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Magazine - Year 1968 - Version 2

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हमारी जीवन नीति आदर्शवाद से प्रेरित हो

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भौतिक वृत्ति और आध्यात्मिक वृत्ति दो अलग-अलग वृत्तियाँ नहीं हैं। वे एक ही वृत्ति के दो दृष्टिकोण हैं। प्रायः लोग धन-दौलत और यश-कीर्ति आदि चाहने वालों को भौतिकवादी मानते हैं और इनसे दूर रहकर उपासना करने वालों को आध्यात्मिक व्यक्ति समझते हैं। इस बात को संक्षेप में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति संसार और उसकी उपलब्धियों, सम्पत्तियों में रमना चाहता है, वह भौतिकवादी है और जो संसार का त्याग कर ईश्वर तक सीमित रहता है, वह अध्यात्मवादी होता है।

यह कितनी अबुद्धिगम्य मान्यता है। सोचने की बात है कि क्या संसार ईश्वर से भिन्न है या ईश्वर संसार से पृथक् है। दोनों ही तो एक दूसरे में रमे हुए हैं। संसार अव्यक्त ईश्वर के व्यक्त अस्तित्व के सिवाय और कुछ भी तो नहीं है। अस्तु भौतिकवाद को साँसारिक और अध्यात्मवाद को ईश्वरीय विषय मानकर अलग-अलग करना ठीक नहीं। वे एक ही विषय के दो पक्ष हैं, एक ही बात के दो दृष्टि बिन्दु हैं। दृष्टिकोण के परिवर्तन से भौतिकवाद के नाम से पुकारा जाने वाला विषय आध्यात्मिक बन सकता है और आध्यात्मिक नाम से पुकारने वाला भौतिक।

खाने-कमाने, भोगने बरतने और जीने-मरने के साधारण क्रम में यदि उत्कृष्ट भाव और श्रेष्ठ मन्तव्य का समावेश कर दिया जाय तो यही भौतिक जीवन आध्यात्मिक जीवन बन जायेगा और यदि उपासना अथवा साधना के क्रम में यश, वैभव, पूजा-प्रतिष्ठा की कामना का सन्निवेश कर दिया जाय तो वह आध्यात्मिक क्रम घोर भौतिकवाद बन जायेगा। भौतिकवाद अथवा अध्यात्मवाद अलग-अलग दो वाद नहीं हैं, बल्कि एक ही जीवन में जोड़े दो दृष्टि अथवा विचार कोणों की संज्ञायें मात्र हैं।

सामान्यतः संसार का त्याग और आत्मा की आराधना एक कठिन कार्य है। सबके लिये सम्भव नहीं आत्म-साधना का सामान्य तथा सरल मार्ग यही है कि अपने साधारण जीवन क्रम में उस उत्कृष्ट दृष्टिकोण को जोड़ लिया जाय जो भौतिकवाद को अध्यात्मवाद बना दे। ऐसा करने से संसार क्रम में न तो बाधा पड़ेगी और अध्यात्म की भी आराधना होती चलेगी।

इस प्रसंग को समझने और अपनाने के लिये जीवन के प्रत्येक चरण पर क्रमपूर्वक विचार करते हुए चला जाये। सबसे पहले मानव जीवन के आधार आजीविका को लिया जाये। आजीविका का आशय है- उन साधनों को संचित करना, जिनके आधार पर जीवन यात्रा सम्भव बनाई जाती है। इसको धनार्जन भी कह सकते हैं। जीवन यापन के लिये धन सब को कमाना पड़ता है। कमाई करने के लिये कोई मजदूरी करता है, कोई नौकरी करता है तो कोई व्यापार का सहारा लेता है। धनार्जन के यह सारे काम भौतिकवाद से सम्बन्ध रखते हैं। किन्तु इन कार्यों में आदर्शवाद का समावेश कर दिया जाय तो यही काम आध्यात्मिक बन जायेंगे। उपार्जन में पहला आदर्श तो होना चाहिये, उत्साह और प्रसन्नता का। बहुधा श्रम-साध्य होने के कारण उपार्जन को अरुचिकर कार्य माना जाता है। प्रायः लोगों की इच्छा रहती है कि कुछ ऐसा हो जाता कि मेहनत तो कम से कम करनी पड़े, लेकिन धन ज्यादा से ज्यादा मिल जाये। यह विचार आदर्श-हीन हैं।

हर काम, चाहे वह बड़ा हो अथवा छोटा, पूरी लगन और पूरी तत्परता से करना चाहिये। उसे करने में प्रसन्नता और उत्साह का अनुभव करना चाहिये। जो लोग मजबूरी समझकर रोते-झींकते हुए आजीविका के कामों को बेगार की तरह करते हैं, वे उसके आध्यात्मिक लाभ से वंचित हो जाते हैं। किन्तु जो उसे जीवन का एक आवश्यक कर्तव्य मानकर उत्साह और प्रसन्नता से करते हैं, वे इस डडडड जाये? विचार का विषय यह नहीं है। विचार का विषय यह है कि वह ही खाया जाये जो शारीरिक, मानसिक बौद्धिक तथा आत्मिक चारों प्रकार के स्वास्थ्यों के लिये हर प्रकार से हितकर हो। संसार में बहुत-सी हितकर वस्तुयें ऐसी हो सकती हैं, जो बहुतों के लिये सुलभ हो सकती हैं और बहुतों के लिये सुलभ नहीं भी हो सकती हैं। इस विषय में यह नियम बनाया जाये कि खाने के लिये वे वस्तुयें ही चुनी जायें, जिनका पा सकना अपनी आय तथा स्थिति के अंतर्गत सम्भव हो अब वह चाहे सूखी रोटी व सूखे चने ही क्यों न हों। अपने उपलब्ध उस भोजन को उतनी ही रुचि, प्रसन्नता, श्रद्धा तथा गौरव के साथ ही खाना चाहिये, जिस प्रकार कोई छप्पन व्यंजनों का भोग लगाता है। स्वाद तथा व्यंजनता भोजन की वस्तु ने नहीं अपनी परिपक्व क्षुधा तथा लोलुप वृत्ति में होती है। अपने साधारणतम भोजन में व्यंजनता उत्पन्न करने का छोटा-सा उपाय है संतोष तथा दूसरे के भोजन के प्रति दृष्टिपात न करना। जो उसे प्राप्त है, उसे मुबारक हो जो मुझे प्राप्त है, मुझे मुबारक रहे। भोजन के प्रति इस प्रकार का तटस्थ भाव रखना उस साधारण सी भौतिक क्रिया में आध्यात्मिकता का समावेश कर लेना है।

वे लोग भी यदि त्याग और संतोष के आधार पर अपने भोजन में समाजानुरूप सामान्य भोजन का व्रत ले लेते और पालन करते हैं, जो संसार की सारी सम्पदाओं के योग्य क्षमता रखते हैं तो उनका यह कार्य एक उन्नत अध्यात्मवाद का सम्पादन होगा। इसके अतिरिक्त भोजन का समय, मात्रा तथा प्रकार क्रमों का निश्चित कर लेना आध्यात्मिक भाव को और भी बढ़ा देगा।

वस्त्रों के विषय में भी यही बात है। अपनी अथवा सामाजिक स्थिति के अनुसार ही वस्त्र पहनने और रखने चाहिये। उनको सरल तथा स्वच्छ ही रक्खा जाय। प्रदर्शन, फैशन अथवा दम्भ के वशीभूत होकर वस्त्रों का उपयोग न कर आवश्यकता के अनुसार उनका उपयोग करके संतोष तथा गौरव अनुभव करना उस सामान्य सी भौतिक क्रिया को आध्यात्मिक बना लेना है।

निवास के विषय में कोठियों, हवेलियों तथा बँगलों की संख्या तथा शान का परित्याग कर यदि सामान्य से घर में रुचि तथा सुन्दरतापूर्ण ढंग से रहा जाये तो वह छोटी-सी भौतिक आवश्यकता अध्यात्म के रंग में रंग जाये। जिन्हें कोठियाँ, हवेलियाँ और बँगले उपलब्ध हों वे भी अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता से अधिक स्थान न घेरें। अपने भर का स्थान लेकर शेष का लाभ दूसरों को उठाने का अवसर दें, इस प्रकार का त्याग मनुष्य की भौतिक तृष्णा का परिहास करता है, जिससे मनुष्य जमीन, जायदाद के उन झगड़ों से बच जाता है, जो शाँति और सुख के बाधक होते हैं। अभौतिक भावना के आधार पर मानसिक प्रसन्नता और आत्मिक शाँति की सुरक्षा करना आध्यात्मिक उपक्रम ही है। ऐसा करने वाले निश्चित रूप से आध्यात्मिक व्यक्ति ही माने जायेंगे।

ब्याह-शादी, जन्म आदि काम-काजों के यदि धनाढ्यता का प्रदर्शन न कर अपने को अहंकार अथवा ऋण भार से बचाये रक्खा जाये और सारे कामों को आन्तरिक प्रसन्नता के साथ उस स्तर से किया जाये, जो अपने समग्र समाज का आर्थिक स्तर हो तो वह सामान्य-सा भौतिक कर्तव्य भी आध्यात्मिक भाव में बदल जाये। उत्सवों और समारोहों के अवसर पर सादगी बरतने वाले लोग दूसरों को ईर्ष्या, द्वेष तथा स्पर्धा की हानिकारक वृत्ति से बचाते हैं। जो स्वयं ईर्ष्यालु तथा निर्द्वेष है साथ ही दूसरों को भी इन पापों से बचने में सहायता देता है, निश्चय ही वह आध्यात्मिक साधना में रत है और उसके फल का अधिकारी भी।

मनोरंजन मानव-जीवन की महती आवश्यकता है। इससे जीवन में नव-चेतना, ताजगी और नव-स्फूर्ति आती है। किन्तु अश्लील, अभद्र अथवा भोग प्रधान मनोरंजन पतनकारी होते हैं। यदि इस आवश्यकता की पूर्ति सत् श्रवण, सद् ध्यान सदुद्देश्यों और सत्संग द्वारा की जाये तो निश्चय ही यह भौतिक आवश्यकता एवं आध्यात्मिक साधना बन जायेगी।

इस प्रकार यदि मनुष्य अपने सामान्य भौतिक क्रम में भी उच्च और कल्याणकारी दृष्टिकोण का समावेश कर ईमानदारी से उस पर आचरण करे तो उसके भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में कोई अन्तर ही न रह जाये। दोनों मिल-जुलकर एक रूप ही हो जायें।

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