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Magazine - Year 1968 - Version 2

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परमात्मा की प्राप्ति सच्चे प्रेम द्वारा ही सम्भव है

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पूजा, पाठ, जप, ध्यान, अनुष्ठान आदि जो भी क्रियायें की जाती हैं, उनका मूल उद्देश्य परमात्मा के प्रति अपनी निष्ठा को गहरा करना होता है। ज्यों-ज्यों निष्ठा गहरी होती जाती है, त्यों-त्यों परमात्मा के प्रति प्रेम भाव बढ़ता जाता है। यही प्रेम भाव धीरे-धीरे परिपक्व होकर भक्ति का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार उपासना का मूल तात्पर्य ईश्वर के प्रति प्रेम का विकास करना ही है।

परमात्मा के प्रति विकसित प्रेम जब अपनी चरमावधि में पहुँचता है, तब वह केवल परमात्मा तक ही सीमित नहीं रहता। वह विश्व रूप परमात्मा तक फैल जाता है। सच्चे भक्त और परमात्मा के सच्चे प्रेमी की पहचान यही है कि उसका प्रेम-भाव संसार के सारे जीवों के प्रति प्रवाहित होता रहता है। कोई व्यक्ति कितनी ही पूजा और ध्यान, जप आदि क्यों न करता हो, पर उसका प्रेम भाव संकुचित हो, उसका प्रसार प्राणि मात्र तक न हुआ हो तो उसे भक्त नहीं माना जा सकता।

भगवान् का भक्त, परमात्मा को प्रेम करने वाला अपनी आत्मा और समाज के नैतिक नियमों को भी प्यार करता है। कारण यह होता है कि नैतिक नियमों में आदर्शवाद का समन्वय होता है और आदर्शवाद का ही एक व्यावहारिक रूप होता है। अध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा और आत्मा का परमात्मा से होता है। संसार से परमात्मा की और उन्मुख होने का यह एक क्रम है। भगवान का भक्त इस पावन क्रम से विमुख नहीं हो सकता, जो परमात्मा को प्रेम करेगा वह उससे सम्बन्धित इस क्रम में भी प्रेम-भाव रखेगा।

जिसने आदर्शवाद को प्रेम करना सीख लिया उसने मानो परमात्मा को पाने का सूत्र पकड़ लिया। परमात्मा के मिलन में अपार आनन्द होता है। लेकिन उसकी ओर ले आने वाले इस क्रम में भी कम आनन्द नहीं होता। जो आत्मा द्वारा स्वीकृत समाज के नैतिक नियमों का पालन करता रहता है, आदर्शवाद का व्यवहार करता है, वह समाज की दृष्टि में ऊँचा उठ जाता है। समाज उससे प्रेम करने लगता है। ऐसे भाग्यवान व्यक्ति जहाँ रहते हैं उसके आस पास का वातावरण स्वर्गीय भावों से भरा रहता है। कटुता और कलुष का उसके समीप कोई स्थान नहीं होता। जिस प्रकार का निर्विघ्न और निर्विरोध आनन्द परमात्मा के मिलन से मिलता है, उसी प्रकार का आनंद आदर्शवाद के निर्वाह में प्राप्त होता है।

स्वर्ग की उपलब्धि किसी लोक विशेष की उपलब्धि नहीं है। वह अनुकूल और पावन परिस्थितियों का एक धार्मिक नाम है। जहाँ सुन्दर, सुखदायक और कर्त्तव्यपूर्ण परिस्थितियाँ होंगी, वह स्वर्ग ही माना जायेगा। ईश्वर के सच्चे भक्त में प्रेम की जो पावन धारा बहती रहती है, उसके आधार पर उसके चारों ओर की परिस्थितियाँ भी प्रेमपूर्ण बनी रहती हैं। इसलिये भक्त-जन हर समय स्वर्ग में ही निवास किया करते हैं।

साधना का मन्तव्य ईश्वरीय प्रेम प्राप्त करना ही माना गया है। यदि साधना सच्ची है तो उसका परिणाम प्रेम के रूप में ही मिलना चाहिये। सच्चे साधक का हृदय प्रेम की धारा से परिप्लावित हो जाता है। वह प्राणि-मात्र में अपनी आत्मा के दर्शन करने लगता है। आत्मीयता और उदारता प्रेम का ही तो रूप होता है। आत्मीयता का भाव मिलते ही संसार का दुःख-सुख साधक को अपना दुःख-सुख मालूम होने लगता है।

जिस प्रकार कुयें में मुख डालकर आवाज करने से उसी प्रकार की आवाज कुयें से निकलकर कानों में गूँजने लगती है, उसी प्रकार साधक के हृदय का प्रेम परमात्मा अथवा उसके व्यक्त रूप प्राणियों को प्राप्त होकर पुनः प्रेमी के पास ही वापस आकर उसे आत्म-विभोर कर देता है। इसका यह आशय नहीं कि परमात्मा अथवा प्राणी उसके प्रेम को स्वीकार नहीं करते और वह वैसे ही वापस कर दिया जाता है। बल्कि इसका आशय यह है कि जब साधक परमात्मा अथवा प्राणियों को प्रेम करता है तो उनकी ओर से भी प्रेम पाता है।

उदारता और त्याग सच्चे प्रेम की अनिवार्य विशेषतायें हैं। जिसके प्रति प्रेम का भाव रखा जाता है, उसके प्रति कुछ त्याग करने की इच्छा होती है। प्रेम का स्तर जितना ऊँचा होता है त्याग का भाव भी उसी अनुपात से बढ़ जाता है। भक्त भगवान के लिये, प्रेमी अपने प्रेमास्पद के लिये सर्वस्व त्याग कर देने को तत्पर रहते हैं। प्राणिमात्र से प्रेम होने के कारण साधक सदा ही सबके प्रति त्याग करने और कष्ट उठाने के लिये तैयार रहता है। समय आने पर वह त्याग करता भी है। तथापि सामान्य स्थिति में वह संसार की सेवा तो करता है और अपने उदार भाव का परिचय देता ही रहता है। उदारता और त्याग से रहित व्यक्ति को साधक नहीं माना जा सकता। प्रेम और त्याग का यह जीता जागता उदाहरण भील बालक एकलव्य के चरित्र में पूरी तरह से देखने को मिलता है।

भील बालक एकलव्य धनुर्वेद सीखना चाहता था। उस समय धनुर्वेद के आचार्य द्रोणाचार्य थे। वे कौरवों और पाण्डवों को धनुर्विद्या सिखाने के लिये नित्य ही जंगल में ले जाया करते थे। एक दिन एकलव्य उनसे जंगल में मिला और शिष्य रूप में स्वीकार कर धनुर्विद्या सिखलाने की प्रार्थना की। किन्तु जंगली जाति का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या की शिक्षा देने से इनकार कर दिया।

किन्तु एकलव्य इससे निराश न हुआ। उसने मिट्टी से द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उसी में अपनी हार्दिक श्रद्धा स्थापित कर धनुर्वेद का स्वयं अभ्यास करने लगा। उसकी अपनी श्रद्धा और निष्ठा फलीभूत हुई। वह उस समय का अद्वितीय धनुर्धर बन गया। और बाद में गुरु के कहने से अपना अँगूठा काटकर दे दिया।

मिट्टी के गुरु ने उसे कोई सहायता न की। सहायता की, एकलव्य की अपनी गुरु-भक्ति ने जो कि उसके हृदय में निवास कर रही थी। इसके विपरीत यदि द्रोणाचार्य स्वयं भी उसे धनुर्विद्या सिखाते और एकलव्य के हृदय में भक्ति भाव न होता तो वह जरा भी प्रगति न कर पाता। कौरवों के साथ यही घटित हुआ। उनमें गुरु भक्ति की कमी थी, निष्ठा निर्बल थी, इसीलिये वर्णानुपर्यी द्रोण के सिखलाने पर वे अच्छे धनुर्धारी न बन सके। जबकि उन्हीं के साथ अर्जुन के हृदय में गुरु के प्रति सच्ची भक्ति और निष्ठा थी, जिससे वह अपने युग का यशस्वी और अमोघ धनुर्धर बन सका।

यही बात ईश्वर उपासना के सम्बन्ध में है। उसकी उपासना चाहे साकार अथवा निराकार रूप में की जाये, यदि श्रद्धा, भक्ति और निष्ठा आदि की, प्रेम प्रवण भाव की कमी रहेगी तो उपासना का कोई भी प्रकार सफल न होगा। इससे स्पष्ट है कि उपासना में पूजा पाठ, ध्यान, जप, तप आदि की उतनी महत्ता नहीं है जितनी की सच्ची प्रेम भावना की। उपासना के रूप में साधक जो भी जप तप, पूजा-पाठ करता है, उससे वह अपनी निष्ठा और प्रेमभावना को ही परिष्कृत एवं विकसित करता है। इस दिशा में वह जितनी जितनी प्रगति करता जाता है, उतना-उतना ही ईश्वरीय अनुभूति का अधिकारी बनता जाता है। साधना का सार प्रेम अथवा भक्ति को ही माना गया है, बाह्य आडम्बर को नहीं।

साधक यदि इस बात की खबर रखना चाहता है कि उसकी साधना समुचित रूप से विकास की और बढ़ रही है या नहीं, तो उसे यह देखना होगा कि उसके हृदय में प्रेम भावना की वृद्धि हो रही है या नहीं। पूजा पाठ तो वह बहुत करता है, किन्तु उसकी भावना उसी प्रकार नीरस और कठोर बनी हुई है तो उसे समझ लेना चाहिये कि उसकी साधना निष्फल जा रही है। विकास की दिशा में वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ रहा है। और यदि वह यह अनुभव करता है कि उसके हृदय में आत्मीयता, उदारता और प्रेम की भावना जाग रही है, तो उसे विश्वस्त रूप से अपने पथ पर चलते जाना चाहिये। उसकी साधना सफलता की ओर जा रही होगी।

सच्ची तथा समुचित साधना का लक्षण यही है कि साधक के अन्तःकरण में प्रेम की सुधारा प्रवाहित होती चले। उसे दूसरों का दुःख सुख अपना जैसा अनुभव हो और प्राणि मात्र में अपनी आत्मा और अपनी आत्मा में प्राणि मात्र की आत्मा का दर्शन करे। जिस दिन साधक इस सार्वभौमिक प्रेम की अनुभूति करने लगेगा, उसी दिन से वह परमात्म मिलन की परिधि में प्रवेश कर जायेगा।

छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष आदि दोष प्रेम-भाव के बाधक होने के कारण साधक को आगे बढ़ने से रोकते हैं। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये साधक को इन पर विजय प्राप्त करना ही होगा। हृदय को परिष्कृत एवं विकसित बनाने के उपाय यही हैं कि या तो अपने हृदय में प्रेम भावना का विकास किया जाय व उक्त दोषों का दमन किया जाय। इन दोनों उपायों का परिणाम एक ही होगा। प्रेम का विकास करने में प्रेम में वृद्धि होगी और दोषों का दमन हो जायेगा। और यदि दोषों का दमन कर दिया जायेगा तो अवरोधों के टूट जाने से हृदय में प्रेम भावना का विकास स्वयं ही होने लगेगा। तात्पर्य यह कि ईश्वर मिलन और आध्यात्मिक सफलता के लिये साधक के हृदय में प्रेम भाव का विकास तथा अभिवृद्धि होनी चाहिये। उसके लिये उपाय कोई भी क्यों न अपनाया जाये।

त्यागपूर्ण सेवा-भाव को प्रेम का प्राण माना गया है। प्रकट और अनुभव कितना हि क्यों न किया जाय, किन्तु यदि उसमें त्याग और सेवा भाव नहीं है तो वह सच्चा प्रेम नहीं है। वह अनुभूति आसक्ति अथवा मोह का ही एक रूप होगी। मोह अथवा आसक्ति आध्यात्मिक अवगुण है। इनके रहते हुये विकास की वाँछित दिशा में नहीं बढ़ा जा सकता। प्रेम आत्मा की शक्ति है और मोह अथवा आसक्ति उसकी निर्बलता, निर्बलता को साथ लेकर ईश्वर मिलन के उच्च पथ पर चढ़ सकना सम्भव नहीं।

प्रेम की वंचना में मोह अथवा आसक्ति का परिपालन न होने लगे, साधक को इस बात की सावधानी रखनी चाहिये। यदि उसे किसी आस्पद से प्रेम तो अनुभव होता है पर उसके लिये त्याग करने की, उसकी सेवा करने की जिज्ञासा नहीं होती तो विश्वास कर लेना चाहिये कि वह अपनी आत्मा में प्रेम नहीं मोह का ही विकास कर रहा है। ऐसी दशा में उसे तुरन्त सावधान होकर अपना सुधार कर लेना चाहिये।

जिसके प्रति सच्चा-प्रेम भाव होगा उसके प्रति त्याग और सेवा का भाव उदय होना स्वाभाविक है। सच्चा प्रेमी अपने को कष्ट देकर, अपने को निर्लोभ और निःस्वार्थ रख अपने प्रेम पात्र को अधिकाधिक सुख पहुंचाने का प्रयत्न करता है। अपने प्रेमास्पद ईश्वर को प्रसन्न करने, उसे सुख पहुँचाने के लिये उसकी भी सेवा करनी होगी, उसके लिये त्याग करना होगा। किन्तु ईश्वर स्थूल रूप में तो प्राप्त नहीं होता और न उसे सीधे-सीधे किसी के त्याग की आवश्यकता होती है। ऐसी दशा में कैसे तो उसे सुख पहुँचाया जा सकता है और कैसे प्रसन्न किया जा सकता है?

इसका एक सरल और सुन्दर-सा उपाय यही है कि हम ईश्वर के प्रति जिस त्याग को करना चाहते है, उसकी जो सेवा करना चाहते है, उसका लाभ उसके अंश संसार के अन्य जीवों को पहुंचायें। संसार के सारे जीवों में परमात्मा का निवास है। उनको दी हुई हर सेवा उस एक ईश्वर को ही प्राप्त होती है। प्राणियों की सेवा ईश्वर की ही सेवा है और उनके लिये किया हुआ हर त्याग उसके प्रति ही किया गया माना जायेगा।

इस प्रकार ईश्वर मिलन के उपाय को इस प्रकार सारांश में समझकर उसकी साधना करनी चाहिये। जप-तप, पूजा-पाठ, योग-अनुष्ठान द्वारा अपनी आत्मा में प्रेम भाव का विकास करते हुए, उसकी सच्चाई के प्रमाण में सेवा पूर्ण त्याग का लाभ प्राणि-मात्र के देते हुए परमात्मा को प्रसन्न करते रहना चाहिये। धीरे-धीरे वह समय आ जायेगा, जब परमात्मा प्रसन्न होगा और साधक को अपनी करुणामयी, आनंदमयी और कल्याणमयी गोद में स्थान देगा। जीवन की सारी साधन सफल हो जायेगी और उसके सारे मूल्य एक साथ मिल जायेंगे।

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