैलती है, उस सीमा तक वह स्वयं भी बढ़ जाता हैं। जिसकी इच्छाएं व्यापक हैं वह व्यापक और जिसके संकल्प ऊँचे हैं वह ऊँचा बने बिना नहीं रह सकता।
पवित्र इच्छायें मनुष्य के जीवन को पवित्र और अपवित्र कामनायें उसे निकृष्टतम बनाए बिना नहीं छोड़तीं। खाना-पीना, सोना-जागना मजा और मौज मनुष्य का निसर्ग-प्रदत्त स्वभाव हैं। मनुष्य की यह सहज प्रवृत्तियाँ है। फिर इन्हीं में लगे रहना इन्हीं को बढ़ाते रहने में क्या विशेषता है? विशेषता तो इस बात में है कि मनुष्य इन प्रकृति प्रवृत्तियों को परिमार्जित करे, संस्कृत करे और अपने इस सहज स्वभाव को उदात्त बना कर संसार में कुछ कर दिखावे। भोजन सब करते हैं। किन्तु स्वार्थी अपने लिये और परमार्थी दूसरों के लिये। स्वार्थी, लोलुप और निकृष्ट इच्छाओं वाला व्यक्ति शरीर को शरीर भोगों के लिये ही पालता और पोसता है जबकि परमार्थी दूसरों की सेवा, औरों की उपयोगिता के लिये ही अपने जीवन की रक्षा करता है।
मनुष्य उस चरम चेतन का सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब है। उसका प्रतिनिधि हैं। इतना बड़ा होने पर यदि वह निकृष्ट उद्देश्य के लिये जीता है तो वह अपनी महानतम पदवी ‘मनुष्यता’ को कलंकित करता है। अपनी इच्छा को सुसंस्कृत, पवित्र एवं शक्ति-सम्पन्न बना कर परमेश्वर के प्रधान अंश मनुष्य को उन्नत संकल्पों के साथ सराहनीय जीवन यापन करना चाहिये। यही उसकी मनुष्यता और यही उसकी विशेषता है।