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Magazine - Year 1965 - Version 2

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महादेव गोविन्द रानाडे

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श्री महादेव गोविन्द रानाडे के पिता अमृतराव बड़ी साधारण स्थिति के व्यक्ति थे। वे नासिक जिले के निफाद तालुक्के के जमींदार के यहाँ प्रधान मुँशी थे। महादेव गोविन्द रानाडे का जन्म 18 जनवरी, सन् 1840 ई॰ का हुआ।

अपने बाल्यकाल में महादेव गोविन्द रानाडे ने किसी विशेष प्रतिभा का परिचय नहीं दिया। इनको देखकर सब लोग यही कहा करते थे कि यह लड़का अपने जीवन में क्या करेगा! यह बड़े ही सुस्त तथा मौन रहा करते थे। इनके माता-पिता एक प्रकार से इनके भविष्य के विषय में सदैव निराश एवं चिंतित रहा करते थे।

प्रारम्भिक शिक्षा पिता द्वारा मराठी में पाकर ग्यारह वर्ष की आयु में इन्होंने अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया और क्रम से हाई स्कूल, एफ॰ ए0, बी0 ए॰ तथा इतिहास में एम॰ ए॰ की परीक्षा पास की। अनन्तर 1866 में आनर सहित एल॰ एल॰ बी0 के परीक्षा पास कर उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी कर ली।

महादेव गोविन्द रानाडे किसी नैसर्गिक प्रतिभा के धनी नहीं थे। इन्होंने जो भी परीक्षायें पास कीं और जो भी योग्यता प्राप्त की, वह इनकी उद्योग-शीलता तथा परिश्रम का ही प्रसाद था। जिस समय यह पढ़ने बैठते थे अपने को अध्ययन में बिल्कुल डुबो देते थे। जब तक अपना अध्ययन पूर्ण न कर लेते थे, खाने-पीने तक का ध्यान न करते थे। सारे संसार को भूलकर किसी काम में संलग्न होने का जो निश्चित फल होता है, वह उनका मिला और वे कॉलेज के एक गौरवशाली छात्र समझे जाने लगे। अनेक वर्षों तक 60- मासिक जूनियर फेलोशिप पाने के बाद वे तीन वर्ष तक 125- मासिक सीनियर फेलोशिप पाते रहे। अपने परिश्रम तथा लगन के बल पर इन्होंने प्रिंस आफ ग्रेजुएट्स (स्नातकों के राजकुमार) की सम्मानित उपाधि उपार्जित की थी।

अपने छात्र जीवन में रानाडे केवल पाठ्यक्रम पुस्तकों तक ही सीमित न रहा करते थे। वे अपने पाठ्य के अतिरिक्त कम-से-कम किसी अन्य विषय की एक पुस्तक नित्य अवश्य पढ़ा करते थे। रानाडे की व्यस्तता देखकर लोग आश्चर्य किया करते थे। वे अपना एक क्षण भी कभी खराब न करते थे। यहाँ तक कि कॉलेज में जब छुट्टियाँ पड़ जाती थीं तब भी यह सदैव पढ़ने-लिखने में व्यस्त रहा करते थे और कॉलेज खुले रहने के दिनों से अधिक पढ़ा करते थे। कॉलेज के अवकाश के दिनों में ही उन्होंने इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, दर्शन तथा नाटक शास्त्र की तैयारी की थी।

ज्ञान गरिमा के साथ-साथ रानाडे में आत्मगौरव तथा स्वदेशाभिमान का भी समुचित विकास होता गया, जिसका प्रमाण उन्होंने उस समय दिया जिस समय अलेक्जेन्डर ग्राँट नामक एक अंग्रेज शिक्षक के दिये एक इतिहास के प्रश्न का उत्तर उन्होंने किसी प्रकार की शंका से मुक्त होकर उत्तर पुस्तिका में लिखा।

ग्रान्ट महोदय महादेव गोविन्द रानाडे पर बहुत ही कृपालु थे। रानाडे भी यह बात जानते थे कि ग्रान्ट महोदय की कृपा से ही वे साधन रहित होते हुये भी अध्ययन की अनेक सुविधायें प्राप्त कर सके थे। यद्यपि गुणों का अपना मूल्य एवं महत्व तो है ही, फिर भी उसके प्रशंसित एवं पुरस्कृत होने में किसी कृपालु गुण-ग्राहक का भी आभार रहता है और शिष्टाचार तथा व्यवहार एवं मनुष्यता के नाते गुण ग्राहक को भी धन्यवाद पूर्वक प्रसन्न रखना ही पड़ता है।

ग्रान्ट महोदय का प्रश्न था-”अंग्रेजी राज्य तथा मराठा राज्य की तुलनात्मक विवेचना।” सभी विद्यार्थियों ने अपने प्रभावशाली अंग्रेज अध्यापक श्री ग्रान्ट को प्रसन्न करने के लिये प्रश्न के उत्तर में मराठों के राज्य की तुलना में अंग्रेज राज्य की प्रशंसा की। किन्तु महादेव गोविन्द रानाडे के स्वाभिमान तथा राष्ट्रीय गौरव ने अंग्रेजी राज्य की झूठी प्रशंसा करना स्वीकार न किया और उन्होंने सत्य समीक्षक के रूप में अंग्रेजी राज्य की आलोचना करते हुये मराठा राज्य की प्रशंसा की।

स्वयं न्यायप्रिय तथा निष्पक्ष होने के कारण उन्हें यह आशा न थी कि उनके महान अध्यापक श्री ग्रान्ट साहब उनके निष्पक्ष उत्तर पर अप्रसन्न हो जाएंगे। किन्तु जब ग्रान्ट महोदय ने रानाडे को बुलाकर कहा कि युवक! तुम्हें उस अंग्रेजी सरकार की निन्दा नहीं करनी चाहिये जो तुम्हें शिक्षित बना रही है और तुम्हारे देश को उन्नत कर रही है। महादेव गोविन्द रानाडे को ग्रान्ट महोदय की नाराजगी का उतना दुःख नहीं हुआ जितना कि दुःख उन्हें यह देखकर हुआ कि जिन ग्रान्ट महोदय को वह एक निष्पक्ष, न्यायशील तथा विशाल हृदय का महामानव समझते थे, वे जातीयता के कारण इतने संकीर्ण तथा पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण के व्यक्ति निकले।

रानाडे ने अधिक कुछ न कहकर केवल इतना ही कहा कि-’मान्य महोदय! मैंने अंग्रेजों तथा मराठों के बीच किसी भेद बुद्धि रख कर प्रश्न का उत्तर नहीं लिखा, बल्कि जो वास्तविक सत्य था उसको ही प्रकट किया है।’ किन्तु ग्रान्ट महोदय अपने जातीय अभिमान में इतने बह गये कि उन्होंने रानाडे के न केवल अंक ही काट लिये बल्कि उनकी छात्रवृत्ति भी बन्द करा दी। उन्हें आशा थी कि रानाडे सुविधायें छिन जाने से परेशान होकर अपने उत्तर के लिये क्षमा माँगेगा। किन्तु ग्रान्ट महोदय का जातीय पक्षपात देखकर उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान शिला की तरह दृढ़ हो गया और उनमें देश के प्रति आकर्षण और भी सघन हो गया।

अपने अध्यवसाय के बल पर महादेव गोविन्द रानाडे ने विद्यार्थी जीवन से जिस विचार संपत्ति का संचय किया था उसे वे केवल अपने तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे बल्कि जनता में प्रचार करने की भावना रखते थे। उनकी दृष्टि में योग्यता पूर्ण विचारों का केवल एक ही उपयोग था और वह यह कि वे जन-साधारण में जाकर उनका मानसिक तथा बौद्धिक स्तर ऊँचा करें। आये हुये सद्विचारों को वे अधिक समय तक अपने मस्तिष्क में रोक रखना भी उचित नहीं समझते थे क्योंकि इससे एक तो जन-साधारण बहुत समय तक उनके लाभ से वंचित रहता है, दूसरे जब तक एक विचार क्रियात्मक रूप में नहीं बदलते तब तक दूसरे विचार मस्तिष्क में अवकाश नहीं पाते और यदि अन्य विचार आ भी जाते हैं तो उनसे एक ऐसी भीड़-भाड़ इकट्ठी हो जाती है जिससे एक बौद्धिक उलझन उत्पन्न होने लगती है, और तब मनुष्य का मस्तिष्क ठीक से काम करने में असमर्थ होने लगता है। इसलिये आवश्यक है कि मस्तिष्क में आये हुये सद्विचारों को तत्काल जन-साधारण में वितरित करके उनको क्रियात्मक रूप दे दें। निरन्तर प्रसारित होते रहने से विचारों में दिनों दिन तथ्यता तथा तेजस्विता का समावेश होता रहता है जिससे कि वे अपना प्रभाव डालने में सर्वथा समर्थ बन जाते हैं।

अपनी इन्हीं धारणाओं के आधार पर महादेव गोविन्द रानाडे ने विद्यार्थी काल ही में “इन्दुप्रकाश” नामक एक पत्र भी निकाला और जिसके अंग्रेजी विभाग के सम्पादन का उत्तरदायित्व स्वयं सँभाला। अपने इस पत्र का प्रकाशन श्री रानाडे ने इतनी लगन तथा परिश्रम से किया कि विद्यार्थियों का वह पत्र अच्छे-अच्छे सामयिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रशंसा पात्र बन गया।

कॉलेज छोड़ने के बाद बम्बई सरकार ने रानाडे को शिक्षा विभाग के अंतर्गत मराठी भाषा के अनुवादक के पद पर नियुक्त किया जहाँ पर वे अमौलिक कार्यक्रम होने के कारण शीघ्र ही ऊब गये। उनका ध्येय केवल जीविका उपार्जन नहीं विचार प्रसारण था। अनन्तर अनेक अन्य पदों पर होते हुये वे एलफिंस्टन कॉलेज में चार सौ रुपये मासिक पर प्रोफेसर हो गये। यहाँ उन्होंने योग्यता के प्रदर्शन का अवसर पाकर अपना सिक्का जमा दिया। जिस समय रानाडे कक्षा में भाषण दिया करते थे उस समय बड़े-बड़े अंग्रेज प्रोफेसर उनका भाषण सुनने और लाभ उठाने के लिये उनकी कक्षा में इकट्ठे हो जाते थे। जहाँ भी योग्यता का प्रकाश होगा जिज्ञासु पतंगों की तरह उसके चारों ओर इकट्ठे हो ही जायेंगे।

यद्यपि महादेव गोविन्द रानाडे अपने अध्यापक के पद पर पूर्ण रूप से संतुष्ट थे तथापि सरकार के अनुरोध पर वे बम्बई हाई कोर्ट के रिपोर्टर के पद पर चले गये और बहुत समय तक पुलिस मजिस्ट्रेट तथा सहायक जज का काम भी करते रहे। इस वृत्ति परिवर्तन में रानाडे का अन्य कोई उद्देश्य नहीं था, केवल यह विचार था कि वे उक्त उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर पहुँच कर भारतीय प्रतिभा का परिचय देने के साथ-साथ कानूनी भ्रष्टाचार को कम करने का प्रयत्न करें।

कानूनी क्षेत्र में पहुँचने पर उन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा पास की और सरकारी अनुरोध पर पूना के न्यायाधीश का पद संभाला। उक्त पद पर उन्होंने अपनी योग्यता का जो परिचय दिया उसके पुरस्कार स्वरूप सरकार ने उन्हें राय बहादुर की उपाधि दी। अनन्तर वे मातहत अदालतों के प्रधान जज, स्पेशल जज, बम्बई प्रेजीडेन्सी मजिस्ट्रेट, तथा सब जज आदि के पद पार करते हुये बम्बई हाईकोर्ट के जज के पद पर जा पहुँचे।

इन निरन्तर उन्नतियों में सरकार की कृपा कारण नहीं थी, बल्कि यह रानाडे की अपनी परिश्रमशीलता, न्यायप्रियता, तथा सच्ची कर्तव्यनिष्ठा की विशेषता थी जिसने कि सरकार को उन्हें उन्नत पद देने के लिये विवश कर दिया। वैसे साधारणतः अँग्रेज सरकार, राष्ट्रीय भावनाएँ, भारत-भक्ति तथा स्वदेशी आन्दोलन के समर्थक होने के कारण उनसे मन ही मन अप्रसन्न रहती थी, किन्तु स्पृहणीय योग्यता एवं अनुकरणीय कार्य कुशलता पहाड़ों के बीच भी अपना मार्ग बना कर विरोधियों की वज्र मुट्ठी से अपना अधिकार निकाल लेती है।

महादेव गोविन्द रानाडे ने बाल्य काल से ही जिस सरल आचरण का विकास एवं अभ्यास किया था, वह आजीवन उनका सबल सहायक तथा साथी बना रहा। यह उनके सरल आचरण तथा उदात्त चरित्र का ही चमत्कार था कि उस समय बम्बई हाईकोर्ट के न्यायाधीश करण के पद पर पहुँच कर भी वे इतने निरभिमान एवं निश्छल प्राण बने रहे कि एक बार प्रायः वायु सेवन से वापस आते समय एक बनिये ने उन्हें साधारण ब्राह्मण समझ कर कहा कि आज एकादशी है, महाराज! एक सीधा लेते जाइये। महान महादेव गोविन्द रानाडे के गम्भीर स्वाभिमान पर कोई धक्का न लगा और उन्होंने ठीक एक साधारण ब्राह्मण की तरह उस बनिये के दिये हुये आटा-दाल को अपने गमछे में बाँध कर उसे माँगलिक आशीर्वाद दिया।

बम्बई हाईकोर्ट के जज तथा उन्नीसवीं शताब्दी में लगभग ढाई हजार वेतन पाने वाले महादेव गोविन्द रानाडे की यह रोमाँचकारी सरलता देख कर किसका मस्तक श्रद्धा से न झुक जायेगा। किन्तु यही सार रूप वह गुण है जो किसी भी व्यक्ति को उन्नति के शिखर पर पहुँचा देता है, जो सरल हैं वह सुशील है और जो सुशील है वह चरित्रवान है और जो चरित्रवान है, उसका भाग्यवान होना निश्चित है। सरलता तथा सादगी मानव जीवन के वे सुभग सोपान हैं जिनकी दिशा में ही सफलता पूर्ण अभ्युदय निवास करता हैं।

महादेव गोविन्द रानाडे के पास काम की बहुतायत के कारण अधिक समय तो था नहीं अतएव उन्होंने बंगला अपने बंगाली हज्जाम से उस समय सीखना शुरू किया जिस समय वह उनकी हजामत करता होता था, यद्यपि उनकी पत्नी ने उन्हें उनके जज तथा फाइनेन्स कमेटी के मेम्बर होने की याद दिलाते हुये कहा कि आपको इस प्रकार नाई से पढ़ना शोभा नहीं देता। महादेव गोविन्द रानाडे ने पत्नी को केवल यही एक छोटा-सी उत्तर दिया कि कोई भी अच्छा गुण सीखने के लिये किसी भी स्थिति के व्यक्ति को गुरु का आदर दिये जाने में उच्चता ही है, निम्नता नहीं। गुण ऐसे मूल्यवान रत्न हैं जो किसी से भी प्राप्त किये जा सकते हैं। गुण ग्राहकता में जो अभिमान के वशीभूत रहते हैं, वे जीवन में कभी उन्नति नहीं कर सकते।

इसी प्रकार उन्होंने अनेक प्रसंगों में अपने पिता की सिफारिशों की अवहेलना करके अपनी अपूर्व न्यायशीलता का परिचय दिया।

अपने व्यक्तिगत गुणों का प्रदर्शन करने के साथ-साथ महादेव गोविन्द रानाडे ने समाज-सेवा के अनेक सराहनीय कार्य किये। उन्होंने आजीवन विधवा-विवाह का समर्थन तथा बाल-विवाह तथा अनमेल विवाह का विरोध किया तथा धार्मिक उदारता को प्रोत्साहित किया। भारतीय स्वतन्त्रता के प्रयत्नों को सक्रिय सहयोग दिया, स्त्री शिक्षा तथा अस्पृश्यता निवारण के वे एकान्त समर्थक थे। अपने इन्हीं महान गुणों तथा प्रयत्न के कारण वे अपने समय के एक महानतम व्यक्ति माने जाते हैं।

जिस समय 16 जनवरी 1901 को वे संसार से विदा हुये तो पूरे भारत ने शोक में अपना सारा कारोबार बंद रखा।

लौह पुरुष-

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