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Magazine - Year 1969 - Version 2

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दीर्घायुष्य, दीर्घायुष्य, दीर्घायुष्य-रहस्य

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“आज आप मेरे मेहमान है, लोग यह सुने कि आजीवन साधारण भोजन करके भी 152 वर्ष की आयु तक जिया जा सकता हैं, आपके प्रति ऐसा सम्मान व्यक्त करने के लिये ही राज-भवन के प्रीतिभोज का आयोजन किया है।” यह शब्द कहकर इंग्लैंड के सम्राट् चार्ल्स प्रथम ने दीर्घजीवन प्राप्त थामस को अपने पास बिठा लिया। फोटो खींचे गये, भेंटें दी गई। जितना सम्भव था सम्मान किया गया। उस क्षण थामस अपने आपको बादशाह से कम अनुभव नहीं कर रहा था।

उस बेचारे का व्यापता था कि जिन्हें शान-शौकत का जीवन कहते हैं, जहाँ प्रतिदिन मेवे, मिष्ठान्न, पूड़ी, पकवान पर हाथ साफ किये जाते हैं, उन पर शीघ्र मौत की छाया इसलिये मंडराती रहती है कि अस्वाभाविक, जले-भुने गरिष्ठ आहार के कारण उनके पेट खराब रहते है, मन खराब रहते है, शराब पीना पड़ता है, संयम नष्ट करके अपना आरोग्य नष्ट कर देना पड़ता है। यह पता होता तो बेचारा उस क्षणिक सम्मान की प्रसन्नता के साथ अपने प्राण न गंवा देता।

आश्चर्य नहीं सत्य कि उसने जैसे ही प्रीति-भोज समाप्त किया उसकी मृत्यु हो गई। “152 वर्ष की आयु में उसका शरीर इतना जर्जर हो चुका होगा कि वह अधिक परिश्रम नृत्य-गीत की थकान सहन न कर सका होगा।” सम्भवतः आप यह सोच रहे हों पर नहीं ऐसा नहीं-152 की आयु होने पर भी थामस पूर्ण स्वस्थ थे, कच्चा खाना बाखूबी हजम कर सकते थे, 8 घण्टे की भरपूर मेहनत भी कर सकते थे, शव की जाँच करने वाले डाक्टरों ने बताया- “मृत्यु तो गरिष्ठ भोजन के कारण हुई हैं। वही गरिष्ठ भोजन जिसे पाने में भारतीय अपना गौरव समझते है। अनुमान लगाया जा सकता हैं कि जब एक बार के गरिष्ठ भोजन ने एक व्यक्ति के प्राण ले लिए तो अभ्यास में आये रोजे-रोजे के जले-भुने-तले आहार से अधिकाँश लोगों के पेट, स्वास्थ्य और जीवन की क्या स्थिति होती होगी। कराहते हुए अधिक से अधिक 60 की आयु। वही हम भारतीयों को उपलब्ध भी हैं।

पन्द्रहवीं शताब्दी में ऐसी ही आवृत्ति इंग्लैंड में ही एक किसान के साथ भी हुई थी, वह उस समय 270 वर्ष का था, उसकी इच्छा थी कि दो शतक जीने का आनन्द तो उसे मिले ही इसीलिये यह कुछ न कुछ शारीरिक भय तक भी करता था। 120 वर्ष की आयु तक तो उसने तीन व्यक्तियों के बराबर का श्रम किया था। किसान का कहना था-हम परिश्रम करके अपनी मृत्यु का दूर भगा देते है, यदि मनुष्य भरपूर मेहनत किया करे और स्वाभाविक आहार लिया करे तो हर कोई 100 की आयु तो आनन्द से जी सकता हैं।

लन्दन के सेंट लियोवाई गिरिजाघर में रखे जन्म-मृत्यु तिथि रजिस्टर में एक ऐसे व्यक्ति का नाम भी अंकित है, जिसका जन्म 1588 में हुआ था और मृत्यु 1795 में 207 वर्ष की आयु में, जब उसको मृत्यु हुई तब से पूर्व कई बार लन्दन के सम्भ्रान्त लोग उसके पास स्वार्स्डप और दीर्घ जीवन का रहस्य जानने जाया करते थे। वृद्ध जीने आकाश की ओर देखकर कहता-आप लोगों ने कभी तारे देखे हैं- उनमें किसी प्रकार की कृत्रिमता तो नहीं रहता। बसर्दि ही जीवन मनुष्य जिये तो कोई भी व्यक्ति 100 वर्ष तो आनन्द में जी हो सकता हैं।

हम वेष बनाव का जीवन, महल, मोटरों का जीवन के आकर्षण में प्रति क्षण घुसा करते है, यह जानते कि फाके की मस्ती और प्राकृतिक जीवन में जो आनन्द है, वह उसमें नहीं। थामस कार्न नामक इस व्यक्ति का जीवन अभावों से भरा रहा होगा पर आनन्द से रिक्त नहीं। अपने जीवन के अनुभवों की धाक जमाता हुआ, वह युवकों को डाँट कर कहता मैंने इंग्लैंड के राज-सिहाँसन पर 12 लार्ड बैठाये है, जो मैं जानता हूँ आप उसे क्या जानें।”

सचमुच 207 वर्षों की आयु में उसने प्रकृति के गंभीर रहस्यों को भी देखा और पड़ा होगा। यह लाभ उन्हें कहाँ मिल सकता है, जो आलस्य का वैभव विलास का जीवन जीते है पर अधिकाँश अपनी शारीरिक समस्याओं से ही छुट्टी नहीं पाते। ऐसे जीवों के अध्ययन से जो सदैव प्रकृति के समीप रहते है, पता चलता हैं जितने समय में प्राणियों का शरीर प्रौढ़ होता है, उससे पाँच मुने समय की आयु तो निश्चित होती ही है, प्रसिद्ध वैज्ञानिक जार्ज बफन ने इस सिद्धान्त की पुष्टि में अनेक जीवों के उदाहरण देकर मनुष्य की औसत आयु 125 वर्ष से 168 वर्ष की बीच निकाली है। उन्होंने बताया- “कुत्ता दो वर्ष में प्रौढ़ और प्रजनन योग्य हो जाता है, उसकी आयु दस वर्ष के लगभग होती है। घोड़ा पाँच वर्ष में अपनी पूर्ण ऊँचाई प्राप्त करके 25 से 30 वर्ष की आयु तक जीता है। आठ वर्ष में युवा हो जाने वाले ऊँट की आयु 40 वर्ष, 40 वर्ष की आयु में पूर्ण विकसित होने वाले हाथी का जीवन काल 200 वर्ष होता है। यदि पूर्ण ब्रह्मचर्य रहकर शरीर को शराब, गरिष्ठ भोजन और औषधियों से बचाकर रखा जाय तो मनुष्य का शरीर 25 से 28-30 वर्ष में पूर्ण विकसित होता है। और इस हिसाब से उसे 125 वर्ष से अधिक ही आयु का होना ही चाहिये।

भारतीय धर्म-ग्रन्थों में ‘जीवेम् शरदः शतम्’ ‘हम सौ वर्ष के आयुध्य का उपभोग करें’ की कामना की गई है, वह उस समय के संयमित और प्राकृतिक दिनचर्या को देखते हुए अत्युक्ति नहीं थी। सूत्रस्थान अध्याय 27 में आचार्य चरक ने मनुष्य की आयु में 36000 रात्रियाँ होने का उल्लेख किया है, यदि मनुष्य हँसी-खुशी, परिश्रम और सादगी का आचरण करे तो इतनी आयु का होना कोई कठिन बात नहीं हैं।

ऐसे सैकड़ों उदाहरण है जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है। 1750 में हंगरी का बोविन 172 वर्ष की आयु में मरा तब उसकी विधवा पत्नी 164 वर्ष की थी और सबसे बड़े बेटे की उम्र 115 वर्ष थी। वियेना के सोलियन साया 132 वर्ष की आयु के होकर मरे थे, उन्होंने 98 वर्ष की आयु में 7 वीं शादी की। विवाह समारोह के बीच किसी ने चुटकी लेते हुए कहा- “आप अपनी नव-विवाहिता को कब निराश्रित कर देंगे” तो उन्होंने अपनी माँसल भुजाओं की ओर देखकर कहा 40 साच से पहले नहीं। अपने शरीर और स्वास्थ्य पर इतना गहन नियन्त्रण रखने वाले सावा की मृत्यु 40 तो नहीं इस विवाह से 34 वर्ष बाद हुई इस पत्नी से भी तीन पुत्र हुए, जबकि इससे पूर्व वह 69 पुत्र-पुत्रियों के पिता होकर ‘बहु पुत्र लाभम्’ का आशीर्वाद सार्थक कर चुके थे।

रोम की दो मतंकियों की आयु 104 और 112 गथ का उस्लेश करते हुए वहाँ के एक पत्र ने लिखा था कि नृत्य उनके लिये व्यवसाय नहीं, साधना थी। उन्होंने नृत्य की परमात्मा का वरदान मानकर शिरोधार्य किया था, सदैव हँसती-खेलती रहने के कारण उसके स्वास्थ्य में कभी कोई गड़बड़ी नहीं आई। 1767 में फ्राँस में एक ऐसी अभिनेत्री का निधन हुआ, जिसने 111 वर्ष की आयु पार कर ली थी। इस अभिनेत्री का जीवन सारमम्व अभिनेत्रियों से भिन्न था, साधन और सम्पत्ति की प्रचुरता होने पर भी अपने प्राकृतिक जीवन के आनन्द को नहीं छेड़ा, वह अधिकाँश नदियों या झरनों में स्नान करती, जंगलों में चूमने जाती, बाहर के कार्यक्रम न रहने पर भी घर में नृत्य इतना अभ्यास करती, जिससे शरीर का सारा मंज के रूप में निकल जाता। डेमोक्रिट्स 109 वर्ष का जीवन जीकर मरे, उन्होंने अपने जीवन में खराब मसाले और माँस का कभी उपयोग नहीं किया। काँश उबली हुई सब्जियाँ, नींबू, शहद और ककड़ी हरे शाक और फल खाते थे। डबल रोटी एक बार ली हो पर शाकाहार उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।

वेलेर-मकरेन आयु 190 वर्ष जोसेफ सूरिमटव 160 वर्ष और नार्वे के ड्रेमन वर्ग ने 146 वर्ष की आयु का आनन्द लिया। रस के ईवान कुस्मिन जामक किसान ने 130 वर्ष की आयु तक आनन्द का जीवन बिताकर यह सिद्ध कर दिया कि जीवन को बढ़ाना मनुष्य के वश की बात हैं। 1. सादा और शाकाहारी भोजन, 2. भरपूर परिश्रम, 3. प्रकृति की घनिष्ठता, इन तीन छोटी-छोटी बातों में ही दीर्घजीवन का रहस्य छुपा हुआ है। इन नियमों का उल्लंघन करने वाला चाहे कोई साधारण व्यक्ति हो, चाहे सम्राट् अपनी मृत्यु ही बुलायेगा।

व्यायाम का थोड़ा-सा भी नियम रखकर हम अपने आयुष्य को बड़ा सकते है, यह स्वीडन के मिलिटरी जाफिसर रेवरेंड का कथन है, जिसने 70 वर्ष तक फौजी संवा की। 17 युद्धों में भाग लेने वाले इस ऑफिसर का नियम था प्रतिदिन कम से कम 5 मील चलना। जिस दिन मृत्यु हुई, उस दिन भी वह दो मील चलकर आया था। ब्रिटेन के ईफिगम से पूछा गया, आप की महत्वाकांक्षा क्या है- क्या आप बड़े आदमी नहीं बनना चाहते? तो उसने हँस-कर कहा- “परिश्रम के जीवन से मुझे इतना मोह हो गया है कि अब कोई, महत्वाकाँक्षा रही हो नहीं। आप देखते नहीं मैं कितना स्वस्थ हूँ, कितना प्रसन्न हूँ, मेरे भीतर से हर घड़ी आनन्द का फव्वारा छूटता रहता हैं।”

सचमुच इस तरह परिश्रम में आनन्द विभोर जीवन जीने वाले बीमार नहीं पड़े। जब कभी बरसात होती थी वे बच्चों की तरह किलकारी मारते हुए जाँघिया पहन कर निकल आया करते थे और घण्टों वर्षा की फुहार का आनन्द लिया करते थे।

प्रकृति माता है उसकी गोद में रहकर मनुष्य को रुपया पैसा भले ही नहीं मिले पर जीवन के लिए अभीष्ट प्रसन्नता, प्रफुल्लता, आनन्द, सुख और सन्तोष का अभाव नहीं होने पाता रोग, शोक और बीमारियाँ तो तब होती हैं, जब हम अपने जीवन की गतिविधियों-आहार-बिहार से लेकर काम करने तक-को अस्वाभाविक, आलस्य और चिन्तापूर्ण बना लेते हैं। 8000 फुट की ऊँचाई पर रहने वाली हिमालय की हुँजा जाति के लोग अभी भी अपना जीवन निर्वाह अधिकाँश शाक और जंगली फल-फूलों पर करते हैं वस्त्र उन्हें साभरण ही मिल पाते हैं, आमोद-प्रमोद लिए उनके पात यदि कुछ है तो वही पहाड़ों पर चढ़ना झरनों में स्नान करना आदि इस पर भी वे संसार के सर्वाधिक दीर्घजीवी माने जाते हैं।

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के चिकित्सा विभाव के अध्यक्ष श्री गेजर जनरल राबर्ट मैककैरिसन दस हजार हुजाओं के बीच अकेले डाक्टर रहे, जबकि शेष भारर्तवर्ष में प्रति 800 व्यक्ति, एक डाक्टर नियुक्त हैं। इस पर उन्हें दिन भर कोई काम न रहता इससे ऊबकर उन्होंने अपना समय इस जाति के दीर्घ-जीवन के रहस्यों का लगाने में उपयोग किया उन्होंने सैंकड़ों चूहों को पड़कर उन्हें अंग्रेज चूहें- हुँजा चूहे थे दलों में बाँटकर एक को हुजाो द्वारा निबे जाने वाला साधारण भोजन कराया दूसरों को अँग्रेजों द्वारा लिया जाने वाला गरिष्ठ माँसाहार उन्होंने पाया कि हुँजूर दस हयेत्रा स्वस्थ और तन्दुरुस्त रहा पर अंग्रेज चूहों का दल हमेशा बीमारियों में ग्रस्त रहा। उनमें अधिकाँश को गर्भपात हुआ। चूहा मातायें अपने बच्चों को पर्याप्त पोषण भी नहीं दे पाई। उन्हें ऐसी ऐसी बीमारियाँ हुई, जिनका खास्त्र में कोई तक नहीं।

इन दीर्घ जीवियों के अध्ययन से कुछ साथ समय सकें, अपने जीवन के सादा, शाकाहारी शुद्ध और बिक बना सकें तो कोई कारण नहीं भी के जीवन का आनन्द न ले पाये।

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