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Magazine - Year 1968 - Version 2

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हम धैर्य और साहस के साथ ही आगे बढ़ें

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जीवन का कोई क्षेत्र भी क्यों न हो, उसमें सफलता प्राप्त करने के लिये क्रमिक प्रयत्न करना होता है। एक साथ सहसा छलाँग लगाकर कोई भी सफलता के उच्च शिखर पर नहीं पहुँच सकता। न पहुँचा ही जा सकता। प्रत्येक बात की एक विधि और एक क्रम होता है। उसी के अनुसार चलने से सफलता संभव हो सकती है। क्रम का उल्लंघन करने से लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। शक्ति का अपव्यय होता है, निराशा की वेदना सहन करनी पड़ती है और उत्साहों में प्रशमन आता है, जीवन गति अस्त-व्यस्त होकर बोझिल बन जाती है।

उदाहरण के लिये शिक्षा को ले लीजिये, विद्यार्थी पढ़ता है, मानिये एम. ए. की ऊँची उपाधि पाने के लिये। उसका लक्ष्य एम.ए. पास करना होता है। उसको वर्णमाला से शुभारम्भ कराया जाता है। धीरे-धीरे वह क्रमपूर्वक आगे बढ़ता है। चतुर अध्यापक उसके उस क्रम विकास पर बड़ी पारखी दृष्टि रखते हैं और यह देखते हैं कि विद्यार्थी पाठों का नियमित क्रम छोड़कर अक्रमिक तो नहीं होता जा रहा है। कहीं वह पहले पाठ में कच्चा होने पर भी अगले पाठ पर तो नहीं जा रहा है। यदि ऐसा होता है तो वह उसको रोक देता है। पिछला पाठ पक्का करने को विवश करता है। विकास की यही पद्धति है। पिछले पाठों के आधारों पर ही अगले पाठ स्थित होते हैं।

यदि पहले पत्थर कमजोर होंगे तो सारा निर्माण निर्बल होता चला जायेगा। पिछला पाठ तो कच्चा छूट ही जायेगा, अगला पाठ भी, आधार-भूमि न होने से हृदयंगम नहीं किया जा सकता। निदान विद्यार्थी न इधर का रह जायेगा और न उधर का। देखने में शिक्षा पाता हुआ भी अशिक्षित जैसा ही रह जायेगा। जो ज्ञान पूरा और पक्का नहीं होता, वह न होने के समान ही है। बल्कि अधूरे और कच्चे ज्ञान से लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है।

इसी क्रमिकता का महत्व जानने वाले अध्यापक ही नहीं बहुत से बुद्धिमान भी विद्यालय में पता लगाकर और शिफारिस करके अपने बच्चे को अगली कक्षा में चढ़ाने के लिए रुकवाकर पिछली कक्षा का ज्ञान पूरा करने के लिये उसी में रहने देते हैं। वे जानते हैं कि यदि बच्चा पिछली कक्षा का ज्ञान पूरा किये बिना अगली श्रेणी में जायेगा तो उसका आधार निर्बल होता चला जायेगा और इस प्रकार उसकी शिक्षा असफल हो जायेगी। क्रमिक विकास ही जीवन का सच्चा एवं सार्थक विकास होता है। इसकी उपेक्षा करने वालों को सफलता के नाम पर शून्य ही हाथ आता है।

बात को और अधिक सरलता से समझने के लिये एक आध और उदाहरण ले लीजिये। व्यापार का क्षेत्र ले लीजिये। यह जो बड़े-बड़े उद्योग धन्धे दिखलाई देते हैं, यह सहसा यों ही इसी विशाल रूप में स्थापित नहीं हो गये। प्रारम्भ में इनका आकार बहुत छोटा रहा है और काम भी थोड़ा रहा है। इनके संचालकों ने धैर्यपूर्वक छोटी-छोटी मशीनों, साधनों और आदमियों से इन्हें शुरू किया था। थोड़ा-थोड़ा माल बनाया था और क्रम-क्रम से बाजार बनाया था।

यदि इनको सहसा ही यों ही विशाल रूप में खड़ा करके चलाने का प्रयत्न किया जाता तो न तो इनका सुचारु संचालन हो पाता और न नियन्त्रण। एक भयानक फैलाव और अस्त-व्यस्तता फैल जाती और तब उसको व्यवस्थित रूप दे सकना असम्भव हो जाता। उद्योग के क्षेत्र में बहुत से उतावले लोग आज भी इसी अक्रमिकता के कारण नित्य असफल होते देखे जाते हैं।

ऊपर छत पर चढ़ने का इच्छुक ऐसा कौन-सा व्यक्ति होगा, जो नसेनी के डंडों पर क्रम-क्रम से पाँव रखकर न चढ़ता हुआ, उनका उल्लंघन करके एक साथ ऊपर चढ़ जाने का प्रयत्न करेगा। वह जानता है ऊपर चढ़ने का नियम ही एक-एक डंडे पर पैर रखकर चढ़ने का है। जो ऐसा न करके इस नियम का व्यतिक्रम करता है और सहसा छलांग लगाने का उपक्रम करता है, वह निश्चय ही नीचे गिरकर अपने हाथ-पैर तोड़ लेने की तैयारी करता है। विकास के क्रम-बद्ध प्रगति का नियम अनिवार्य है। उसका व्यतिक्रम करके लक्ष्य की प्राप्ति कर सकना संभव नहीं।

यह नियम जब साधारण भौतिक उपलब्धियों में अनिवार्य हैं तो आध्यात्मिक प्रगति तो और भी कठिन तथा नियम साध्य है। इस क्षेत्र में प्रगति करने के लिये तो और भी धैर्य, सावधानी तथा क्रमबद्धता का विचार रखना होगा। उच्च-कोटि की आध्यात्मिक कक्षाओं में क्रमिक विकास करते हुये ही आगे बढ़ा जा सकता है। उतावली करने से जरा भी काम न चलेगा। अध्यात्म की आत्मिक कक्षा का तीसरा नंबर है। पहली दो कक्षायें शरीर और मन की हैं।

इन दोनों को पहले क्रमपूर्वक उत्तीर्ण करना होगा, उसके बाद आत्मा की आध्यात्मिक कक्षा में प्रवेश संभव होगा। जो यह चाहता है कि शरीर और मन के क्षेत्रों की उपेक्षा करके आत्मा की आध्यात्मिक क्षेत्र में शीघ्र से पहुंच जाय तो वह अनहोनी बात चाहता है। उसकी यह असंगत इच्छा पूरी नहीं हो सकती। उच्च-कोटी की अध्यात्मिक कक्षा में पहुंचने के लिये की जाने वाली साधना का प्रारंभ शरीर क्षेत्र में ही करना होगा।

शरीर और मन का क्षेत्र जब तक आध्यात्मिक साधना के अनुरूप न सुधारा जायेगा, तब तक ईश्वर दर्शन, आत्म-साक्षात्कार, समाधि, कुंडलिनी-जागरण आदि की सिद्धि मूलक बात सोचना व्यर्थ होगा। योग-क्षेम के अध्येता अच्छी तरह जानते हैं कि योग का प्रतिपादन करने वाले आचार्यों ने योग के जो सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, उनमें क्रमिक विकास के नियमों को प्रधानता दी है। उदाहरण के लिये पातंजलि और हठयोग ले लीजिये। यह दोनों योग बड़े शक्तिशाली और उच्च-कोटि के हैं। महर्षि पातंजलि ने योग के जो आठ अंग प्रतिपादित किये हैं, उनका क्रम इस प्रकार रखा है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और फिर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम आदि पहले चार अंग शरीर- शोधन से संबंधित हैं और बाद के प्रत्याहार आदि मन के शोधन से संबंधित हैं।

इसी प्रकार हठ-योग में भी साधना का जो क्रम रखा गया है, वह इस प्रकार है- नेति, धौति, वस्ति, न्यौली, बज्रोली, कपाल-भाति प्रथम षट्-कर्म और तदुपरांत षट्-चक्र वेधन और कुंडलिनी जागरण आदि का क्रम आता है। स्पष्टतया पूर्व के षट्-कर्म बाह्य-जीवन के परिशोधन के लिये हैं और बाद की साधना मानसिक श्रेणी की है। योग साधना में इस अनिवार्य क्रम का व्यतिक्रम करने वाले साधकों को न केवल असफल ही होना पड़ता है, बल्कि बहुत बार तो वे अस्त-व्यस्त मनोदशा वाले हो जाते हैं।

यह बात मान लेने में जरा भी संकोच नहीं होना चाहिये कि आज हम सब का बाह्य जीवन बड़ा ही अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित एवं अवांछनीय दशा में चल रहा है। यही कारण है कि जीवन क्षेत्रों में बहुधा असफलता का ही सामना करना पड़ रहा है। उन्नति और प्रगति के नाम पर हम कुछ कदम भी आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं। व्यावहारिक जीवन की अव्यस्था एवं अस्त-व्यस्तता हमारी हर साधना को निष्फल बनाती चली जा रही है। हम आध्यात्मिक साधना करते, पूरे समय प्रयत्न भी करते, परिश्रम एवं प्रसार से भी मुंह नहीं मोड़ते, तब भी देखते यही हैं जहां के तहां पड़े हुये हैं, जरा भी आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।

इस असफलता का क्या कारण है? यही कि हम अपना बाह्य जीवन ठीक न करके अक्रमिक रूप से साधना में जुट पड़ते हैं। ‘‘साधना द्वारा आत्म-बल प्राप्त कर जीवन लक्ष की ओर अग्रसर हो सकने की स्थिति में पहुंच सकना भी संभव है, जब प्रारंभिक भूमिका के रूप में बाह्य-जीवन को संतुलित, व्यवस्थित एवं शुद्ध बनाया जाय।’’ इस नियम की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते।

जो विद्यार्थी चतुर होते हैं और चाहते हैं कि निश्चित रूप से अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण हों, वे परीक्षा का प्रश्न-पत्र पाते ही सबसे पहले उन्हीं प्रश्नों को उठाते हैं जो उपेक्षाकृत अधिक सरल और उनके अधिकार के होते हैं और हल भी पहले उन्हीं को करते हैं। परीक्षा में पास होने का यही उचित और सरल नियम है। इसके विपरीत जो विद्यार्थी उतावले अथवा अचतुर होते हैं, वे ऐसी खोज-बीन नहीं करते। प्रश्न-पत्र पाते ही सहसा पहले प्रश्न से ही उत्तर लिखने में लग जाते हैं। निदान कठिन-कठिन प्रश्नों में लगे-लगे सारा समय खो देते हैं और तब वे सरल प्रश्न भी नहीं कर पाते, जिनको वे अधिकार पूर्वक आसानी से कर सकते थे। फल यह होता है कि वे उत्तीर्ण होने लायक अंकों से भी वंचित रह जाते हैं। यही बात उतावले साधकों के विषय में भी होती है। वे तन, मन की सरल साधना छोड़कर कठिनतर आत्मिक साधना में प्रवृत्त हो जाते हैं और सोचते हैं कि आत्म-विकास हो जाने पर शरीर और मन का सुधार तो आप ही आप हो जायेगा। यह विश्वास गलता तथा भ्रमपूर्ण है। आत्म-विकास का क्रम शरीर, मन और तत्पश्चात आत्मा है। न कि आत्मा, मन और तन। उल्टे मार्ग चलकर आज तक क्या कोई लक्ष्य पर पहुंच सका है?

साहस आत्म-परिष्कार में लगने से पूर्व शरीर और मन को सुसंतुलित एवं परिष्कृत करना चाहिये, क्योंकि सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत करके अलौकिक सिद्धि पाने की अपेक्षा, यह अधिक सरल एवं सुकर है। यही ठीक भी है और नियमानुकूल भी। जो तन, मन ही वश में न कर पाया, वह आत्मा पर क्या अधिकार कर पायेगा? सरल कार्यों में सफलता प्राप्त करने के उपरांत ही कठिन कार्यों का भार उठा सकना संभव होता है। पहले सरल प्रश्न करिये और तब कठिन प्रश्न हाथ में लीजिये, तभी उत्तीर्ण होने लायक अंक पा सकेंगे, अन्यथा नहीं।

यदि अध्यात्म की उच्च-कक्षा में पहुंचने की सच्ची जिज्ञासा है, यों ही खिलवाड़ के रूप में साधना का आश्रय नहीं ले रहे हैं तो उसका शुभारंभ शरीर क्षेत्र से करिये। अपना आहार-विहार, रहन-सहन, शयन-जागरण, श्रम, संयम, ब्रह्मचर्य आ‍दि का पूरा-पूरा ध्यान रखिये। अपनी दिनचर्या तथा जीवन-गति अधिकाधिक प्रकृति के अनुकूल बनाइये। आरोग्य और जीवन अवधि को दीर्घ तथा सुनिश्चित करिये। रोगों और व्याधियों की संभावना से मुक्त एवं निश्चिंत बनिये और तब इस प्रकार, शरीर गति पर पूरा नियंत्रण करने के बाद मन का परिष्कार करिये। उसे अधिकाधिक प्रसन्न स्वभाव वाला बनाइये, प्रयत्नपूर्वक उसके मल, विक्षेप आदि विकार निकाल डालिये। उसमें सद्विचारों, सद्भावनाओं एवं सदाशयता का समावेश कीजिये और इन तन, मन के दोनों साधनों को आपस में अनुकूलतापूर्वक जोड़कर सत्कर्मों के साथ आत्मा की आध्यात्मिक साधना की ओर अग्रसर होइये। तभी सफलता की आशा की जा सकती है, अन्यथा नहीं। जो निश्चित क्रम व्यवस्था को बिगाड़ कर छलांग लगाने का प्रयत्न किया करते हैं, वे बहुधा असफल ही होते हैं। ऐसे उतावले अथवा अक्रमिक व्यक्ति अव्यस्थित साधना के फलस्वरूप बहुत बार अपना व्यावहारिक जीवन भी बिगाड़ लेते हैं, अध्यात्मिक उन्नति की तो बात ही क्या? अस्तु क्रमपूर्वक सावधानी से आत्मा की ओर बढ़िये। आप अवश्य सफल होंगे, सिद्धि प्राप्त करेंगे।

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