
जन-जागरण एक आवश्यक धर्म-कर्त्तव्य
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मनुष्य की सबलता, दुर्बलता उसकी भावनाओं पर निर्भर रहती है। महापुरुष और दीन-हीनों में शारीरिक दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं होता, अन्तर केवल भावनाओं का ही रहता है। जिसकी भावनाएँ उत्कृष्ट हैं, उसे नर-नारायण या पुरुष पुरुषोत्तम ही कहना चाहिये।
पिछले हजार वर्ष में हमारे निरन्तर हुये अधःपतन का एक मात्र कारण भावनास्तर का गिर जाना ही है। लोग व्यक्तिगत स्वार्थ में इतने निमग्न हुये कि उन्हें सामूहिक उत्कर्ष एवं सामाजिक विकास के उत्तरदायित्वों का स्मरण ही न रहा। व्यक्तिवाद की संकीर्णता चरम सीमा तक पहुँच जाने पर इंसान अपना स्तर खो बैठता है और हैवान-शैतान बन जाता है। आज लोगों की मनोभूमि पर स्वार्थपरता, संकीर्णता एवं विवेकहीनता का ग्रहण लगा हुआ है। फलस्वरूप नैतिकता का स्तर गिरने से अपराध बढ़ रहे हैं और विवेक हीनता के कारण उत्पन्न हुई सामाजिक कुरीतियों ने हमें खोखला बना दिया है। चरित्र और विवेक घट जाने से राष्ट्रीय दुर्बलता उत्पन्न होती है और उससे शत्रुओं को घात लगाने का अवसर मिलता है। हमें भी इन्हीं कारणों से विपत्ति में पड़ना पड़ा है।
भारतीय समाज के जन-मानस में क्रान्तिकारी सुधार एवं परिवर्तन आवश्यक है। विचारों को पलट देने से ही जमाना बदलता है। युगनिर्माण के जिस महान् अभियान को पूर्ण करने के लिए हम कटिबद्ध हुए हैं, उसका प्रधान आधार लोक-मानस में आदर्शवादी परिवर्तन उत्पन्न करना ही है। विचार क्राँति के बिना, राजनैतिक एवं आर्थिक क्रान्तियाँ अधूरी ही मानी जायेगी। अखण्ड-ज्योति परिवार के हर सदस्य को विचार-क्रान्ति के अग्रदूत-युग निर्माता की भूमिका अदा करनी चाहिए। उसे अपना यह एक धर्म-कर्तव्य मान लेना चाहिए कि वह अपने निज के, अपने परिवार के तथा सम्बन्धित व्यक्तियों के विचारों में विवेकशीलता एवं उत्कृष्टता उत्पन्न करने के लिए कुछ न कुछ कार्य नित्य, निरन्तर, नियमित रूप से करता रहेगा। वैयक्तिक उद्देश्य से जिनके साथ संपर्क बनाया जाय उन सबको सामान्य वार्तालाप के बीच ही सुधारात्मक विचारधारा का प्रकाश देना चाहिए। जिस प्रकार खाद्य पदार्थों में नमक या शकर मिला कर वे स्वादिष्ट बनाए जाते हैं, उसी प्रकार हमारा वार्तालाप, व्यवहार, कार्यकलाप किसी के साथ भी-किसी भी प्रयोजन से क्यों न हो, उसमें कुछ न कुछ पुट ऐसा अवश्य होना चाहिए जिससे घटिया स्तर के विचारों से विरत होकर उन्हें ऊँचे स्तर पर विचार करने की प्रेरणा मिले। स्वार्थपरता, संकीर्णता, अनैतिकता एवं मूढ़ता से लोक-मानस को मुक्त कराया ही जाना चाहिए और उसके लिए प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति को अपने संपर्क क्षेत्र में निरन्तर कार्य करना चाहिए।
हम में से अधिकांश व्यक्ति एक आना प्रतिदिन जन-जागरण के लिए लगाते रहने की प्रतिज्ञा ले चुके हैं। इस पैसे से युग निर्माण के उपयुक्त प्रेरणाप्रद साहित्य खरीदते रहना चाहिए और उसे जितने अधिक लोगों को पढ़ाया-सुनाया जाना सम्भव हो सके-उसका प्रयास करना चाहिए। नव-निर्माण की उपयुक्त विचारधारा अपने भीतर विकसित करने के लिए हमें प्रेरणाप्रद साहित्य का अध्ययन-आहार, स्नान की भाँति ही अनिवार्य आवश्यकता मानना चाहिए। परिवार के लोगों को प्रतिदिन एक घण्टा कथा, कहानी जीवन चरित्र, समाचार एवं घटनाक्रम सुना कर उसके मनोरंजन के अतिरिक्त विचार-निर्माण भी करना चाहिए। मित्र, परिचितों और सम्बन्धियों में से एक भी ऐसा न बचे, जिसे युग-निर्माण साहित्य पढ़ने-सुनने के लिए सहमत न कर लिया हो। जन-जागरण की दृष्टि से यह प्रयास नितान्त आवश्यक है। इन्हें हम दैनिक जीवन में अनिवार्य धर्म-कर्तव्य की तरह सम्मिलित कर लें, तो राष्ट्र की वास्तविक बल-वृद्धि होगी और हम भावनात्मक स्तर पर इतने समर्थ हो जायेंगे कि कोई शत्रु कभी भी आँख उठा कर हमारी ओर न देख सके।