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Magazine - Year 1969 - Version 2

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सन्त हरदास की भूमि-समाधि

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First 11 13 Last
यह गवर्नर जनरल लार्ड आकलैण्ड का कार्यकाल था। सन् 1837-38 की बता है। एक दिन गवर्नर जनरल के मिलिटरी पैक्रेटरी डब्लू जी0 ओसावार्न और उनके अंग-रक्षक कैप्टेन मैकग्रेमर लाहौर आये। इन दिनों पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह से सन्धि अंग्रेजों का मिशन प्रायः आया जाया करता था। काम कुछ होता नहीं था, इसलिये यह लोय अधिकाँश आमोद-प्रमोद, शिकार और इधर-उधर के मनोरंजन किया करते थे।

डा0 मैक ग्रेगर ने भारतीयों की योग विद्या के बारे में बड़ी बातें सुनी थी। वे योग का ऐसा कोई चमत्कार देखना चाहते थे, जिससे सुनी हुई बात को पुष्टि मिलती। इसी ख्याल से उन्होंने एक दिन महाराज रणजीतसिंह से कहा-”हमने भारतीय योग की बहुत प्रशंसा सुनी है, क्या आपकी दृष्टि में कोई ऐसा योगी हैं, जो कोई चमत्कार दिखा सकता हों?

महाराज रणजीतसिंह सम्भवतः पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी की हरकतें देखकर यह ताड़ लिया था भारतवर्ष में अंग्रेजों के इरादे षड़यन्त्रपूर्ण हैं, इसलिये सन्धि की उनकी कोई इच्छा नहीं थी तो भी उन्हें अंग्रेजों की झूठी प्रशंसा ने फाँस लिया और सन्धि हो गई। अंग्रेजों का यह प्रस्ताव कष्टदायक था, एक तरह से भारतीय धर्म और तत्त्व-दर्शन के लिये चुनौती थी, एक बार तो रणजीतसिंह के मन में आया कि जिन अंग्रेजों के आगे योग का मूल्य ओर महत्व चमत्कार भर है, उन्हें जीवन की सच्चाई, आत्म-कल्याण के प्रति न कोई श्रद्धा है, न जिज्ञासा इसलिये इन्हें क्यों न फटकार दिया जाये पर दूसरे ही क्षण दूसरा विचार आया कहीं ऐसा न हो कि इससे इन्हें भारतीयों पर लाँदन लगाने का अवसर मिले, इसलिये उन्होंने अन्यमनस्क ही सही प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

उन्होंने अपने गुरु सन्त हरदास का स्मरण कर उन्हें लाहौर बुलाया और सारी बातें उनसे निवेदन कीं। सन्त हरदास ने 40 दिन तक पृथ्वी में गड़े रहने का एक प्रयोग दिखाना स्वीकार कर लिया।

नियत दिन डा0 मैक ग्रेगर, कैप्टन वार्ड, रणजीसिंह जी व उनके परिवार के सदस्यों के सामने सन्त हरदास उपस्थित हुए उन्होंने कहा-”हम, आप जिन शरीरों से बने हैं, वह तो हवा, मिट्टी, पानी का संयोग मात्र है, त्राण और जीव-चेतना इससे मित्र सूक्ष्म और बड़े सामर्ध्ववान् तत्त्व हैं, जो लोग आत्म-चेतना पर नियन्त्रण कर लेते हैं, वे शरीर न रहने पर भी देश, सुन सकते है, देशाटन कर सकते हैं, बड़े-बड़े कार्य कर सकते हैं, जो कई टन समता वाली मशीनों से भी सम्भव नहीं हैं। इस शक्ति और ज्ञान का प्रयोजन आत्म-कल्याण है पर भौतिक और लौकिक कामनाओं में ग्रस्त नर कीट उसे समझ नहीं पाते। चमत्कार देखकर उनका कुछ भला नहीं होता तथापि भारतीय तत्त्वज्ञान और योग-विद्या को लोग योंही न समझें इसलिये हम एक प्रयोग आपको दिखायेंगे।

पृथ्वी में गड्ढा खोदा गया। सन्त हरदास ने मुख को छोड़कर सारे इन्द्रिय द्वार मोम से बन्द कर लिये जिससे भीतर किसी प्रकार की वायु न जा सके। 40 दिन की सारी क्रिया कागज में लिखाकर उन्होंने जीभ को तान्कण्ठ से लगाकर मुख से जाने वाली श्वाँस का मार्ग भी बन्द कर दिया, ऐसा करते हीं वे समाधि में चले गये। एक काठ से सन्दूक में श्वेत-वस्त्र बिछाकर बसनद समादी गई। उस पर सन्त हरदास को टिकाकर बक्स बन्द कर दिया गया। ताला लगाकर रणजीतसिंह महाराज की व्यक्तिगत मुहर से उसे सील कर दिया गया। वक्स ऐसा लकड़ी का था जिसमें कीड़े लगने की सम्भावना न हो। फिर उसे सावधानी से गड्ढे में रखकर ऊपर से मिट्टी कूट दी गई। एकहरी इटे लगाकर सीमेंट कर दी गई और तब लोग अपने-अपने घरों को चले गये।

40 दिन बाद डा0 मैक ग्रेगर उनके अनेक अँग्रेज मित्र महाराज रणजीतसिंह सभासद और सैंकड़ों प्रतिष्ठित व्यक्ति यह देखने के लिये उपस्थित हुये कि प्राणों पर नियन्त्रण कर लेना सचमुच सम्भव है क्या? अँग्रेजों के लिए तो यह महान् आश्चर्य जैसी घटना थी। प्राणायाम के द्वारा कुछ समय तक श्वाँस साधे रहना और फेफड़ों में भरी हवा से थोड़ी देर काम चला ले जाना तो उनकी समझ में आ गया था पर बिना कुछ खाये-पिये, श्वाँस लिये 40 दिन तक भूमि-समाधि लिये रहना ईश्वरीय चमत्कार से कम न था। इंग्लैंड, अमेरिका में हजारों प्रयत्न हो लिये मरणोन्मुख व्यक्ति को काँच के सन्दूक में रखा गया, शून्य में रखा गया पर चेतना पर नियन्त्रण न पाया गया। प्राण जब निकले तब उन्हें कोई रोक न पाया। जबकि यहाँ ऐसी परिस्थितियों में प्राण रोके रखने का प्रदर्शन था, जो सामान्य व्यक्ति के लिये कभी भी सम्भव नहीं हो सकता।

नियत समय पर गड्ढा खोदकर सन्दूक निकाला गया। सील ज्यों की त्यों, सन्दूक खोला गया। सन्त हरदास उसी शाँत, प्रसन्न मुद्रा में बैठे थे, जिसमें वह 40 दिन पूर्व बैठाये गये थे। उन्हें बाहर निकाला। गया। डा0 मैक ग्रेगी ले शरीर परीक्षा की, नाड़ी बन्द। हृदय-गति बिलकुल नहीं, निस्पन्दित। सारा शरीर ठण्डा। जीवन के कहीं कोई लक्षण नहीं। सिर पर हाथ फिराते हुए जब उनका हाथ चोटी वाले स्थान पर पहुँचा तो उनकी उँगली जल गई। झपटकर हाथ हटाया। यही एक स्थान था, जहाँ अग्नि जैसी ऊष्मा विद्यमान् थी।

शरीर परीक्षण समाप्त कर लेने के बाद जीभ को हाथ से पकड़ कर बलपूर्वक तालु से हटाया गया। कान,नाक से मोम निकाल ली गई। ठण्डा पानी सिर और सारे शरीर पर छिड़का गया। धीरे-धीरे चेतना सारे शरीर में दौड़ने लगी। श्वाँस चलने लगी, नाड़ियाँ चलने लगीं। हृदय धड़कने लगा, फेफड़े काम करने लगे। सन्त हरदास प्रसन्न मुद्रा में उठकर खड़े हो गये।

आश्चर्य चकित डा0 मैक ग्रेगर ने पूछा-”विलक्षण बात हैं महाराज! अपने इतने दिन तक बिलर श्वाँस, अन्न और जल के कैसे जीवित रह गये।” इस पर उन्होंने बताया-”शरीर में भरा हुआ प्राण वायु के द्वारा ही उपलब्ध होता हो सो बात नहीं। शरीर में ऐसे सूक्ष्म संस्थान और शक्ति प्रवाह विद्यमान् हैं, जिन पर नियन्त्रण किया जा सके तो मनुष्य की चेतना विश्व-व्यापी प्राण और महत्व से सम्बन्ध जोड़ लेती है, मस्तिष्क में वहाँ हम भारतीय चोटी रखते हैं, यही वह स्थान है, जो विराट् विश्व में व्याप्त चेतना और देव शक्तियों का सम्बन्ध शरीर से जोड़ देती हैं। समाधि अवस्था में आत्म-चेतना को मस्तिष्क में चढ़ा लेते हैं, उस समय बड़े सुखद स्वप्न और अनुभूतियां होती है। प्रत्यक्ष संसार की सी जानकारियाँ भी मिलती रहती हैं और शरीर को सड़ने-लगने से बचाने वाला प्राण-तत्त्व भी मिलता रहता हैं। मस्तिष्क में चोटी वाला स्थान इतना गर्म होना इसी सूक्ष्म क्रिया-शीलता का प्रमाण हैं।

‘हिस्ट्री आफ दि सिरब्स’ पुस्तक में डा0 मैक ग्रेगर ने इस घटना का उल्लेख करते हुए आश्चर्य प्रकट किया है- “श्वाँस-प्रश्वांसों को बन्द रखकर जीवित रहना विलक्षण बात हैं। दीर्घकालीन उपवास का साधु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उनके चेहरे की चमक और प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आया था।”

डा0 मैक ग्रेगर के इस आश्चर्य में और भी कई सत्य छिपे थे। जीवन की अमरता की पुष्टि और इस बात की पुष्टि भी इस घटना से होती है कि अति संसार में लौकिक और स्थूल जगत की अपेक्षा कम प्रसन्नता नहीं। जब सन्त हरदास ने कहा- “समाधि तोड़ी गई, तब मुझे कष्ट हुआ। मेरा मन नहीं करता था कि जिस आनन्दमय संसार में मैं विवरण कर रहा हूँ, उसे छोड़कर फिर शरीर में लौटूँ”। स्थूल जगत् के दुखों में सूक्ष्म जगत के आनन्द से इजारके अंश के बराबर भी सुख नहीं। साधारण व्यक्ति स्थूल सुखों में आसक्त होने के कारण उसे समझ नहीं पाते पर जैसे-जैसे शरीर योग, साधना उपासना, यम-नियम, प्राणायाम, उपवास आदि के द्वारा शुद्ध होकर दिव्य-शक्तियों के संपर्क में आने लगता है, यह अनुभूतियाँ भी स्पष्ट होने लगती हैं।”

सन्त हरदास में इस कथन को हम आज भी उसी सत्यता से ग्रहण करते हैं। देश में ऐसे हजारों- लाखों अनपढ़ उपासक हैं, जो इस तत्त्व-ज्ञान का विश्लेषण नहीं कर सकते पर अपनी शुद्धता के कारण वह साधन सम्पन्न और शिक्षित लोगों से भी बहुत अधिक सुखी, प्रसन्न और संतुष्ट होते हैं, यह ईश्वरीय तत्त्वों को सान्निध्यता का ही फल होता हैं।

अँग्रेज इस बात को समझ नहीं पाये। वे यह समझ रहे थे कि इस समाधि से साधु को कष्ट हुआ होगा। कुछ अँग्रेजों को तो अविश्वास तक था कि कहीं पीछे से गड्ढा खोदकर कोई ऐसी चालाकी न की गई हो, जिससे सन्त को श्वाँस और कोई औषधि मिलती रही हो, जो 40 दिन तक शरीर को जीवित बचाये रख सकने में सहायक हुई हो। सन्त हरदास उनके इस सन्देह को ताड़ गये। अतएव उन्होंने एक और लम्बी समाधि में बैठने का निश्चय किया।

इस बार जनरल बेनदुरा के नेतृत्व में सन्त हरदास ने दूसरी समाधि मई 1638 में अदीना नगर में ली। समाधि का क्रम पहले जैसा ही था। पर जनरल बड़े चतुर थे। गड्ढा खोदने की कोई सम्भावना न रहे, इसके लिए उसने सारे खेत में जिसमें सन्त हरदास से समाधि ली थी, जो की बोवाई करा दी। फसल तैयार होने पर उसे काट लिया गया। फिर उस पर दुबारा हल नहीं चलाने दिया गया ताकि जी की जड़ें इस बात की गवाह बनी रहें कि खेत कहीं खोदा नहीं गया।

सन्त हरदास दस माह तक समाधि में रहे। इस बीच कई बार इस भूमि का निरीक्षण किया गया। दस माह पूरे हुए तब जनरल बेनटुरा, डब्लू एच॰ मैकनाटन, कैप्टन, मैक ग्रेगर डा0 ड्रमण्ड आदि की उपस्थिति में फिर गड्ढा खोदा गया। सन्त हरदास को पहले जैसी ही स्थिति पाई गई। समाधि स्थिति से वापिस लाते ही शरीर फिर काम करने लगा। तोपें दाग कर सन्त का सम्मान किया गया। महाराज रणजीतसिहं सहित अन्य लोगों ने सन्त को बहूमूल्य उपहार भेंट किए पर सन्त के लिए मानों इन लौकिक वस्तुओं की कोई कामना ही न थी। अध्यात्म की शक्ति और प्रसन्नता के आगे यह उपहार फोके थे।

कैप्टेन ओसबर्न ने इस घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘रणजीतसिंह’ में बड़े भावपूर्ण शब्दों में करते हुए लिखा है-”भारतीयों के पास ऐसा असभ्य ज्ञान और विलक्षण क्षमतायें हैं, जिन्हें पूर्व तब तक नहीं समझ सकता, जब तक उसे योग विद्या का ज्ञान न हो। निःसन्देह भारतीयों के पास कोई ऐसी वस्तु हैं, जो लौकिकता और भौतिकता से बढ़कर हैं, अन्यथा उसे प्राप्त करने के लिये, वे इतने कठिन तप और योगाभ्यास न करते।”

जिस योग विद्या की पाश्चात्यों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है, खेद है कि हम भारतीय उसे भूलकर पाश्चात्यों की भौतिकतावादी शिक्षा और संस्कृति को अपनाने में गौरव अनुभव करते हैं। भारतीय योग विद्या और तत्व-ज्ञान की शक्ति और सामर्थ्य का पारावार नहीं यह घटना उसका एक छोटा-सा चमत्कार है। योगाभ्यास और ईश्वरीय शक्तियों के अवगाहन से इससे भी महत्वपूर्ण लाभ और सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।

“असुरों से पराजित देवगण, त्रस्त होकर कन्दराओं में, समुद्र के तल में तथा आकाश के शून्य विस्तार में जा छिपे।” “किन्तु दानवों के मृत्यु दूतों ने उन्हें खोज ही निकाला। परेशान होकर वे प्रजापति के पास गये। और बचने का उपाय पूछा। उन्होंने कहा कि तुम सब, समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त स्वर में विलीन हो जाओ।”

माँ सरस्वती! की शरण लेकर सब अव्यक्त स्वर जाल में छिप गये। स्वर कभी नष्ट नहीं होता। अमरता प्राप्त सन्निवेश होने के कारण समस्त देवता भी अमर हो गये।”

उपनिषद् में इस अक्षर स्वर (शब्द) को ही ब्रह्म कहा हैं। जिस स्वर ने देवताओं की रक्षा की थी, वही स्वर संगीत मरणधर्मी मनुष्य को भी अमरत्व प्रदान कर सकता है। इस नाद स्वर से श्रेष्ठ कोई शक्ति नहीं। और नादसंधान से श्रेष्ठ कोई पूजा नहीं। समस्त नाद का आदि तथा अन्त प्रणव है। उसी से सबका सृजन हुआ हैं और उसी में सबको विजीन होना हैं।” -जैमिनोय ब्राह्मण,

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