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Magazine - Year 1968 - Version 2

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आत्मा का अस्तित्व-अमान्य न किया जाय

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आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म, दृष्टा, चेता, विचार रूप, प्रसन्नता स्वरूप है, ऐसी भारतीय दर्शन की मान्यता है। पर स्थूल दृष्टि से दिखाई न देने के कारण आजकल के पढ़े लिखे लोग और भौतिकवादी प्रतिपादनों से प्रभावित व्यक्ति उसके अस्तित्व को नहीं मानते और न उसे प्राप्त करने की, जानने की उत्कंठा उन्हें होती है। अनात्म मान्यता ने इस विश्व का इतना अहित किया है, जितना कई विश्व युद्ध मिलकर भी नहीं कर सकते। क्योंकि उससे तो जीवन की सम्पूर्ण दिशायें ही उलट जाती हैं, स्वार्थ, दम्भ, अहंकार, छल-कपट यह वर्तमान अस्त्र-शस्त्रों की अपेक्षा मनुष्य समाज का अधिक दुःख देकर नाश करते हैं।

एक बार राजा बृहद्रथ को ऐसा अनुभव हुआ कि शरीर नाशवान् है इसलिये उन्हें वैराग्य हो गया। राज्य का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र को देकर वे वन चले गये। वहाँ उन्होंने उग्र तपश्चर्या की। कई वर्षों तक उन्होंने भगवान् सूर्यदेव की उपासना की। उनके तप से प्रसन्न होकर एक दिन शकामन्य नाम के महामुनि उनके पास आये। उन्होंने बृहद्रथ के तप की प्रशंसा की और कहा- “वत्स! तेरी जो इच्छा हो मुझसे कह।”

बृहद्रथ ने कहा- ‘‘देव! आप आत्म-तत्व ज्ञाता और आत्म-वेत्ता हैं, मुझे आत्मा का बोध कराइये।” महामुनि शकामन्य ने मुस्कराते हुए कह- ‘‘तात! यह बड़ा दुस्तर और कठिनाई से समझ में आने वाला विज्ञान है, इसलिये तुम उसकी अपेक्षा कोई और वर माँग लो।”

बृहद्रथ कहते है- ‘‘हे भगवन् समुद्र सूख जाते हैं, कल तक जहाँ पर्वत खड़े थे, वही आज मैदान हैं, वृक्ष गिर जाते हैं पृथ्वी डूब जाती है ध्रुव जो स्थिर है, उसे भी एक दिन गतिशील होना पड़ता है, ऐसे परिवर्तनशील और नाशवान संसार में विषय-भोगों से क्या लाभ? मैं अमरत्व और शाश्वत शाँति की कामना से प्रार्थना करता हूँ कि आप कृपा कर मुझे आत्म-विद्या का ही उपदेश दीजिये।”

बृहद्रथ की प्रगाढ़ जिज्ञासा देखकर शकामन्य ने उन्हें आत्मा के यथार्थ स्वरूप ज्ञान कराया। मैत्रेय्युपनिषत् में उसकी विस्तृत व्याख्या की गई है। वहाँ पर महामुनि ने एक स्थान पर कहा है, “मैं ज्ञान रूप हूँ, मैं विचार रूप हूँ, परम् और शाश्वत मैं ही हूँ।”

उपरोक्त विशेषणों के माध्यम से आत्मा के अस्तित्व को आसानी से अनुभव किया जा सकता है। अचेतन अवस्था में भी इन्द्रियातीत ज्ञान की अनुभूति और विचार की योग्यता उस सूक्ष्म-सत्ता का प्रमाण नहीं तो और क्या हो सकता है?

सर्वप्रथम उन बच्चों का इतिहास लेते हैं, जो सामान्य परिस्थितियों में ही जन्म धारण करते हैं, किन्तु उनकी बौद्धिक प्रतिभा ऐसी विलक्षण होती है, जो इस जीवन का विकास कदापि नहीं मानी जा सकती। मोजार्ते सात वर्ष का था, त वह विद्यालय में मुश्किल से पहली कक्षा के सबक याद कर पाया था, पर संगीत में उसने अनेक नई रचनायें कीं, जिन्हें देखकर लोग कहा करते थे कि मोजार्ते पूर्वजन्म का कोई निपुण संगीत साधक रहा है, वह ज्ञान उसे विस्मृत नहीं हुआ। जन्म के बाद तो उसने उन्हें सीखा नहीं वरन् विकास किया है। हर व्यक्ति के जीवन की एक मुख्य दिशा होती है, वह इस जन्म में भी वेगवान रहती है तो उससे आत्मा की शाश्वत विकास प्रक्रिया की ही बात पुष्ट होती है।

यह बात तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि मनुष्य का शरीर कोशिकाओं से बना है। यह कोशिकायें प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित अणुओं से बना होता है, यदि प्रोटोप्लाज्म को भी खण्डित किया जाय, जो जीवन पदार्थ का अन्तिम टुकड़ा होती है और जिसमें चेतना का स्पन्दन होता है, तो उसके भी साइटोप्लाज्म और न्यूक्लियस नामक दो खण्ड हो जाते हैं। साइटोप्लाज्म कोशिका से काट देने पर मृत हो जाता है पर न्यूक्लियस अर्थात् नाभिक अपनी सत्ता को पुनः विकसित कर लेने की क्षमता रखता है। इस नाभिक के बारे में विज्ञान अभी कोई अन्तिम निर्णय नहीं कर सका यहाँ से भारतीय तत्व-ज्ञान प्रारम्भ हो जाता है।

शास्त्र कहता है “अणोरणीयान् महतोमहीयान्” अर्थात् यह आत्मा छोटे से भी छोटा और इतना विराट् है कि उसमें समग्र सृष्टि नप जाती है। अणु के अन्दर समाविष्ट आत्मा की सत्यता का प्रमाण यही है कि जब वह पुनः किसी प्राणधारी के दृश्य रूप में विकसित होता है तो अपने सूक्ष्म (नाभिक शरीर) के ज्ञान की दिशा में बढ़ने लगता है। इसी बात को गीता में भगवान कृष्ण ने इस प्रकार कहा है-

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभंते पौर्वदेहिकम्। यतते च ततो भूपः संसिद्धौ कुरुनंदन॥

अर्थात्- आत्मा पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि संयोग को अर्थात् समत्व बुद्धि-योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और तब हे अर्जुन! उस संस्कार के प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्ति रूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।

200 पूर्व जर्मनी में हानरिस हानेन्केन का जन्म हुआ यह बालक तीन वर्ष का था तभी उसने जोड़, बाकी, गुणा भाग लगाना और हजारों लैटिन मुहावरे सीख लिये थे। इसी अवस्था से उसने फ्रेंच भाषा और भूगोल का अच्छा ज्ञान प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया था। इस विलक्षण प्रतिभा का कारण वैज्ञानिक नहीं जान पाये।

इसी तरह साइबरनेटिक्स के रचनाकार वीनर ने पाँच वर्ष की आयु में ही विज्ञान में रुचि लेनी प्रारम्भ कर दी थी, वह अठारह वर्ष के लड़को के साथ विज्ञान पढ़ता था। चौदह वर्ष की अत्यल्प आयु में वीनर ने विज्ञान की उपाधि प्राप्त कर ली। गेटे नौ वर्ष की आयु में कवितायें लिखने लगा था, जो आज बी. ए. और एम. ए. की कक्षाओं में पढ़ाई जाती हैं, वायरन, स्काट और डार्विन ऐसे ही विलक्षण बौद्धिक क्षमता वाले बच्चे थे। पास्काल ने पन्द्रह वर्ष की आयु में ही विज्ञान सम्बन्धी रचना प्रकाशित कर दी थी, जिसमें उसने सौ से भी अधिक नये प्रमेय सिद्ध कर दिये थे।

ऐसी विलक्षण और आध्यात्मिक प्रतिभा सम्पन्न बच्चों के उदाहरण भारतवर्ष में सर्वाधिक विद्यमान है। उन सब में विलक्षण चित्रकूट से दस मील दूर जलालपुर नामक ग्राम में एक धर्म-प्राण ब्राह्मण परिवार में जन्मी बालिका है। उसका नाम है, सरोजबाला। पिता का नाम पं. श्याम सुन्दर जी, इन दिनों सूरत में कार्य करते हैं। इस बालिका के दो व्यक्तित्व हैं- एक तो साधारण बालिका और दूसरा अत्यन्त विद्वान और प्रतिभा सम्पन्न बालिका का। जब तक वह घर में रहती, वह बालकों की सी चपलता, उछल-कूद, आमोद-प्रमोद किन्तु जैसे ही वह सभा-मंच पर पहुँचती है गीता, रामायण, महाभारत, वेदान्त, मनुस्मृति, योग और भक्ति के समन्वय से ऐसे धारा प्रवाह प्रवचन करती है कि सुनने वाले मंत्र-मुग्ध हो जाते हैं। सरोजबाला तीन वर्ष की थी, तभी से अपने को राजस्थान के एक ब्राह्मण परिवार में स्व. डा. राजेन्द्र प्रसाद (उस समय के राष्ट्रपति ) के समक्ष कानपुर में उसने प्रवचन किया था, जिसको सुनकर वे बहुत प्रभावित हुए थे। अगले वर्ष से ही वह नियमित रूप से सार्वजनिक समारोहों में प्रवचन करने लगी थी। उसके असीम ज्ञान, शुद्ध उच्चारण, प्रतिभापूर्ण शैली और भावभंगिमाओं को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि यह ज्ञान इसी जीवन का विकास है।

किन्तु अब तक हुई घटनायें और अन्वेषण भी उस अस्तित्व के कम प्रमाण नहीं हैं। इटली की विश्व प्रसिद्ध नायिका जूलियट की मृत्यु के बाद भी उसके पास आने वाले हजारों पत्रों के उत्तर लोगों के पास पहुंचते रहे। जिनके पास पत्र पहुँचे उनके पत्र पूर्व पत्रों की बिल्कुल संगति में थे। कई में पूर्व पत्रों का उल्लेख भी होता था। यह कहानी भी बड़ी विचित्र है। कहते हैं, जूलियट की जहाँ समाधि थी वहीं पर दो लैटर बक्स टाँगे गये थे, एक में पत्र आते थे, दूसरे में डाले जाते थे, जिन्हें डाकिया नियमित रूप से ले जाता था, पत्र यद्यपि समाधि का रक्षक इटोरे सोलोमिनी लिखता था पर वह जो कुछ लिखता था, स्वयं भी नहीं जानता था। वह सारी बातें उसे निद्रावस्था में मालूम होती थी। वह बताता था कि जूलियट की आत्मा आती है और प्रत्येक पत्र का उत्तर उसे बता देती है। वह तो केवल लेखक मात्र है, बताने वाली जूलियट होती थी। इटोरे की मृत्यु के साथ ही यह क्रम भी टूट गया।

अमरीका के डाक्टर पेनफील्ड ने एक बार एक प्रयोग किया। उन्होंने एक अफ्रीकी युवक के मस्तिष्क के सेल में इलेक्ट्रोड से विद्युत-प्रवाह दिया। वह युवक अचेतन-सा हो गया। जब दुबारा होश आया उसने वहाँ की सब वस्तुयें देखीं और सबसे बात-चीत भी कीं। उसने अपने भाइयों से बात-चीत का ब्योरा भी दिया और जब उसके द्वारा बताये गये व्यक्तियों, स्थानों तथा घटनाओं का पता लगाया गया तो उसके बताये गये तमाम दृश्य और संवाद अक्षरशः सत्य पाये गये।

मैडम डी. माइगोलन हालैण्ड सरकार की ओर से स्वीडन में राजदूत की धर्मपत्नी थीं। उनके पति को अपने देश के एक महाजन को 25 हजार पौंड का ऋण भुगतान करना था, सो उन्होंने कर भी दिया और उसकी रसीद किसी सुरक्षित स्थान में रख दी। यह बात माइगोलन को मालूम थी कि ऋण चुका दिया गया है किन्तु रसीद की उन्होंने कोई परवाह नहीं की। इसी बीच पति की मृत्यु हो गई। उसके कुछ दिन बाद वह महाजन आया और उसने श्रीमती माइगोलन से 25 हजार पौंड का ऋण भुगतान करने को कहा। वह जानती थीं कि ऋण दे दिया गया है किन्तु रसीद न होने के कारण वे कोई पुष्ट प्रमाण न दे सकीं। तब यह लगभग निश्चित-सा हो गया कि भुगतान करना ही पड़ेगा। माइगोलन की बात किसी ने नहीं मानी।

एक सप्ताह बाद माइगोलन सो रही थीं, तब उन्हें ऐसा लगा जैसे पति की आत्मा उनके पास आई हो और बताया हो कि रसीद अमुक स्थान पर रखी है। ठीक उसी समय नींद टूट गई। माइगोलन ने उस स्थान में जाकर देखा तो रसीद सुरक्षित रखी थी। आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है?

यह सब आत्मा की परावाणी के अंतर्गत घटित घटनायें हैं, इसलिये उन पर शंका की जा सकती है। पर अब वैज्ञानिक यन्त्रों से भी आत्मा के अस्तित्व की बात सिद्ध होने लगी है और लोग यह मानने लगे हैं कि वह कोई अत्यन्त सूक्ष्म चेतन तत्व है। भौतिक विज्ञान के जानने वाले लोगों को पता होगा कि मस्तिष्क असंख्य सेल्स की सक्रियता को कहते हैं, प्रत्येक सेल में विशिष्ट प्रकार की विद्युत-शक्ति का प्रवाह होता रहता है, यह विद्युत उत्पत्ति सोडियम और पोटैशियम के आयतों के उलट-पुलट के कारण होती है। देखना, विचार करना आदि इन्हीं विद्युत तरंगों के कारण होता है। लीग फार स्प्रिचुअल डिस्कवरी के अमरीकी वैज्ञानिकों ने इसी आधार पर एक प्लास्टिक की आँख बनाई है, इसमें ऐसी प्रकाश व्यवस्था की गई है कि वह दर्शक को घूरने लगती है। फिर उसके प्रकाश को यन्त्रों के माध्यम से इस क्रम को मन्द या तीव्र किया जाता है कि दर्शक के विचार अस्त-व्यस्त हो जाते हैं और मस्तिष्क के सेल्स शिथिल पड़ जाते हैं और वह सम्मोहित हो जाता है।

इन्होंने कुण्डलिनी को भी ज्योति किरणों का रूप प्रदान करने की चेष्टा की है। इससे भी साधकों को ध्यानावस्था में तुरन्त चले जाने की सुविधा मिली है। इस अवस्था में मन अचेतन हो जाता है पर एक चेतन तत्व तब भी काम करता है। उसकी अनुभूतियाँ और ज्ञान कई बार इतने सत्य पाये गये हैं कि उन्हें विश्वास हो गया है कि आत्मा कोई अदृश्य जीवन सत्ता है, जीव की जब मृत्यु होती है तो वह उसी में परिणत हो जाता है, उसका नाश नहीं होता वरन् यह क्रम अनादिकाल तक चलता रहता है।

इतने उद्धरण और विवेचन से स्पष्ट ही महामुनि शकामन्य का वह आत्म-विश्लेषण सत्य सिद्ध हो जाता है, जिसे पाकर राजा बृहद्रथ धन्य हो गये और उन्होंने इस जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया।

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