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Magazine - Year 1968 - Version 2

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ज्ञान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति

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ज्ञान को ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति माना गया है। वास्तविक वस्तु वह है जो सदैव रहने वाली हो संसार में हर वस्तु काल पाकर नष्ट हो जाती है। धन नष्ट हो जाता है, तन जर्जर हो जाता है, साथी और सहयोगी छूट जाते हैं। केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्व है, जो कहीं भी किसी अवस्था और किसी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।

धन, जन को भी मनुष्य की एक शक्ति माना गया है। किन्तु यह उसकी वास्तविक शक्तियाँ नहीं है। इनका भी मूल स्रोत ज्ञान ही है। ज्ञान के आधार पर ही धन की उपलब्धि होती है और ज्ञान के बल पर ही समाज में लोगों को अपना सहायक तथा सहयोगी बनाया जाता है। अज्ञानी व्यक्ति के लिये संसार की कोई वस्तु सम्भव नहीं। धन के लिये व्यापार किया जाता है, नौकरी और शिल्पों का अवलंबन किया जाता है, कला-कौशल की सिद्धि की जाती है। किन्तु इनकी उपलब्धि से पूर्व मनुष्य को इनके योग्य ज्ञान का अर्जन करना पड़ता है। यदि वह इन उपायों के विषय में अज्ञानी बना रहे तो किसी भी प्रकार इन विशेषताओं की सिद्धि नहीं कर सकता और तब फलस्वरूप धन से सर्वथा वंचित ही रह जायेगा।

यही बात जन शक्ति के विषय में भी कही जा सकती है। जन-बल को भी अपने पक्ष में करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है। जब किसी को जन-मानस का ज्ञान होगा, उसकी आवश्यकताओं और समस्याओं की जानकारी होगी, उसे सत्पथ दिखला सकने की योग्यता होगी, उसके दुख-दर्द और कष्ट-क्लेशों के निवारण कर सकने की बुद्धि होगी, तभी जन-बल पर अपनी छाप छोड़कर उसे अपने पक्ष में किया जा सकता है। जनता का सहज स्वभाव होता है कि वह अपने सच्चे हितैषी का ही पक्ष धारण किया करती है। जनता का हित किस बात में है और सम्पादन किस प्रकार किया जा सकता है, इसका ज्ञान हुये बिना ऐसा कौन है, जो जन-बल को अपनी शक्ति बना सके। जन-बल का उपार्जन भी ज्ञान द्वारा ही सम्भव हो सकता है।

किसी शक्ति के उपलब्ध हो जाने के बाद भी उसकी रक्षा और उसके उपयोग के लिये भी ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान के अभाव में शक्ति का होना न होना बराबर होता है। उसका कोई लाभ अथवा कोई भी आनन्द नहीं उठाया जा सकता। उदाहरण के लिये मान लिया जाये कि कोई उपार्जन अथवा उत्तराधिकार में बहुत सा धन पा जाता है या किसी संयोगवश उसे अकस्मात मिल जाता है, तो क्या यह माना जा सकता कि वह धन शक्ति वाला हो गया। क्योंकि धन में स्वयं अपनी कोई शक्ति नहीं होती है, वह शक्ति तभी बन पाती है, जब उसके साथ उसके प्रयोग अथवा उपयोग में ज्ञान का समावेश होता है।

यदि मनुष्य यह न जानता हो कि वह उस धन से कौन सा व्यवसाय करे, किस जन-हितैषी संस्था को दान दे, समाज के लाभ के लिये कौन-सी क्या स्थापना करे। वह धन द्वारा किस प्रकार दीन-दुखियों, अपाहिजों अथवा आवश्यकता ग्रस्त लोगों की सहायता करे। उसको व्यय कर किस प्रकार का रहन सहन बनाये, क्या और किस प्रकार के कामों में उसको लगाये, जिससे समाज में उसका आदर हो, आत्मा में प्रकाश हो और परमार्थ में रुचिता बढ़े-तो वह धन उसकी क्या शक्ति बनकर सहायक हो सकेगा।

बल्कि अज्ञान की अवस्था में या तो वह धन को आबद्ध रखकर समाज और राष्ट्र की प्रगति रोकेगा, चोर डाकुओं और ठगों को आकर्षित करेगा अथवा ऊल-जलूल विधि से उसका अपव्यय एवं अनुपयोग करके समाज में विकृतियाँ पैदा करेगा, अपना जीवन बिगाड़ेगा। यह तो मनुष्य की वास्तविक शक्ति का लक्षण नहीं है। धन की शक्ति में वास्तविकता तभी आती है, जब उसके संग्रह एवं उपयोग का ठीक-ठीक ज्ञान होता है। नहीं तो अपमार्गों द्वारा संचित धन मनुष्य की निर्बलता और आशंका का हेतु बनता है। दुरुपयोग द्वारा भी यह समाज में अपवाद ईर्ष्या, द्वेष आदि का लक्ष्य बनकर निर्बलता की ओर बढ़ता है। इसलिये यह मानना ही होगा कि वास्तविक शक्ति धन में होती है और न जन में, वह होती है, उस ज्ञान में जो इन उपलब्धियों के उपार्जन एवं व्यय का नियन्त्रण किया करता है।

शारीरिक शक्ति को तो प्रायः लोग निर्विवाद रूप से शक्ति ही मानते हैं। किन्तु वास्तविकता यही है कि इस शक्ति को भी नियन्त्रित तथा उपयोग करने का ठीक ज्ञान न हो तो इसका कोई लाभ नहीं होता। शारीरिक शक्ति को कहाँ लगाया जाये, उसका उपयोग किस प्रकार किया जाये-यदि इस बात की ठीक जानकारी न हो तो या तो वह शक्ति किसी शोषक के अर्थ लग जायेगी अथवा कोई कुटिल उसका उपयोग कर किसी संकट में उलझा देगा। यदि एक बार ऐसा न भी हो तो भी किसी सृजन में न लगकर या तो वह योंही नष्ट हो जायेगी अथवा किसी ऐसे काम में स्थापित हो जायेगी, जिसका मूल्य नगण्यतम ही होगा।

ज्ञान-हीन शारीरिक शक्ति, पशु शक्ति होती है। वह अपना और दूसरों का बहुत कुछ अनिष्ट कर सकती है। अपना अनिष्ट तो इस तरह कि वह बल के अभिमान में कोई ऐसा प्रदर्शन करने का प्रयत्न कर सकता है, जिसमें अंग-भंग हो जाये, शक्तिमद से प्रेरित होकर किसी से अकारण उलझकर संकट उत्पन्न कर सकता है। अपनी धृष्टता और उद्दण्डता से समाज को विरोधी बना सकता है। सदुपयोग का ज्ञान न होने से चुप न रहने वाली शारीरिक शक्ति गलत रास्तों पर जा सकती है। और इसी अबूझ तथा अनियन्त्रित प्रवाह में पड़कर ही तो बहुत से लोग अपराधी, अत्याचारी तथा दुःसाहसी बन जाया करते हैं और तब उनकी वह शक्ति विविध प्रकार के भयों का कारण बन जाती है। इसलिये तन, मन, धन और जन-शक्ति को वास्तविक शक्ति न मानकर उस ज्ञान को ही मानना चाहिये, जो उसके उपार्जन, नियन्त्रण तथा उपयोग का संचालन किया करता है।

मनुष्य की वास्तविक शक्ति ज्ञान है- पर वास्तविक ज्ञान क्या है? इसको जान लेना भी नितान्त आवश्यक है। ऐसा किये बिना मनुष्य किसी भी जानकारी को ज्ञान समझकर पथ-भ्रान्त हो सकता है। यदि वह भौतिक विभूतियों के उपार्जन के उपायों की जानकारी को ही ज्ञान समझ ले अथवा किन्हीं गलत क्रियाओं की विधि या अपने किसी अंध-विश्वास को ही ज्ञान समझ बैठे तब तो उसका कल्याण ही नष्ट हो जाये और वह अज्ञान के अन्धकार में ही भटकता रह जाये।

शास्त्रकारों और मनीषियों ने जिस वास्तविक ज्ञान का संचय करने का निर्देश किया है, वह स्कूल और कालेजों में मिलने वाली शिक्षा नहीं है। और न इसे संचय करके ज्ञान प्राप्ति का सन्तोष कर लेना चाहिये। स्कूली शिक्षा तो लौकिक जीवन को साधन सम्पन्न बनाने और वास्तविक ज्ञान की ओर अग्रसर होने का एक माध्यम मात्र है, वास्तविक ज्ञान नहीं है।

बहुत से लोग शास्त्र और धार्मिक ग्रन्थों में दिये नियमों की जानकारी ही को ज्ञान मान बैठते हैं और बहुत से लोग महात्माओं अथवा आर्ष-ग्रंथों के वाक्यों को रट लेना भर ही ज्ञान समझ बैठते हैं। किन्तु यह सब बातें भी वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति के लिये साधन मात्र हैं। वास्तविक ज्ञान नहीं है। शास्त्रों का स्वाध्याय और महात्माओं का सत्संग वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने में सहायक तो हो सकता है, किन्तु इसका उपार्जन तो मनुष्य को स्वयं ही आत्म-चिन्तन एवं मनन द्वारा ही करना पड़ता है। पुस्तक पढ़ लेने अथवा किसी महात्मा का कथन सुन लेने भर से वास्तविक ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती। वास्तविक ज्ञात तो आत्मानुभूति के द्वारा ही सम्भव हो सकता है।

आज के वैज्ञानिक काल में ज्ञान के विषय में और भी अधिक भ्रम फैला हुआ है। लोग वैज्ञानिक शोधों, आविष्कारों और अन्वेषणों को ही वास्तविक ज्ञान मानकर मदमत्त हो रहे हैं। प्रकाश, ताप, विद्युत, जल, वायु, गति और चुम्बकत्व के ज्ञान और उसके उपयोग, प्रयोग को ही सच्चा ज्ञान समझकर अज्ञान के घने अंधकार में धँसते चले जा रहे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि आज सारा वैज्ञानिक ज्ञान विशुद्ध भौतिक विभूतियों को प्राप्त करने के लिये साधन भर हैं। और आज के इन वैज्ञानिक साधनों ने मनुष्य को इस सीमा तक सत्य भ्रान्त कर दिया है कि वह आत्मा परमात्मा को भूलकर बुरी तरह नास्तिक बनता जा रहा है। जिसकी परिसमाप्ति, यदि शीघ्र ही अज्ञान और विज्ञान विषयक अन्ध विश्वास का सुधार न किया गया, भयानक ध्वंस में ही होगी। जिस ज्ञान का परिणाम विनाश हो उसे वास्तविक ज्ञान किस प्रकार माना जा सकता है।

वास्तविक ज्ञान का लक्षण तो वह स्थिर बुद्धि और उसका निर्देशन है, जिसे पाकर मनुष्य अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अशाँति से शाँति की ओर और स्वार्थ से परमार्थ की ओर उन्मुख होता है। सच्चे ज्ञान में न तो असन्तोष होता है और न लिप्साजन्य आवश्यकतायें। उसकी प्राप्ति तो आत्मज्ञता, आत्म-प्रतिष्ठा और आत्म-विश्वास का ही हेतु होती है। जिस ज्ञान से इन दिव्य विभूतियों एवं प्रेरणाओं की प्राप्ति नहीं होती, उसे वास्तविक ज्ञान मान लेना बड़ी भूल होगी, फिर चाहे वह ज्ञान करतलगत ब्राह्मण के समान ही क्यों न हो।

इस प्रकार का वास्तविक ज्ञान किसी प्रकार का भौतिक ज्ञान नहीं शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान ही हो सकता है। और साँसारिक कर्म करते हुए भी उसे प्राप्त करने का उपाय करते ही रहना चाहिये। फिर इसके लिये चाहे स्वाध्याय करना पड़े, सत्संग अथवा चिन्तन मनन करना पड़े, आराधना, उपासना अथवा पूजा-पाठ करना पड़े। वास्तविक ज्ञान के बिना न तो जीवन में सच्ची शान्ति मिलती है और न उसको परकल्याण प्राप्त होता है।

वास्तविक ज्ञान ही जीवन का सार और आत्मा का प्रकाश है। एकमात्र सच्चा ज्ञान ही लोक-परलोक में अक्षय तत्व और सच्चा साथी है, बाकी सब कुछ नश्वर तथा मिथ्या है। तथापि ज्ञानवान् पुरुष के लिये यह मिथ्या जगत् और नश्वर पदार्थ भी आत्म-दर्पण में आत्मस्वरूप के रूप में प्रतिविम्बित होते हुए यथार्थ रूप में प्रतीत होने लगते हैं। ज्ञान का अमृत न केवल मनुष्य को ही बल्कि उसके जीवन जगत् को भी अमरत्व प्रदान कर देता है। ज्ञान की महिमा अपार एवं अकथनीय है।

ज्ञान की प्राप्ति ही मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य है। अस्तु, इस सत्य को अच्छी प्रकार हृदयंगम करके सच्चे ज्ञान को प्राप्त करने का हर सम्भव उपाय करते ही रहना चाहिये कि तन, धन, अथवा जन की शक्ति वास्तविक शक्ति नहीं है और उनकी प्राप्ति का उपाय ही ज्ञान है। यह सब भौतिक जीवन में साधनों का समावेश करने के माध्यम मात्र हैं। वास्तविक ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है और वही मनुष्य की सच्ची शक्ति भी है, जिसके सहारे वह आत्मा तक और आत्मा से परमात्मा तक पहुँचकर उस सुख, उस शाँति और उस सन्तोष का अक्षय भण्डार हस्तगत कर सकता है, जिसको वह जन्म-जन्म से खोज रहा है किन्तु पा नहीं रहा है।

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