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Magazine - Year 1969 - Version 2

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कर्त्तव्य धर्म की साधना

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आनी सहज सकरुण दृष्टि डालते हुए तथागत भगवान् बुद्ध ने पूछा-”अशोक! स्वस्थ तो है न? प्रजा के कोई कष्ट तो नहीं? पाटलिपुत्र पर भगवती गंगा का प्रकोप बढ़ रहा था, वह रुक गया या नहीं?”

और अशोक तब तक मौन थे, जब तक उन्होंने तथागत को प्रणिपात नहीं कर लिया। चरण धूलि मस्तक पर लगाकर वे भगवान् बुद्ध के समीप ही एक और बैठ गये। बैठते हुए तथागत के प्रश्नों का उत्तर भी दे डाला-”भगवत्! आपकी चरण रज जिस मस्तक पर कृपा बरसाँये उसके अनुगल की कामना तो भगवान् इन्द्र भी नहीं कर सकते। हम स्वस्थ है, प्रजा सुखी है, बाढ़ का जल राजधानी की सीमा रेखाओं का साश छोड़कर पीछे लौट गया है। सब ठीक है किन्तु। उससे आगे कुछ कहते-कहते वे एकाएक रुक गये। सम्भवतः उन्हें अपनी बात सर्वसाधारण के समक्ष व्यक्त करने में संकोच हो रहा था।

कहो, कहो अशोक तुम्हारी व्यग्रता का कारण क्या हैं? कौन-सी समस्या है, जिसने पाटलि-नरेश को विस्मय में डाला है। कहो! कुछ संकोच हो रहा हो तो एकाँत की व्यवस्था की जाये?

उपस्थित भिक्षु-भिक्षुणियों एवं सुदूर गणराज्यों से पधारे धर्म-तत्व जिज्ञासुओं पर अपनी दृष्टि दौड़ाते हुए पाटलि नरेश महाराज अशोक ने अपनी सम्पूर्ण दृष्टि भगवान् बुद्ध पर डालो और विनीत भाव से कहने लगे-”नहीं, देव। ऐसी तो कोई बात नहीं पर जो कुछ हुआ वह ऐसा भी नहीं जिस पर विचार न किया जाये। भगवन्। पाटलि पुत्र! अपने नागरिकों की चरित्र निष्ठा के लिये दूर-दूर तक विख्यात है। यहाँ की कुल वधुयें अपने शील वैभव की सब प्रकार से रक्षा करती हैं। इस देश में उच्छृंखलता का कहीं भी नाम-निशान तक नहीं है, त्यागी और तपस्वियों विद्वानों और तत्त्व-दर्शी सिद्ध पुरुषों का अभाव भी नहीं है पर जो कार्य किसी महान् धर्मनिष्ठ को पूरा करना चाहिये था, उसे शोल, सदाचार से सर्वथा रहित कोई नगर वधू करे इस विस्मय का समाधान नहीं हो पाता। इसी कारण आज आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं।

अभी तुम्हारी पूरी बात समझ में नहीं जाइ अंश के हुआ क्या हैं वह विस्तार से कहो-भगवान् बुद्ध ने उन्हें आश्वस्त करते हुये पूछा।

अशोक कहने लगे-”भगवन्! तीन दिन पूर्व भगवती भागीरथी ने अपना प्रचण्ड रूप धारण किया, नगरकोट की रक्षण दीवारें ही नहीं प्रधान दुर्ग का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया। ऐसा लगता था वे इस बार सम्पूर्ण पाण्लि पुत्र को अपने जल आक्रोश में डुबो कर ही छोड़ेंगी। चरों मैं पानी भरने लगा। गायों, बछड़ों के लिए सूखा स्थान नहीं रहा, विकट परिस्थिति की आशंका से सभी लोग काँप गये।

तब राष्ट्राध्यक्ष के नाते मेरा यह कर्त्तव्य था कि उसे संकट से बचाने का कुछ उपाय कारूं। मैंने सभा-सचिवों से विचार विमर्श किया। पाटलिपुत्र में जो भी धर्मनिष्ठ एवं विचारशील लोग थे, सब की गोष्ठी बुलाई। लोगों ने बाढ़ के प्रकोप से बचने के लिये अपनी-अपनी तरह के सुझावे दिव यज्ञ,जप, तप साधन, व्रत और उपवास भी किया गये पर जल-राशि सुरसा के शरीर की तरह बढ़ती ही गई। कोई उपाय कारगर न हुआ।

महान् आश्चर्य-महाभाग कि उस संकट की घड़ी से जब कोई उपाय पाटलि पुत्र की रक्षा करने में समर्थ न हुये तो एक अनिश सुन्दरी नगर-वधू वहाँ आ पहुँची। सुन्दर सा नाम है उसका, मोग बिन्दुमती के नाम से पुकारते हैं। नगर के धन सम्पन्न काम चोलुप व्यक्तियों की वासना तृष्णा की पूर्ति ही उसकी आजीविका का आध्यम हैं। उसने जीवन में कभी तप नहीं किया। माल नहीं वेरी यहा तक कि उसने चरित्र निष्ठा, शील और सदाचार का महत्व भी नहीं समझा पर उसने तो धर्म-तत्त्व वेत्ताओं के सम्पूर्ण ऐश्वर्य पर पानी फेर दिया। भगवती गंगा के सम्मुख खड़ी होकर उसने अनन्त जल-राशि की आरती, मैंने उसे एक क्षण के लिये हो ध्यान-मुद्रा में देखा, इसके बाद जो कुछ हुआ, मुख पर लाते हुए भी लज्जा, आती है, देव।

हजार लोगों को भीड़ के सामने उसने भगवान् सूर्यदेव और आकाश को साक्षी बनाया और अश्रुपूरित गद्-गद् गिरा में मोली-”भगवती गगे! यदि मैंने सम्पूर्ण जीवन अपने कर्त्तव्य का पालन निष्ठा-भाव से किया हो तो अब अपनी जल-राशि समेट लो और मेरे देशवासियों को चैन की साँस लेने दो।”

एक बूँद, दो बूँद, तीन बूँद-बूँदों की अविरल झड़ी लग गई। उसकी आँखें बरसती रहीं, उस खारे जल ने मन्दाकिनी की पवित्र जसधार का स्पर्श मात्र किया था कि इनका प्रकोप अपने आप घट चला। देखते हो देखते भगवती गंगा ने अनधिकृत प्रदेश से अपना अम्बु-आलोड़ खींय लिया और अपनी चिर-धारा में वेगवती हो उठीं। योगी-सिद्धों और धर्म-तत्त्व वेत्ताओं की यह असमर्थता और शील रहित नगरबबू की विजय-ऐसा लगता है देय! कहीं प्रजा भ्रम में न पड़ जाये। लोग धार्मिक मर्यादाओं की अवहेलना न करने लगें। यही मेरी चिन्ता का कारण हैं।

भगवान् बुद्ध मुस्कराये, उन्होंने कोई उत्तर या समाधान नहीं किया। प्रिय शिष्य आनन्द को समीप बुलाकर कान में कुछ कहा और उस दिन की धर्म-सभी विसर्जित कर दीं। महाराज अशोक के आतिथ्य को सम्पूर्ण व्यवस्था करने के उपरान्त आनन्द कुछ भिक्षुओं के साथ पाटलिपुत्र की ओर जाते दिखाई दिये।

भगवान् बुद्ध इस समस्या का दया उत्तर देते हैं, यह जानने की सभी में प्रबल जिज्ञासा थी। इसलिये रात सब ने बेचैनी और प्रतीक्षा में व्यतीत की। प्रातःकाल हुआ, देवी ऊषा के आगमन होते ही कई चीवरधारी भिक्षु आश्रम की व्यवस्था में जुट गये। ऐसा लगता था, जैसे आज कोई बड़े धर्मोत्सव की तैयारी की जा रही हो। सभी अपनी दैनिक उपासनायें कर सभा-कक्ष में जुड़ने लगे। थोड़ी देर में सभा-भवन पूरी तरह भर गया। सम्राट् अशोक भगवान् बुद्ध के समीप बैठे।

एक भिक्षु ने सूचना दी भगवान् आनन्द पाटलिपुत्र से जा गये हैं, नगर वधू बिंदुमती उनके साथ ही हैं। अशोक चौके पर इससे पूर्व वे कुछ पूछें, भिक्षु भगवान् बुद्ध का सकेत पाकर बाहर निकल गया। थोड़ी ही देर में शिष्य आनन्द के साथ बिन्दुमती ने उस सभा-मण्डप में प्रवेश किया। उसका सौंदर्य उतना आकर्षक नहीं था, जितना स्वाभिमान। जीवन भर लोगों की वासना की पूर्ति करने वाली नासे के मुख-मण्डल पर भी इस प्रकार का सन्तोष और बरवन आकृष्ट कर लेने वाली गम्भीरता भिक्षुओं और अन्य सभासदों की गम्भीरता से कम न थी। भगवान् बुद्ध ने उसका स्वागत ठीक उसी तरह किया, जिस तरह स्वसुरालय से लौटी हुई पुत्री का स्वागत एक पिता भरे हुए हृदय से करता है। तथागत की आज्ञा से बिन्दुमती उनके पास ही बैठीं। सारी सभा में सन्नाटा छाया हुआ था।

भगवान् बुद्ध ने एक बार सारे सभासदों की ओर अध्ययन दृष्टि से देखा और फिर अत्यन्त करुण भरी दृष्टि से बिन्दुमती की ओर देखते हुए कहा-”पुत्री। पाटलिपुत्र के नागरिक और स्वयं सम्राट अशोक को विस्मय है कि तू भ्रष्ट, वासनालोलुप और दूसरों का बन हरण करने वाली वेश्या है। तुझमें वह कौन-सी शक्ति थी, जिसने भगवती गंगा को भी अपनी बाढ़ समेटने को विवश कर दिया।”

बिन्दुमती ने एक बार तथागत के चरणों पर दृष्टिपात किया और एक शक्ति-सी अनुभव करती हुई बोल-”वह मेरी नहीं’ कर्त्तव्य निष्ठा की शक्ति थी।”

अशोक ने पूछा-”कर्त्तव्य-निष्ठा की शक्ति तुझमें कैसे सम्भव है?”

बिन्दुमती बोली-”महाराज! मैंने आजीविका के लिये अपने शरीर का व्यापार किया है, वासना के लिये नहीं और अपने कर्त्तव्य का पालन पूर्ण निष्ठा के साथ किया। धनी, निर्धन, ब्राह्मण, शूद्र का भेदभाव किये बिना मैंने प्रत्येक ग्राहक को सन्तुष्ट किया है। जिसका धन लिया उसके साथ विश्वासघात नहीं किया, वरन् उसकी इच्छा से कुछ अधिक ही सन्तोष उसे प्रदान किया। यही मेरी सत्य निष्ठा है। जिसने गंगा जी को भी प्रभावित किया।”

और इससे पूर्व कि भगवान् बुद्ध कुछ कहें नृपति अशोक स्वयं उसके चरणों पर जा गिरे और बोले-”भद्रे! तुम्हारा कथन सत्य है। निश्चय हो अपने कर्तव्य का निष्ठा पूर्वक पालन करने से बड़ा और कोई धर्म नहीं है।

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