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Magazine - Year 1965 - Version 2

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इन विषम घड़ियों में हमारा प्रखर कर्तव्य

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भारतीय जनता के लिये यह अग्नि परीक्षा का समय है। स्वतन्त्रता प्राप्त करना जितना कठिन है, उससे भी कठिन उसकी रक्षा कर सकना है। पिछली पीढ़ी के गान्धी, तिलक, सुभाष, नेहरू, मालवीय आदि नेताओं ने स्वाधीनता संग्राम जीता। अब इस पीढ़ी पर उसकी रक्षा की जिम्मेदारी है। पिछली पीढ़ी ने कुछ भी साधन न होते हुये अपने बल-बूते उन दिनों के सबसे समर्थ राष्ट्र इंग्लैण्ड से लोह लिया था। अब हमारे पास बहुत साधन हैं, विदेशों की भी सहायता है, ऐसी दशा में चीन और पाकिस्तान से निपट सकना उतना कठिन नहीं होना चाहिये। स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये भौतिक साधनों की दृष्टि से हम समुचित समर्थ एवं सुविधा प्राप्त हैं, ऐसी दशा में पिछली पीढ़ी के स्वतन्त्रता सेनानियों की तरह इस पीढ़ी के राष्ट्र नेताओं को भी जीतना ही चाहिये।

सैन्य सज्जा की दृष्टि से देश अब उस स्थिति में पहुँचता जाता है जब कि वह आक्रमणकारियों को उनके ठिकानों तक खदेड़ कर अपनी प्रादेशिक अखण्डता एवं प्रभु रक्षा अक्षुण्ण बनाये रह सके। इस दिशा में सरकार तथा राजनेता आवश्यक प्रयत्न भी कर रहें हैं। इन प्रयत्नों का अच्छा परिणाम निकलेगा, यही आशा हमें करनी चाहिये।

इस संदर्भ में हमें मूल समस्या को आँखों से ओझल नहीं करना चाहिये। अब कोई राष्ट्र वहाँ के सरकारी साधनों के आधार पर समर्थ नहीं माना जाता। सरकार बदली और पलटी जाती रहती हैं। अन्तःराष्ट्रीय दबाव से सरकारों के आसन हिलते-डुलते भी रहते हैं। उतार-चढ़ाव के समय सरकारों के जीवन में आते और जाते रहते हैं। समर्थता का आधार वस्तुतः जनता का मनोबल एवं चरित्र होता है। उसके नीचे और ऊँचे होने के आधार पर किसी देश की शक्ति आँकी-नापी जाती है। यदि किसी राष्ट्र के प्रजाजन मानसिक और चारित्रिक दृष्टि से पिछड़े हुये हैं, तो उसे दुर्बल एवँ असमर्थ ही कहा जायगा। उसके भीतर न संगठन रहेगा और न शान्ति। विपत्ति की घड़ी में जब प्रजाजन अपनी चारित्रिक दुर्बलता के कारण असंतुलित हो उठेंगे तो बाह्य आक्रमणकारियों से निपटने की अपेक्षा आन्तरिक परिस्थितियों को संभालना और भी अधिक कठिन हो जाता है। इसके विपरीत यदि प्रजाजन देश भक्ति एवं राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों के प्रति निष्ठावान हैं तो वे न केवल आन्तरिक शान्ति व्यवस्था ही बनाये रहते हैँ वरन् अपने छोटे-छोटे साधनों को रक्षा कार्यों में लगाकर सरकार की शक्ति चौगुनी-सौगुनी बढ़ा देते हैं।

इन परिस्थितियों में कोई दुर्बल राष्ट्र भी किसी बड़े से बड़े संकट का सामना कर सकता है। जापान जैसा छोटा देश पिछले युद्ध में अमेरिका द्वारा परास्त किया गया था- तब उसे गुलाम जैसी स्थिति में भी पहुँचना पड़ा। पर कुछ ही वर्षों में उसने अपनी पूर्व स्थिति पुनः प्राप्त कर ली। परास्त जर्मनी दबाया, कुचला, खंडित एवं भेदित किया गया पर उसे पुनः उभर आने में देर न लगी। अब वह पुनः समर्थ राष्ट्रों की गणना में आ खड़ा हुआ है। परास्त जापान और जर्मनी को पुनः पूर्व स्थिति में पहुँचाने का श्रेय वहाँ की जनता के मनोबल एवं राष्ट्रीय चरित्र को है। रूस और चीन ने इतने थोड़े दिनों में इतनी गई गुजरी स्थिति से ऊपर उठकर जो अद्भुत क्षमता प्राप्त की है, उसके पीछे जनता का मनोबल ही काम कर रहा है।

प्रचुर शक्ति की आवश्यकता-

भारतीय राष्ट्र के सम्मुख आज की सबसे बड़ी आवश्यकता सर्वतोमुखी समर्थता प्राप्त करना है। आक्रमणकारियों के दाँत तोड़ने के लिए शक्ति चाहिये। सरकार इस कार्य को सैन्य मोर्चे तथा राजनैतिक मोर्चे पर किस कुशलता-पूर्वक करती है, यह उत्तरदायित्व राजनेताओं का है। जनता उसमें पूरा सहयोग करे यह आवश्यक है। देश-भक्त प्रजाजनों की तरह इस आपत्तिकाल में हमें सरकार की हर माँग को पूरा करना चाहिये। आन्तरिक शान्ति बनाये रहने से लेकर, उत्पादन बढ़ाने तक और धन से लेकर सर हथेली पर रखकर शत्रु से जूझने तक हर कार्य अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना चाहिये। पर साथ ही यह भी भूल न जाना चाहिये कि राष्ट्रीय शक्ति का अज्ञान स्रोत वस्तुतः जनता के मनोबल एवं चरित्रबल पर निर्भर रहता है। इसलिए इस दिशा में वैसा ही प्रयत्न होना चाहिये जैसा कि सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिये किया जाता है।

राजनैतिक एवं सैन्य मोर्चे की योजना एवं व्यवस्था वरिष्ठ नेता ही बना सकते हैं। पर जनता में समर्थता उत्पन्न करने के नागरिक मोर्चे पर हम में से हर कोई नेता, सेनापति या योद्धा की तरह पूरी छूट और तत्परता के साथ काम कर सकता है। इसमें किसी विशेष प्रशिक्षण, तैयारी या योग्यता की भी आवश्यकता नहीं हैं। जो व्यक्ति जहाँ हैं, जिस स्थिति में है, वहीं से अपने समीपवर्ती क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकता है। हर व्यक्ति में कुछ न कुछ सामर्थ्य होती है और यदि वह उसका एक अंश अपने से पिछड़े हुये लोगों को ऊँचा उठाने में लगाने के लिये तत्पर हो जाय तो उससे बहुत काम हो सकता है। तिनका-तिनका जमा होने से मजबूत रस्सी बन जाती है, बूँद-बूँद जोड़ने से घड़ा भर जाता है। रचनात्मक दिशा में किये गये छोटे-छोटे प्रयत्न भी यदि व्यवस्थित रीति से किये जाते रहें तो उनका प्रभाव, परिणाम, आशाजनक एवं उत्साहवर्धक हो सकता है।

किसी राष्ट्र की आन्तरिक शक्ति इस बात से आँकी जाती है कि, उसके प्रजाजन सामूहिक उत्कर्ष में कितनी रुचि लेते हैं, कितना ध्यान देते हैं और कितना त्याग करते हैं। देश भक्ति, पुण्य, परमार्थ, धर्म, अध्यात्म, महानता उत्कृष्टता की एक ही कसौटी है कि मनुष्य अपने व्यक्तिगत गोरखधन्धे में ही अपनी सारी शक्ति न लगा दे, वरन् निर्वाह क्रम को सीमित, संयमित करके अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक उपयोग सामूहिक उत्कर्ष के लिये समर्पित करता रहे। मनुष्य समाज का ऋणी है। सामाजिक सहयोग से ही उसे समस्त सुख साधन उपलब्ध हुए हैं। उस ऋण से उऋण होने के लिये सामूहिक उन्नति के कार्यों में हर व्यक्ति का भावनापूर्ण योगदान होना चाहिये। फिर मनुष्य की अन्तरात्मा में एक उत्कृष्टता की भावना भी रहती है। उसे पुष्ट एवं विकसित करने के लिये उसे परमार्थिक कार्यों में योगदान करना चाहिये। पुण्य और परमार्थ का एक ही माध्यम है- लोक सेवा। धर्म और अध्यात्म की एक ही कसौटी है-लोक कल्याण में अधिकाधिक योगदान। तपश्चर्या का प्रयोजन अपने आपको कष्टसाध्य जीवनयापन के लिये तैयार करना ही है ताकि अपनी सुविधायें न्यूनतम रखते हुये सामाजिक सुविधाओं के बढ़ाने में अधिकाधिक योगदान किया जा सके। ईश्वर भजन की साधना के मूल में एक ही तथ्य काम करता हैं कि-प्राणिमात्र में प्रभु की झाँकी करते हुए उन्हें सुखी एवं समुन्नत करने के लिये श्रद्धापूर्वक संलग्न होना। भक्ति शब्द का स्पष्ट अर्थ सेवा हैं। ‘भज सेवायाँ’ धातु से यही अर्थ निकलता है कि सेवा-संलग्नता का अर्थ ही भजन है।

भारतीय संस्कृति का आदर्श-

भारतीय संस्कृति एवं दर्शन का मूल यही आदर्श है कि व्यक्ति अपनी निजी इच्छाओं, आवश्यकताओं और सुविधाओं को जितना अधिक घटा सकता है, घटावे और लोक-कल्याण के लिये जितना अधिक त्याग कर सकता हो करे। जब तक इस देश के निवासी इन आदर्शों को यथार्थ रूप में समझते, अपनाते रहे, तब यह देश समर्थता एवं समृद्धि के उच्च शिखर पर व्यवस्थित बना रहा। अब जबकि वे आदर्श भुला दिये गये है, हम अधोगति के गर्त में दिन-दिन अधिक गहरे गिरते चले जा रहे हैं। राष्ट्रीय अशक्तता का एक ही चिह्न है कि उसके प्रजाजन अपनी वैयक्तिक सुख सुविधाओं, कामना, आकांक्षाओं, वासना, तृष्णाओं में निमग्न रहें, सामूहिक उत्कर्ष की उपेक्षा करें और जब लोक मंगल के कार्यों में कुछ त्याग करने का अवसर आवे तो बगलें झाँकने लगें। ऐसे लोग मनुष्य आकृति में रहते हुये भी वस्तुतः मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं। जिसका लक्ष्य संकीर्ण स्वार्थपरता तक ही अवरुद्ध है, जो लोक मंगल की ओर ध्यान देने की उपयोगिता एवं आवश्यकता नहीं समझता, उसे निकृष्ट कोटि का घृणित प्राणी ही कहना चाहिये। ऐसे घृणित प्राणी जिस देश में भरे पड़े हों, उसमें दुर्बलता का ही साम्राज्य रहेगा, और कोई बाहरी शत्रु उसे नहीं भी छेड़े तो भी आन्तरिक दुर्बलता एवं विकृतियाँ उसे दुख दारिद्र में, क्लेश द्वेष में, दुर्गति में ही पटक कर सदा जलाकर नष्ट करती रहेगी।

हमें अपने देश के हर नागरिक में राष्ट्रीयता, देशभक्ति, समाजनिष्ठा, एवं लोक-सेवा की भावनायें उत्पन्न करनी चाहिये। इन्हीं भावनाओं का शास्त्रीय नाम धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता है। विडम्बनाओं से भरे आलसी, हरामी, स्वार्थी एवं अहंकारी लोगों को छुटपुट धार्मिक कर्मकाण्ड करते रहने के कारण किसी ने धार्मिक या अध्यात्मवादी भले ही घोषित कर दिया हो, वास्तविकता ऐसी ही नहीं। जिसकी आत्मा में धर्म या अध्यात्म का एक कण भी विद्यमान होगा, वह लोक- मंगल की भावनाओं में ओत-प्रोत हुये बिना, उस दिशा में कुछ त्याग बलिदान किये बिना रह ही नहीं सकता। जप और ध्यान आवश्यक हैं, पर यह भूलना न चाहिये कि जो इन साधनाओं का तत्व-ज्ञान समझ सका होगा उसके लिये लोक सेवा ईश्वर भक्ति का सर्वोपरि माध्यम बनी हुई होगी। जिसके पत्थर जैसे मन में इस प्रकार की भावनायें नहीं उठतीं, समझना चाहिये कि उस ऊसर में अध्यात्म का अमृत जल बरसा ही नहीं। जप ध्यान के बहाने वह कुछ ताना-बाना जरूर बुन रहा है पर है वह क्रिया कृत्य माक्ष ही और क्रियाकृत्य का तब तक कोई मूल्य नहीं जब तक उसके पीछे भावनाओं का उभार न हो। देवताओं को लूट लेने के लिये मन्त्र-तन्त्र की रिश्वत से काम चलाने की बात सोचते रहने वाले लोग अध्यात्मवादी नहीं हो सकते। यह त्यागी और बलिदानियों का मार्ग है- लुटेरों का नहीं। जो ईश्वर की बात सोचेगा उसे भौतिक कामनाओं के जंजाल से मुक्त होकर ईश्वर की इच्छा एवं आज्ञानुवर्ती बनकर अपने आपको लोक मंगल के लिये समर्पित करने की भावना उत्पन्न करनी ही पड़ेगी। ईश्वर की प्रसन्नता एवं समीपता इस प्रकार की आन्तरिक उत्कृष्टता के आधार पर ही संभव होती रही है। अब भी और आगे भी इसका एक मात्र मार्ग यही रहेगा।

उत्कृष्टता की भावनाओं का अभिवर्धन-

वर्तमान राष्ट्रीय संकट की घड़ी में इन मानवीय उत्कृष्टता की भावनाओं का अभिवर्धन आवश्यक है क्योंकि वास्तविक शक्ति और समर्थता इन्हीं से उत्पन्न होगी भावनाओं का बाहुल्य होता है तो क्रिया सहज ही तदनुरूप होने लगती है। भावनाओं का अभाव हो तो यदि वैसा कुछ काम भी किया जाय तो वह लँगड़ा, लूला-दिखावट बनकर रह जाता है। जिनमें आदर्शवादिता की जड़ें अन्तरात्मा तक नहीं गई हैं, वे यश, कीर्ति या कोई परोक्ष लाभ उठाने की घात में लोकहित के काम करते रहते हैं, जब वह लाभ नहीं मिलता तो उसे छोड़कर अलग हो जाते हैं, इतना ही नहीं खीजवश उस क्रिया कलाप को बिगाड़ने भी लगते हैं। इसके विपरीत यदि आदर्शवादी आस्था सुदृढ़ हो तो व्यक्ति जहाँ भी जिस किसी परिस्थिति में रहेगा परमार्थिक मार्थिक आदर्शों की पूर्ति के लिये अपनी सामर्थ्यानुसार कुछ न कुछ करता ही रहेगा।

आज आवश्यकता इसी बात की है। देश में जिस बात की सबसे अधिक न्यूनता है, उसकी पूर्ति में हम लग जायँ। देशभक्ति मौखिक चर्चा का विचार न रहकर हमारे जीवन का लक्ष्य बने तभी काम चलेगा। आध्यात्मिकता के आदर्श को देश, धर्म, समाज, संस्कृति के क्षेत्रों में कार्यान्वित कर लगें तो उसे देशभक्ति, लोक सेवा या विश्व कल्याण किसी भी नाम से पुकारा जाय बात एक ही है। यह तत्व जब हमारे अन्तःकरणों में बढ़ता पनपता जायगा तब वह शक्ति उत्पन्न होगी जिससे वर्तमान आक्रमणकारियों को परास्त करने तक ही हमारी सफलता सीमित न रहेगी वरन् उस लक्ष्य तक भी पहुँचा देगी जिस पर पहुँच कर भारत किसी समय जगद्गुरु एवं विश्व शिरोमणि बना हुआ था।

अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों को इस दिशा में पहल करनी होगी। आज के सुरक्षात्मक कार्यों में हम किसी से पीछे न रहें। धन, रक्त, समय, श्रम एवं प्राण देने के लिये हम अपनी परिस्थिति के अनुसार समय की आवश्यकता पूरी करें। साथ ही यह भी संकल्प करें। कि देश को चिरस्थायी रूप से समर्थ, सबल, समृद्ध एवं सुसंस्कृत बनाना है। यह उद्देश्य रचनात्मक कार्यक्रमों के अपनाने से ही संभव होगी। कथनी छोड़कर अब हमें करनी के लिये उतारू होना चाहिये। अपने समय और धन का अधिकाधिक अंश हमें रचनात्मक कार्यों के लिये नियोजित करना चाहिये। दूसरों को उपदेश देने के साथ-साथ, अपने को पहला उपदेश दें, और अन्तरात्मा को साक्षी देकर यह सोचें कि राष्ट्र को सशक्त बनाने के लिये हम जितना त्याग कर सकते थे उतना करते हैं या नहीं? यदि नहीं, तो अपने को धिक्कारना चाहिये और इस अभाव की पूर्ति के लिये आज ही कटिबद्ध हो जाना चाहिये। सोचते, कहते और पढ़ते रहने भर से प्रयोजन सिद्ध न होगा। हमें कुछ काम करना चाहिये। इस जौहर की घड़ी में असंख्यों व्यक्ति एक से एक बड़ा बलिदान करके आत्मा और परमात्मा के सामने, देश और संसार के सामने अपना मस्तक गर्व से ऊँचा कर रहे हैं तब क्या हमारे लिये यह उचित न होगा कि हम भी कुछ करें और अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता का प्रमाण अपने कार्यों द्वारा प्रस्तुत करें। अब बातों का जमाना गया, काम का आ गया। आज हर व्यक्ति उसके कार्यों से ही परखा जा रहा हैं। हमें भी कर्मवीर ही होना चाहिये।

जन-जागरण की आवश्यकता-

जन-जागरण का नागरिक मोर्चा, सैन्य मोर्चे से कम महत्वपूर्ण नहीं। युद्ध बन्द होने पर- सैन्य सज्जा का महत्व कम भी हो सकता है पर नागरिक मोर्चे की उपयोगिता, आवश्यकता दिन-दूनी, रात चौगुनी बढ़ती रहेगी। भारतीय समाज बहुत पिछड़ा हुआ है। उसका उत्कर्ष भावनात्मक उत्कृष्टता बढ़ाने से ही संभव होगा। इसलिये हमें ऐसे रचनात्मक कार्यों में लगना चाहिये जिनसे जन-साधारण को देशभक्ति के आदर्शों को समझने में ही नहीं, कार्यान्वित करने का भी अवसर मिले। लोग उदार, सच्चरित्र, विवेकवान और आदर्शवादी बनें इसके लिये लेखनी और वाणी से उन्हें हर संभव प्रेरणा देनी चाहिये। साथ ही जो इस आवश्यकता को अनुभव करें, सहमत हों, उन्हें ऐसे कार्यों में लगाना चाहिये जो लोक मंगल के लिये आवश्यक हैं। समय, श्रम और धन का एक अंश जब लोग किसी कार्य में लगाते हैं तभी उनकी भावनायें बढ़ती और परिपक्व होती हैं। विचारों का मूल्य तभी है जब वे कर्म रूप से परिणत हों। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों को स्वयं तो नव निर्माण के रचनात्मक कार्यों में लगना ही चाहिये साथ ही अपने संपर्क के प्रभाव क्षेत्र- के दूसरे लोगों को भी उनमें लगाना चाहिये।

युग निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रमों का निर्धारण इसी प्रयोजन के लिये है कि हर व्यक्ति अपनी स्थिति के अनुरूप नव निर्माण के लिये कुछ न कुछ कर सके। यह कार्य सामूहिक संगठित रूप में हों तो उनका मूल्य महत्व एवं परिणाम और भी अधिक होता है। इसलिये प्रयास यह होना चाहिये कि हर जगह एक छोटा संगठन बनावें उसे परिपुष्ट करें और उसके द्वारा रचनात्मक कार्यों का किसी न किसी रूप में समारंभ कर दें।

अग्नि परीक्षा की इन घड़ियों में हमें अपनी उत्कृष्टता सिद्ध करनी है। स्वाधीनता की रक्षा कर सकने की अपनी पात्रता को प्रमाणित करना है और यह कार्य अकेले सैन्य मोर्चे पर ही नहीं, नागरिक मोर्चे पर भी सम्पन्न किया जाना है। जन-साधारण में देश भक्ति की-लोक मंगल की-भावनाएं जागें और जन जागरण के प्रमाणस्वरूप वे कुछ क्रियात्मक कदम उठावें तो उज्ज्वल भविष्य की आशा बँधेगी। इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया की पूर्ति के लिये हमें आज से ही तत्पर होना चाहिये। खरे-खोटे की इस परीक्षा घड़ी में हमें खोटा नहीं खरा सिद्ध होना चाहिये।

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