Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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जन्म-मृत्यु के जाल में इच्छायें बाँधती हैं
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पकाये माँस की पहली कटोरी जैसे ही बच्चे के सामने रखी गई, उसने भोजन करने का वह स्थान ही छोड़ दिया। फिर माँ के लाख प्रयत्न करने पर भी बच्चे ने उस दिन भोजन नहीं किया। उसने दृढ़तापूर्वक बताया-”माँस वैसे हो घृणित खाद्य है पर वह जिस तरह जीवों का उत्पीड़न करके निकाला जाता। उससे दुर्गुण बढ़ते हैं। मेरे लिये दूध और फल ही काफी हैं। फिर मेरे आगे माँस लाया गया तो मैं तुम लोगों के साथ नहीं रहूँगा।
अमेरिका जहाँ छोटी आयु से ही बच्चों को माँस खाना और शराब पिलाना सिखाकर उन को गर्म प्रकृति का उत्तेजनशील प्राणी बना देते हैं, वहाँ बिना किसी पूर्व शिक्षा और ज्ञान के एक छोटे बच्चे का माँस के दुर्गुण के प्रति यह व्याख्यान आश्चर्यजनक ही था। माँ ने यह बात लड़के के पिता से भी कही पर पिता ठहरे वैज्ञानिक-सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। सोचा लड़के जिद्दी प्रकृति के होते हैं, कोई बात हो गई होगी। बच्चा अपने आप पारिवारिक साँचे में ढल जायगा। इस आत्म-आश्वासन के साथ ही वे अपने काम में जुट गये।
जिस घटना क्रम का विकास इन पंक्तियों में हो रहा है, वह कोई कहानी नहीं वरन् एक ऐसी घटना हैं, जिसने अमेरिका के लब्ध-प्रतिष्ठ जीव शास्त्री डा. ह्यूम वाँल एरिच जैसे वैज्ञानिक को भी चक्कर में डाल दिया। प्रथम अवसर था, जब उन्हें यह विश्वास करना पड़ा कि “भारतीयों का पुनर्जन्म सिद्धान्त कोरी कल्पना नहीं वरन् सुनिश्चित तथ्य हैं और सम्भवतः पाश्चात्य वैज्ञानिकों की आनुवांशिकता सम्बन्धी शोधों का स्रोत भी वहीं जा कर टूटे।”
डा0 ह्यूम के पहले कई वैज्ञानिकों ने यह खोज लिया था कि संसार के जितने जीवित प्राणी हैं, वे ‘प्रोटोप्लाज्मा’ नामक तत्त्व से बने हैं। प्रोटोप्लाज्मा का एक कोष (सेल) दो भागों में विभक्त होता हैं-1. नाभिक (न्यूक्लिस), 2. साइटोप्लाज्मा। साइटोप्लाज्मा प्रकृति पदार्थों के सम्मिश्रण से बनता हैं, जिसमें जल प्रोटीन कार्बोहाइड्रेट, लवण तथा धातुयें आदि होते हैं, नाभिक विशुद्ध प्रकाशीय अवयव है। पर यही चेतना का बीज हैं।
डा0 ह्यूम सृष्टि के रहस्य जानने के लिये शोध कर रहे थे। वे नाभिकों के घेरे में रहने वाले गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) का अध्ययन कर चुके थे। उन्होंने देखा इन गुण सूत्रों में ऐंठी हुई रस्सी में पड़े बल, या गाँठों के आकार के एक कोशिका में अरबों की संस्था में संस्कार कोष विद्यमान है, यह संस्कार कोष ही गर्भाशय में पहुँचकर आने वाले बच्चे का रंग-रूप सिर से पैर तक की आकृति गाँठ, बाल, हड्डी, हाथ सब को बनावट निश्चित करते हैं। बालक के स्वभाव के लिये भी यह संस्कार कोष ही उत्तरदायी हैं।
डा0 ह्यूम प्रकृति के इस विधान पर अधिकार प्राप्त करना चाहते थे। इसलिये संस्कार कोषों का वे दीर्घकाल से अध्ययन कर रहे थे। जीवन संसार की एक जटिल प्राणी हैं। और वैज्ञानिक उसे अभी नहीं जान सके, यह वह मानते थे पर उसे ढूँढ़ा नहीं जा सकता, यह उनकी मान्यता के विपरीत था, इसलिये उन्होंने अपनी शोध का क्रम बन्द नहीं किया।
डा0 ह्यूम वाँन एरिच का संस्कार कोषों (जीन्स) अध्ययन में और भी प्रगति हुई होती पर एक अप्रत्याशित घटना ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। अब तक की शोध के आधार पर उनका विकास था कि शरीर रचना की तरह गुण और संस्कार भी अनुवाँशिक होते हैं अर्थात् उनमें कोई अतिवाहिकता नहीं होती, ये भी जीन्स के द्वारा माता-पिता अथवा ऊपर की ही किसी पीढ़ी से आये हुये होते है, जो सक्रिय कोष हैं, वह तुरन्त दिखाई देन लगते हैं पर अकर्मण्य पड़े संस्कार कई पीढ़ियों बाद जमाकर फलितार्थ होते हैं। लेकिन यहाँ जो हुआ उसने तो इस सिद्धान्त को ही काट कर रख दिया। यही लड़का जिसने एक दिन माँस को घृणित और पशु-प्रवृत्ति कहकर ठुकरा दिया था, आज पिता ह्यूम के सामने एक विचित्र भाषा में भाषण करने लगा। पहले तो पिता ने समझा कि लड़का अनर्गल प्रलाप कर रहा है पर जब लड़का कई दिन तक उसी प्रकार की टेढ़ी भाषा बोलता रहा तो उन्होंने भाषाविदों की सहायता ली। एक भाषाविद ने बताया कि लड़का शुद्ध संस्कृत में बोलता हैं। लड़के द्वारा बोले गये वाक्यांशों का टेप-रिकार्ड कराकर उनका भाषान्तर कराया गया तो पता चला कि लड़के ने जो कुछ कहा वह अनर्गल प्रलाप न होकर प्रवाहमान भावाभिव्यक्ति थी। ऐसी अभिव्यञ्जना जो किसी बहुत ही शिक्षित और समझदार द्वारा की गई हो। ह्यूम एक बार तो चक्कर खा गये, बच्चे में यह प्रतिभा कहाँ से आ गई, यह विचार क्षमता कहाँ से उत्पन्न हो गई।
उन्होंने अपनी पत्नी और पत्नी के सब सम्बन्धियों से पत्र डालकर पूछा, कोई भी ऐसा न निकला जो संस्कृत भाषा जानता रहा हो। जिन गई पीढ़ियों तक उन्होंने पता लगाया, संस्कृत तो क्या हिन्दी जानने वाला भी कोई नहीं हुआ था। ह्यूम स्वयं इटेलियन थे। उनकी धर्मपत्नी भी इटेलियन थीं, आजीविका की दृष्टि से वे अमेरिका में आकर बस गये थे। संस्कृत तो उनके वंशजों में कोई जानता ही नहीं था, फिर इस बालक में यह संस्कार कहाँ से आ गये? क्या सचमुच पुनर्जन्म होता हैं। क्या सचमुच चेतना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व भी है? जो मृत्यु के बाद भी अमर रहता हो, इस तरह के अनेक प्रश्नों ने उनके मस्तिष्क में तूफान अड़ा कर दिया।
समाधान उनके लड़के ने कर दिया। उसने बताया-मैं पूर्व जन्म का एक भारतीय योगी हूँ। मेरा सम्बन्ध ‘नाथ नामक एक सम्प्रदाय से था, जो उत्तरी पर्वतीय अंचल में पाया जाता हैं।” अपने निवास के बारे में बच्चे एकान्त साधना किया करता था।”
“योग साधना करते हुए भी मैं इच्छाओं के प्रवाह में बहता रहता। कभी भावनायें निष्काम हो जातीं तो भक्ति का आनन्द मिलता पर दूसरे ही क्षण धूप-छाँह की तरह परिस्थिति बदलती और कोई इच्छा आ खड़ी होती। एक दिन की बात है, दो अमेरिकन यात्री उस पहाड़ी पर चढ़ते हुए मेरी कुटी के पास एक आ गये, पूछने पर उन्होंने अमेरिका को रंगीनी के बढ़-चढ़कर समाचार बताये। मैं बड़ा प्रभावित हुआ। मुझे लगा वहाँ जीवित स्वर्ग हैं। एकाएक इच्छा हुई कि अमेरिका जाऊँ और वहाँ का आनंद लूँ। पर थोड़ी ही देर में बहक का पता चल गया। उसके बाद बहुत प्रयत्न किया पर जिस तरह अन्ध-विश्वास में जकड़े लोग किसी बुद्धिमान का कहना नहीं मानते, बार-बार ठगते रहते हैं, उसी प्रकार मेरी यह इच्छा भी मुझे बनात अमेरिका के रंगीन जीवन की ओर खींचती रही। जब मेरी मृत्यु हुई, तब भी वह इच्छा मन में बनी रही। आप तो वैज्ञानिक हैं, यह जानते हैं कि तीव्र इच्छाशक्ति कई अनुवाँशिक गुणों को दबा नहीं नहीं सकती-उसी तरह नष्ट कर सकती हैं, जिस तरह परमाणु-विकिरण और विषाणु से उन्हें नष्ट या परिवर्तित किया जा सकता हैं। ईश्वरीय व्यवस्था और गीता के कथन के अनुसार मुझे योग-भ्रष्ट योगी का जन्म आप जैसे सम्पन्न परिवार में हुआ सही पर मेरी आत्मिक विशेषताओं को आपका वंशानुगत संस्कार दवा नहीं पाया चाहे तो आप इसे ही पुनर्जन्म का सबसे बड़ा प्रमाण मान सकते हैं।”
डा0 ह्यूम अपने पुत्र की बातें सुनकर स्तब्ध और अवाक् रह गये। पर वे इतनी शीघ्र इन बातों पर विश्वास करने वाले न थे। लड़के के बताये कागड़ा, नाथ सम्प्रदाय, पहाड़ियों के नाम, उस क्षेत्र के रीति-रिवाज आदि के सम्बन्ध में उन्होंने विस्तृत खोज की तो उन्हें अक्षरशः सत्य पाया। लड़का कभी भारत गया नहीं। पुस्तकों में उसने भारतवर्ष का नाम भी नहीं पड़ा, रीति-रिवाजों का तो कहना ही क्या, फिर यह बातें, उसके मस्तिष्क में कहाँ से आई, वे यह कुछ न समझ सके।
बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिक, डाक्टर, मस्तिष्क-विशारद आये। सबने लड़के की बात-चीत टेप की, अलग-अलग अध्ययन किया पर निष्कर्ष निकालते समय वे सब के सब माथे पर हाथ धरे सिर खुजलाते रह गये।
एक दिन लड़के ने कहा-”पिता जी! अमेरिका दर्शन की मेरी आकाँक्षा पूर्ण हो गई हैं। अंश मुझे मेरी शतृ- भूमि पहुँचा दीजिये। मेरा सूक्ष्म शरीर भारतीय संस्कारों से बना है, मैं अमेरिका में नहीं रह सकती।” पर पिता ने कुछ न सुना। वे बेचारे अध्यात्म के महत्व को क्या समझते, समझने की उन्हें फुरसत ही कहाँ थी, उन्हें तो जीवशास्त्र पर कोई अनोखी बात ढूँढ़ निकालने और प्रसिद्धि पाने की घुन थी। कठिन साधना जन्य उपलब्धियों के लिये न उनके पास समय था, न रुचि।
किसी तरह माँ उसे लेकर भारत जाने को तैयार हुई। विदेश-यात्रा के लिए उन्होंने आवेदन-पत्र भी पर दिया। किन्तु एक दिन प्रातःकाल उठकर जब वे अपने पुत्र के निजी कक्ष में कई तो देखा कि मीन-मुद्रा में उस लड़के का पार्थिव शरीर पद्मासन लगाये बैठा है। उसके प्राण तो कहीं और जा चुके है।
बच्चे की मृत्यु, दुःखद उतनी न थी, जितनी आश्चर्य-जनक थी। एक घटना जिसने डा0 ह्यूम जैसे भौतिक शास्त्री का हृदय हिला दिया, उन्हें भो विश्वास करना पड़ा, भारतीय तत्त्व-दर्शन अगाध ही नहीं चिर सत्य भी है पर इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद भी कितने लोग थे, जिन्होंने मानवीय जीवन के इन रहस्यों में रुचि दिखाई? न जाने किस अज्ञान में ग्रस्त रहकर जीवन लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करते?