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Magazine - Year 1969 - Version 2

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आत्म-हीनता के बोझ से आप न दब मरें

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पिछले वर्ष अमेरिका के साय कोजाली जनरल (मनोविज्ञान सम्बन्धी पत्रिका) में एक घटना छपी वह इस प्रकार है-

किसी कालेज की एक स्नातिका अपनी माँ के साथ किसी परिचित के घर मिलने गई। माँ जब समवयस्क महिला मित्र से बातचीत करने में लग गई। उसमें लड़की की रुचि न लगी तो वह दूसरी ओर निकल गई। एक कमरे में बहुत सी पुस्तकों की लाइब्रेरी थी। उनमें से वह पुस्तक देखने लगी। तभी गृहस्वामी के वयस्क लड़के ने कमरे में प्रवेश किया और दरवाजा बन्द करके उसके साथ बलात्कार किया। सामाजिक अप्रतिष्ठा के भय से उस लड़की ने अपनी माँ को भी यह बात नहीं बताई, किन्तु मन में इस घटना का बुरा प्रभाव पड़ा। लड़की आत्म-हीनता अनुभव करने लगी।

जो लड़की पहले इती स्वस्थ और सुन्दर थी, उस पर इस घटना का मानसिक दबाव कुछ ऐसा पड़ा कि वह सब भी अकेली होती, यह घटना उसे बार-बार तंग करती, फलतः उसका स्वास्थ्य गिरने लगा और थोड़े ही दिनों में आँखों की ज्योति गिर जाने से चश्मा लेना पड़ा।

एक दिन कालेज में किसी लड़के के जन्म दिन की पार्टी थी। लड़के ने अपनी कक्षा के सब छात्रों को आमंत्रित किया था। समय हो रहा था, इसलिये लड़के-लड़के में वहाँ चलने की बात चल पड़ी। एक लड़की ने उस लड़की से चलने को कहा तो उसने कुछ तीखे स्वर में कहा-”मैं नहीं जाऊँगी, मैं पुरुषों से घृणा करती हूँ।”

पास खड़े एक लड़के ने यह बात सुन ली। लड़का योग्य और समझदार था, उसने अनुभव किया, बिना किसी कारण इस लड़की के अन्तःकरण में पुरुषों के प्रति घृणा नहीं आ सकती थी, सो उसने एकान्त में ले जाकर उसे सब कुछ सच-सच बता देने का आग्रह किया। लड़की ने संयोग वश कहें या साहस करके आत्माभिमान के साथ सब कुछ सब-सच बता दिया। लड़के ने इस दुर्घटना पर सहानुभूति व्यक्त करते हुए, प्रस्ताव किया कि यदि आपको आपत्ति न हो तो मैं आपके साथ विवाह करने के लिये तैयार है।

इससे लड़की का मानो सारा बोझ ही उत्तर दिया। वह अब तक जिस भय से भयभीत थी, उसे निराधार पाकर उसकी प्रसन्नता सहसा फिर जागृत हो उठी, उसने उस लड़के से सहर्ष विवाह कर लिया। थोड़े ही दिनों में न केवल उसका स्वास्थ्य पूर्ववत हो गया वरन् डाक्टरों ने यह भी कह दिया कि अब आपको चश्मा लगाने की आवश्यकता नहीं हैं।

उपरोक्त घटना की तरह आज के समाज में ऐसी सैकड़ों-हजारों घटनायें घटित रहती हैं, जिसमें युवक-युवतियाँ अपने नैतिक गुणों से निर जाते हैं और सारे जीवन भर के लिये आत्म-हीनता की गाँठें अपने मन में भर लेते हैं। आत्म-हीनता का बोझ किसी भी बोझ से अधिक कष्टदायक और विनाशकारी होता हैं। वह शारीरिक और मानसिक शक्तियों को तो नष्ट करता ही हैं, अनेक नई बुराइयों को भी चुपचाप करते रहने के लिये भी विवश करता हैं।

आत्म-हीनता के घातक दुष्परिणामों पर प्रकाश डालते हुए, प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैगडूगल ने उन्हें पाँच भागों में विभक्त किया है-1. सामाजिक, 2. शारीरिक 3. बौद्धिक, 4. नैतिक और 5. आत्मिक।

सामाजिक दृष्टि से आत्म-हीनता से प्रभावित व्यक्ति अपनी ही तरह से दूसरों को प्रभावित करता और दूसरों को भी बुरा बनाता हैं। एक चोर कई चोर तैयार करके मरता है। वेश्या-वृत्ति के कहीं शिक्षणालय नहीं है, खराब औरतें ही औरतों को दुष्चलन शिक्षा देती हैं। तस्कर व्यापार, मिलावट और रिश्वत-खोरी सिखाने के कोई संस्थान या विद्यालय नहीं हैं, यह पेशेवर बुरे व्यक्तियों द्वारा इसलिये सिखा दिये गये होते हैं, ताकि उनकी आत्म-हीनता डकी-छुपी रहे, पीछे वहीं परम्परायें बन जाती हैं।

आत्म-हीन व्यक्ति को दूसरी योग्यताओं का समाज के लिये कोई उपयोग नहीं हो पाता। उधर उनकी संख्या वृद्धि से अनेक समस्यायें और बढ़ती चली जाती हैं।

शारीरिक हानियाँ कई बार दिखाई नहीं देतीं पर क्योंकि कई बुरे स्वभाव के लोगों का मनोबल ऊँचा होता हैं और वे पाप को पाप मानते ही नहीं। ऐसे व्यक्ति कभी-कभी बीमार पड़ते हैं तो उन्हें मरणान्तक पीड़ा होती हैं पर जिन्हें अपनी भूल का इसी जीवन में असंभव हो जाना है, उनके शरीर में रक्त विकार, चर्म रोग खुजली दाद आदि बीमारियाँ हो जाती हैं। अधिक मानसिक दबाव पड़ने पर वही तपेदिक और राजयक्ष्मा का रूप ले लेते हैं। एक लड़के को चोरी करने के लिये विवश किया गया, साथ हो उसे यह भी बता दिया गया कि वह जहाँ रहता हैं, वहाँ के सब लोगों को पता चल गया है कि वह चोरी करता है, इससे लड़के के शरीर में बुरा प्रभाव पड़ा उसमें अस्थाई अन्धापन आ गया कि मेरी भूल लोगों ने उदारतापूर्वक क्षमा कर दी तो उसकी आँखों की बीमारी फिर ठीक हो गई।

बौद्धिक दृष्टि से आत्म-हीनता का पाप मनुष्य के विकास की बन्द कर देता है, क्योंकि उसे नई दिशायें प्राप्त करने के लिये मस्तिष्क ही काम नहीं करता। उसकी सारी बौद्धिक शक्ति पूर्वकृत बुराइयों को छुपाये रखने की चौकीदारी में ही लगी रहती हैं। उस व्यक्ति में अपने ही प्रति अविश्वास बना रहता हैं। वह क्रोधी और चिड़चिड़ा हो जाता हैं। मैलिनके लिप नाम की दिमागी बीमारी के कारणों का भी राँची और आगरे के अस्पतालों में पता लगा कर बताया गया कि उनका 90 प्रतिशत कारण कोई ऐसी घटनायें ही होती हैं, जिनसे उसकी आत्म-हीनता बढ़ती गई हो।

नैतिक दृष्टि से आत्म-हीनता ग्रस्त व्यक्ति चोरी, बदमाशी-व्यभिचार भी कर सकता हैं। वह दीन-दरिद्र भी हो सकता है और ऐसा उग्र भी कि कभी भी किसी का उत्पीड़न करने से न घबड़ाये। संसार की जितनी भी बुराइयाँ है, वह सब आत्म-हीनता का ही परिणाम हैं, इसलिये आत्म-हीनता स्वयं बुराई न होकर विज्ञान या आध्यात्मिक विषय बन जाता है और उसे धार्मिक महत्व देकर ही सुलझाया जा सकता है। सदन कसाई, अजामिल, अंगुलिमाल और फाजिल बिन कयाम जैसे दुर्द्धष व्यक्ति केवल धार्मिक महापुरुषों द्वारा ही सुधारे जा सके। शक्ति और दण्ड के सारे विधान उनके लिये असफल साबित हुये हैं।

आत्मिक दृष्टि के पाप और बुराइयों से ग्रस्त आत्म हीन व्यक्ति जीवन में कभी उल्लास और उन्मुक्त प्रसन्नता का आनन्द नहीं ले सकता, वह सद्गुण बरतते और अच्छा काम करते हुये भी शंका करता रहता है। आत्मालोचन की प्रवृत्ति से वह आप ही दुःखी रहता हैं। वह निराश रहता है और सारे संसार की प्रसन्नता दुःख और कष्ट का घर मानता है।

शारीरिक दबाव की अपेक्षा मानसिक तनाव कहीं अधिक भयंकर होते हैं। ऐसा व्यक्ति जिसकी आत्म-हीनता ने मत और मस्तिष्क को पूरी तरह जकड़ लिया, प्रायः आत्म-हत्या का अपराध वहीं करते हैं, शरीर रोग पर मन स्वस्थ हो तो भी मनुष्य बहुत सुखी रह सकता हैं। बीमारियाँ होते हुए भी मनुष्य शक्तिशाली और प्रसन्नता अनुभव करता हैं। उत्साह, प्रसन्नता आदि सभी संवेदनायें मिःस्रोत ग्रन्थियों (डक्टलेस ग्लैण्ड) से निकलने वाले हारमोन्स का फल होते हैं, उनका सम्बन्ध शरीर की रासायनिक रचना से न होना इस बातें का प्रमाण है कि मनुष्य के सुख-दुःख का कारण शरीर नहीं, मन होता है, यदि वह दबा हुआ रहे तो व्यक्ति प्रसन्नता कहाँ और कैसे अनुभव कर सकता हैं। इसके विपरीत मातायें कई-कई दिन कुछ खाती-पीती नहीं, सोती भी नहीं पर अपने बीमार बच्चे की देख-रेख करती रहती हैं, उस समय उनके से फूटने वाला प्रेम का प्रकाश शक्ति देता है, भावनाओं शुद्धता और पवित्रता ही सुख और प्रसन्नता और उन विकृत होना ही आत्म-हीनता और दुःख का कारण है।

इस दबाव को औषधि द्वारा दूर नहीं किया सकता। उनका शारीरिक और मानसिक दंड भुगत लेने बाद भी आत्म-हीनता की गांठें बनी रहती हैं, उनका ही तरह से निवारण हो सकता है, वह है “निष्कासन पश्चाताप की प्रक्रिया।

हम अपनी बुराई किसी भी विश्वास-पात्र व्यक्ति सामने सच्चे मनसे स्वीकार करें और उनके लिये निर्धारित किया जाये, उसे स्वेच्छा से ग्रहण करें तो जन्मान्तरों से जमी आत्म-हीनता की गाँठें उसी प्रकार साफ हो सकती हैं, उसे ऊपर की घटना में दिया गया है। हमारे धर्म में आत्म-शुद्धि के लिये निष्कासन को तप माना गया जो यह तप कर लेता है, उसके ईश्वर दर्शन और सहानुभूति के सब अवरुद्ध द्वारा खुल जाते हैं।

आचार्य बाराह मिहिर के शब्दों में “अपनी बुराइयां कार कर लेने वाला असाधारण व्यक्ति हो जाता हैं।” गौतम के अनुसार-”सत्य को स्वीकार कर ले वही प्राप्ति का अधिकारी होता हैं।”

निरुत्साहित पागलों का मनोविश्लेषण (साइको सिस) बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है, उससे कई भयं- पागल भी ठीक हो गये हैं। ईसाई धर्म में भी यह प्रथा रविवार के दिन को प्रत्येक चर्च के पादरी ‘स्वीक्वरोक्त दिवस’ (कान्फेशनडे) के रूप में मनाते हैं, उस दिन चर्च में आने वाले सब ईसाई पादरी के सामने अपने मन के गुप्त सब अपराध स्वीकार करते हैं। चित्त हलका करने और भविष्य में शुद्ध सम्मान और सफलतादायक जीवन जीने को यह महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया हैं। जो अपने पाप प्रकट कर सकते हैं और स्वेच्छा से उनका दण्ड भुगतने के लिये तैयार हो सकते है, वहीं सन्त, वही महात्मा और महापुरुष भी बन सकते हैं। न बनें तो भी एक सफल और प्रसन्न जीवन तो वे जी ही सकते हैं। मनोवैज्ञानिक भी उसके लिये कुछ प्रयोग (प्रोजेक्टिव टेक्नोक्स) का व्यवहार करते हैं पर उसमें शत-प्रतिशत सफलता नहीं मिलती। आत्मा की पूर्ण शुद्धि और आत्म-हीनता के भार से बचने के लिये यह आवश्यक है कि अपने किये हुये पाप, बुराई, अपराध या गुप्त मनोभाव को आप प्रकट करें और उसका पश्चाताप भी बहादुरी के साथ आप ही करें।

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