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Magazine - Year 1968 - Version 2

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सम्पत्तियाँ नहीं, विभूतियाँ श्रेयस्कर हैं

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मानव-जीवन का महत्व प्रतिपादित करने की आवश्यकता नहीं। वह संसार की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि तथा सर्वोत्तम अवसर है। इसका सदुपयोग कर मानव से देवता और जीव से ईश्वर बना जा सकता है। किन्तु खेद है, कि लोग इस मूल्यवान मानव-जीवन को बड़ा ही घटिया और सस्ता बनाकर जीते हैं। इस सुरदुर्लभ उपलब्धि को सस्ता बना डालना उस विधायक की कृपा का अपमान करना है, जिसने इसे अनुग्रह किया है। अपने मानव-जीवन को सस्ता नहीं, गौरव और गरिमापूर्ण बनाकर जीना चाहिये। परमात्मा के प्रतिनिधि मनुष्य को यही योग्य है कि वह अपने पद के अनुसार ही अपने जीवन को बनाये और चलाये।

मानव-जीवन शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा तथा आचार-विचार, भावना, आशा, अभिलाषा, विश्वास तथा क्रियाओं का समन्वय है। इन सबसे मिलकर ही यह मानव-जीवन बनता और पूर्ण होता है। इसके अभाव में मानव-जीवन का अस्तित्व या तो अपूर्ण हो जाता है या मिट जाता है। मानव-जीवन के इन तत्वों को जितना महान और गौरवपूर्ण बनाया जायेगा, मनुष्य उतना ही ऊँचा उठता और विशाल बनता जायेगा। किन्तु खेद है कि अज्ञानवश मनुष्य जीवन के इन तत्वों में सस्तापन भर कर मनुष्य होते हुए भी पशुत्व की परिभाषा से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। मनुष्य को निकृष्ट नहीं उत्कृष्ट बनना चाहिए। इतना उत्कृष्ट कि उसे देखते ही उसके रचयिता का सच्चा-स्वरूप उसी तरह मानस-पटल पर झलक उठे, जिस तरह कर्तृत्व देखकर कलाकार का व्यक्तित्व प्रतिविम्बित हो उठता है।

विचार मानव-जीवन की एक विशेष शक्ति है। किन्तु मनुष्य उसमें सस्तापन लाकर उस शक्ति को कुण्ठित अथवा प्रतिगामिनी बना डालते हैं। विचारों का सस्तापन है, असभ्यता, असंस्कृति, अभद्रता तथा अवाँछनीयता। जो लोग स्वार्थ की सीमित परिधि में रहकर अपने लाभ की ही सोचते रहते हैं, वे सस्ते, ओछे और पोच-विचारों वाले होते हैं। मैं व्यापार करूंगा, धन कमाऊँगा, सम्पत्ति और साधन संचय करूंगा और फिर समाज में अपना प्रभाव स्थापित कर लोगों पर शासन करूंगा, उनसे पूजा और प्रतिष्ठा वसूलूँगा। अपने साधनों और सुविधाओं के बल पर मैं अपने लड़कों को उच्च से उच्च शिक्षा दिलाकर और अपने प्रभाव की विरासत देकर इस योग्य बना दूँगा कि वे मेरी तरह ही समाज में अपने प्रतिष्ठापूर्ण स्थान का आनन्द भोग कर सकें। इस प्रकार के विचार, जिनमें पद-पद पर ‘स्व’ और स्वार्थ लगा हो सस्ते, तुच्छ और ओछे होते हैं। ऐसे ‘स्ववादी’ लोग उन्नति और सफलता पाकर भी शाँति और संतोष के लिए तरसते रहते हैं। वे उच्च पद पर पहुँचकर भी निकृष्ट और निम्नकोटि के बने रहते हैं।

उन्नति, विकास और मान-सम्मान पाने का विचार बुरा नहीं। बुरा है, उसमें ‘स्व’ और स्वार्थ को जोड़ लेना। यदि इस उपलब्धि की कामना का विचार इस प्रकार किया जाय कि मैं उद्योग करूंगा, धनवान बनूँगा, समाज की एक इकाई के रूप में उसकी श्रीवृद्धि में सहायता करूंगा। अपने व्यवसाय से समाज की सुविधा बढ़ाऊँगा। यथासम्भव उसकी सहायता करूंगा। बच्चों को योग्य बनाकर अच्छे नागरिकों के रूप में समाज की सेवा के लिये समर्पित कर दूँगा। और तब इस सेवा के उपलक्ष में यही समाज हमें सराहना, सम्मान और पद-प्रतिष्ठा देगा तो उसे सहर्ष शिरोधार्य करूंगा और फलस्वरूप अपनी सफलता का आनन्द भोगूँगा। केवल ‘स्व’ से हटकर ‘सर्व’ और स्व से बढ़कर परमार्थ की ओर विचार-धारा को मोड़ डडडड उन्हीं विचारों का सस्तापन दूर हो जायेगा और डडडड गौरव गरिमा का समावेश हो जायेगा।

भावनाओं को मनुष्य जीवन में दैवी तत्व माना जाता है। जो भावना प्रवण और भावना-प्रधान है, वह मनुष्य होते हुए मनुष्य से आगे का व्यक्ति होता है। कला, काव्य और सन्तत्व भावना के ही पुण्यफल माने गये हैं। ऐसी दिव्य वस्तु को भी लोग सस्तेपन से दूषित कर निकृष्ट तथा निम्नकोटि का बना देते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या-द्वेष आदि सारे विकार भावनाओं का ही हल्का और सस्तापन है। जरा-सा विपर्य देखकर क्रोध से भड़क उठना, प्राप्ति योग्य वस्तु देखकर तुरन्त लोभ में आ जाना, जरा-सी उत्तेजना पाकर काम के वशीभूत हो जाना, किसी की तुलना में अपनी स्थिति को छोटा देखकर ईर्ष्या द्वेष करने लगना आदि क्षिप्रतायें भावना का ही सस्तापन है। ऐसी सस्ती भावना वाले लोग मानव से महामानव बनना तो दूर पूरे मनुष्य भी नहीं बन पाते। जब कि विकास क्रम का तकाजा है कि मनुष्य पीछे की ओर लौटकर अल्प-मानव न बने बल्कि आगे बढ़कर पूर्ण और अति-मानव बने। किन्तु खेद है कि लोग सस्तेपन के वशीभूत होकर अपने महत्व का मूल्याँकन नहीं कर पाते।

क्रोध की स्थिति को शाँति, काम की परिस्थिति को गंभीरता, लोभ की स्थिति को निष्प्रहता, मोह की स्थिति को विवेक और ईर्ष्या तथा द्वेष की स्थिति को तटस्थता से उत्तर देना भावनाओं की गरिमा, गंभीरता और गुरुता का प्रमाण देना है। ऐसी गहरी और दृढ़ भावनाओं वाले लोग यदि कोई विशेष उन्नति के लिये न भी लालायित हों तो भी अपने आन्तरिक स्वरूप में वे बड़े ही महान और सुख रहते हैं।

आशा और अभिलाषा को जीवन का प्रेरक तत्व माना गया है। इन्हीं के आधार पर मनुष्य उठता और आगे बढ़ने के लिए प्रयत्न करता है। आशा और अभिलाषायें जीवन की वह हरियाली है, जिसके अभाव में यह महत्वपूर्ण अवसर मरुस्थल की तरह नीरस और निस्सार बन जाता है। जीवन के इन महत्वपूर्ण तत्वों को भी लोग सस्तेपन से घेर कर निकृष्ट बना डालते हैं। जीवन में नश्वर तथा निःसार वैभव तथा भोगों की कामना करते रहना अथवा उनके अनुसार मरते-खपते रहना कामनाओं सस्तापन है। मुझे धन मिल जाये। मेरे बेटा हो जाय। मैं बड़ा आदमी बन जाऊँ। मैं आराम से रहकर सुख-सुविधा भोग सकूं आदि अभिलाषायें और दूसरों से अकारण सहायता, सहयोग तथा थोड़ा देकर बहुत पाने की आशा- आशा और अभिलाषाओं का सस्तापन है। संसार के नश्वर भोगों और अस्थिर वैभव की कामना क्या है? यह तो साधारण-सी प्रक्रिया है। संसार में नित्य ही लोग धन कमाते उसका भोग और अन्त में छोड़कर चले जाते हैं।

जिन वस्तुयें में मनुष्य का सहज अधिकार है उनकी कामना करना अभिलाषाओं के ओछेपन के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता। जब परमात्मा ने दूसरों की तरह ही अपने को भी शक्ति सामर्थ्य दी है। हाथ-पाँव, शरीर और बुद्धि दी है, तब अपंगों की तरह दूसरों से सहायता तथा सहयोग की अकारण आशा करना, आशा के सस्तेपन के सिवाय और कहा जायेगा?

अभिलाषा तथा आशा का वह स्वरूप जिसमें आत्म-निर्भरता, कल्याण भाव तथा निर्लोलुपता का गुण विद्यमान् हो, मनुष्य के लिये उचित और योग्य है। अभिलाषा यदि करनी है तो नश्वर साँसारिकता की नहीं बल्कि अनश्वर आत्म-तत्व की ही करनी चाहिये। चाहना चाहिये कि मुझे ऐसी शक्ति और सद्भावना दे, जिससे मैं समाज, संसार ओर राष्ट्र की सेवा कर सकूँ। परमात्मा ऐसी कृपा करे जिससे कि मैं भोगों के बीच रमण करता हुआ भी निष्काम तथा निर्मोह बना रहूँ। ईश्वर मुझे ऐसी बुद्धि दे जिससे मैं ऋषि मुनियों, आदर्श और आप्त-पुरुषों की वाणी, अपने विचार विश्वास तथा आचरण में चरितार्थ कर सकूँ। इस प्रकार की अभिलाषा वास्तव में बड़ी महान् अभिलाषा है। ऐसा महत्वाकाँक्षी व्यक्ति तीनों लोकों और दसों-दिशाओं में अपने लिए त्रयकालिक कुशल क्षेत्र को सुरक्षित करा लेता है। धन्य हैं, वे महत्वाकांक्षी जो इस प्रकार की महान आकाँक्षा रखते हैं।

विश्वास मानव जीवन का बहुत महत्वपूर्ण तत्व है, विश्वास को मानव-जीवन का मेरु-दण्ड कह लिया जाय, तब भी अनुचित न होगा। विश्वास के आधार पर ही जीवन टिका है। सफलता के विश्वास पर ही लोग पुरुषार्थ करते हैं। विश्वास के आधार पर ही आत्मा और परमात्मा की खोज होती है और विश्वास के आधार पर ही मनुष्य मृत्यु तक को जीत लेता है। ऐसे अनुपम तत्व विश्वास को भी मनुष्य सस्तेपन से दूषित तथा निरर्थक बना देता है।

बिना विचार किए किसी विचार अथवा व्यक्ति पर विश्वास कर लेना, भूत-प्रेतों और पिशाचों की ओर विश्वास को ले जाना, मान्यताओं तथा धारणाओं की तथ्यता जाने बिना विश्वास बना लेना, अन्ध-विश्वास, अतिविश्वास अथवा किन्हीं परिस्थितियों में असफलता अथवा अनिष्ट का विश्वास बना लेना विश्वास का सस्तापन ही है। विश्वासों के सस्तेपन से मनुष्य की शक्तियाँ कम हो जाती हैं और वह अनेक प्रकार की शंकाओं, संदेहों तथा भयों से घिर जाता है। ऐसी दशा में उसे जीवन में बड़ी दयनीय असफलता का मुख देखना पड़ता है।

विश्वास करना अथवा रखना एक महान् गुण है। किन्तु जिसके प्रति विश्वास बनाया जाय उसकी प्रामाणिकता को पहले परख लिया जाय। विश्वास बड़ा मूल्यवान् भाव है, इसे न तो किसी अपात्र को शीघ्र देना ही चाहिए और किसी अयोग्य के विश्वास की कामना ही करनी चाहिए। साथ ही जिस विषय में समझ-बूझकर विश्वास बना लिया जाय तो उसका दृढ़तापूर्वक निर्वाह भी किया जाना चाहिए। आज विश्वास बनाया कल तोड़ दिया। विश्वास का यह सस्तापन न तो योग्य है और न वाँछनीय। भूतों-प्रेतों, पिशाचों आदि जैसी अशिव आत्माओं में विश्वास न कर एक पूर्ण तथा अविच्छिन्न परमात्मा और उसके कल्याणकारी स्वरूपों में अखण्ड विश्वास रखा जाना विश्वास की गरिमा, गम्भीरता और महत्व का द्योतक है। सफलता, उन्नति और प्रगति का आत्म-विश्वास ऐसी साधना है, जो जीवन को बड़े से बड़े अंधकार से निकाल कर प्रकाश की ओर ले जाती है। माँगलिक विषयों तथा आत्मा और परमात्मा में अपने विश्वास तत्व को सुस्थिर बनाकर उसकी गरिमा तथा महिमा की वृद्धि करनी चाहिये।

शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का मानव-जीवन में कितना महत्व है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। जीवन का अस्तित्व शरीर से है। उसका संचालन मन से होता है। उसकी सुरक्षा बुद्धि से सम्भव होती हैं और उसमें ओत-प्रोत आत्म-तत्व उसे जागृत, चेतन तथा उद्बुद्ध बनाये रखता है। किन्तु मनुष्य अपने अज्ञान के कारण इन उपादानों को भी अमहत्वपूर्ण मानकर सस्ता बना लेता है। विषय-वासनाओं तथा अपकर्मों में शरीर द्वारा इंद्रियों की दासता करना शरीर का सस्तापन है। मन को निर्बल बना लेना, जरा-सी बात पर रो उठना, कतिपय प्रसंग पर हँस उठना। भावुकतावश उदारता, त्याग और दान वीरता की अभिव्यक्ति करना। क्षिप्रतापूर्वक किसी के प्रति सद्भावना अथवा असद्भावना बना लेना मन के सस्तेपन की निशानी है।

विवेक का उपयोग किए बिना, शीघ्रता से निर्णय ले लेना, गहराई से तथ्यों में उतरे बिना किसी का मूल्याँकन कर देना-कुटिलता, छद्म अथवा असत्य के लिये बुद्धि का उपयोग करना उसे सस्तेपन से दूषित कर डालना है। आत्मा की आवाज न सुनना, उसकी उपेक्षा करना, नास्तिकता को प्रश्रय देना, आत्मा की तुलना में शरीर को महत्व देना अथवा उसका चिन्तन न करना, आत्मा के प्रति सस्तापन उपस्थित करना है। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा को सस्ता बनाकर चलने वाले किसी भी श्रेय के अधिकारी नहीं बन पाते। इस अपराध के कारण वे स्वयं भी अस्तित्व और व्यक्तित्व से सस्ते होकर एक निकृष्ट तथा निम्नकोटि का जीवन भोगा करते हैं।

शरीर को स्वस्थ, नियन्त्रित व संयमित रखना, बुद्धि को स्थिर, निर्णायक तथा चिन्तनशील बनाना, मन को बलिष्ठ, विश्वासी तथा अविचल रखना, आत्मा को जीवन का सर्वोपरि तत्व मानकर उसका सम्मान करना, शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा को महत्वपूर्ण बनाना है। जो महानुभाव जीवन और उसके समग्र तत्व से सस्तेपन को निकालकर उनमें महत्व गरिमा तथा आदर्श का समावेश करते हैं, वे निश्चय ही मानव से महामानव और जीव से ईश्वर बन कर अपना अंतिम लक्ष्य पा लेते हैं। जीवन बड़ा महत्वपूर्ण अवसर है, इसे सस्ता न बनाना चाहिये।

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