Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य शरीर में कोई सर्वदर्शी सत्ता है?
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महर्षि दयानन्द कलकत्ते में थे। सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों पर उनके कई स्थानों पर भाषण हुए। उससे वहाँ का प्रदृद्ध वर्ग जाग रहा था। गायत्री उपासना, स्त्रियों के गायत्री अधिकार, जाति पाति के शास्त्रीय विधान एवं माँसाहार के विरुद्ध दिये गये उनके भाषणों ने रूढ़िवादी लोगों में हलचल मचा दी थी। सम्प्रदायवाद और सामाजिक बुराइयों के विरोध में स्वामी जी को समर्थन देने बड़ी संख्या में लोग आते रहते थे।
एक दिन एक सज्जन आये। समाज सुधार के सम्बन्ध में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। जान-बूझकर या किसी कारण महर्षि ने उनका पता भी नहीं पूछा। काफी देर बातें करने के बाद उन सज्जन ने कहा-”स्वामी जी! आप श्री केशवचन्द्र सेन को जानते हैं?” स्वामी जी ने हँसकर कहा-”हाँ-हाँ मैं उन्हें जानता भी हूँ और मिला भी हूँ।” वह सज्जन कुछ चौकन्ना हुये, क्या स्वामी जी झूठ भी बोल सकते हैं पर इसी तारतम्य में स्वामी जी ने आगे जो कुछ कहा उससे तो वह सज्जन इतने प्रभावित हुये कि फिर भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी निष्ठा कभी भी नहीं टूटी।
स्वामी जी ने आगे कहा-”भेंट कुछ बहुत पहले नहीं हुई, मैं उनसे अभी-अभी मिला हूँ। आप ही तो हैं श्री केशवचन्द्र सेन-प्रसिद्ध समाज सुधारक।”
केशवचन्द्र सेन अचानक स्वामी जी से मिले थे, किसी और को पता भी न था। स्वामी जी उन्हें कैसे जान गये, इस पर उन्हें भारी आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा भी पर स्वामी जी ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। हाँ भारतीय योग-विद्या पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया-”आत्मा शरीर में होते हुये भी सर्वव्यापी तत्त्व है। उसके लिये विराट् विश्व की हलचलों को बहुत सरलता से जाना जा सकता हैं। साधारणतया लोग शरीर और इन्द्रिय- जन्य कामनाओं में ग्रस्त रहने के कारण इस सूक्ष्म सत्ता का तादात्म्य नहीं कर पाते पर यदि योगिक साधनाओं द्वारा अपने संकुचित प्राणों को विश्व प्राण में दिया जाये तो मनुष्य शरीर से वह सभी चमत्कार सम्बन्ध हो संसार की किसी भी अच्छी से अच्छी बार मशीन द्वारा भी सम्भव नहीं हैं।”
महर्षि इस कथन के आप ही प्रमाण थे। वे आडबन ब्रह्मचर्य रहे थे। प्राणायाम और गायत्री उपासना के द्वारा उन्होंने प्राण-शक्ति पर विजव बाई भी दृश्यों को देख लेना इनके लिये सहज बात के भी मन की बात कम्प्यूटर को भाँति खान लिया करते थे, ऐसी घटनायें उनके जीवन काज में कई बार घटों जिनसे इस बात का प्रमाण मिलता था।
स्वामी जी कर्णवास में थे। एक दिन उपाध्याय स्वामी जी के समीप आते समय एक रमास की कुछ फलियाँ तोड़ में गये। यह कवियाँ स्वामी जी को भेंट की। स्वामी जी ने उन्हें करते हुए कहा-’तुम इन्हें चोरी से लाये हो, इसलिए इन्हें ग्रहण करना कठिन हैं।” इस पर उन्होंने कहा-”साधु-यती और साधना रत मनुष्यों के शरीरों का करण होता है, तब अन्न के सूक्ष्म संस्कार तक उन्हें प्रं करते है, इसलिये ईश्वर भक्त और उपासकों को सदैव ईमानदारी और परिश्रम से उपार्जित कमाई ही ग्रहण करने को कहा जाता है, यदि तुमने जिस खेत से फलियाँ तोड़ी थीं, उसके स्वामी से आज्ञा ले लेते तो यह दोष न सकता। अनजान में किसी भी वस्तु उठा सेना चोरी नहीं तो क्या हैं?”
उपाध्याय जी बहुत पछताये और प्रतिज्ञा की ये फिर ऐसा कभी नहीं करेंगे, साथ ही स्वामी जो की दिव्य दृष्टि से वे बहुत प्रभावित भी हुये। साधनाओं द्वारा अपनी उस आन्तरिक शक्ति के विकास का भी उन्होंने निश्चय किया। स्वामी जी ने भी बताया कि जिसकी आत्मा जितनी शुद्ध व पवित्र होगी, वह उतनी ही दूर व भविष्य की बातें जानने लगता हैं। यह बात उपासना के प्रारम्भिक दिन से ही प्रारम्भ हो जाती है, सिद्धावस्था में तो जानने के लिये कुछ शेष रहता ही नहीं। साध दृष्टा-सर्वदर्शी बन जाता हैं।
स्वामी जी के ही जीवन की एक और घटना है, जो यह बताती है कि अपने सर्वदर्शी हो जाने के कारण योगी निर्भय भी हो जाते हैं। निर्भयता प्राप्ति के लिये लोग तरह तरह की सावधानी व सुरक्षायें बरतते हैं, अस्त्र-शस्त्र खरीदते हैं पर योगी के लिये उन सबकी आवश्यकता नहीं होती। वह दुष्टता दिखाने वाले लोगों के बीच में भी वैसे ही जा सकता है, जैसे हजारों हाथियों के झुण्ड में अकेला सिंह निर्भय पहुँचता हैं।
स्वामी जी बम्बई में थे। पण्डाओं की धार्मिक पथ–भ्रष्टता पर उनके कई स्थानों पर भाषण हुये उससे जीवन जी नामक एक गोसाई उनसे बुरी तरह कुपित हुआ। उन दिनों स्वामी जी के पास बलदेवसिंह नामक सज्जन सेवा के लिये रहते थे। गोसाई ने किसी प्रकार बलदेवसिंह को बुलाकर एक हजार रुपये का प्रलोभन देकर कहा-”तुम स्वामी जी की हत्या कर दो।” बात निश्चित हो गई। गोसाई ने बलदेवसिंह को कुछ भेंट भी दी।
बलदेवसिंह जैसे ही स्वामी के पास पहुँचे, उन्होंने उसे एकान्त में बुलाकर कहा- ‘‘क्यों आज तुम गोसाईयों के यहाँ गये पर याद रखो-मुझे राय कणसिंह ने विष दे दिया था, तब भी मैं अपने ब्रह्मचर्य की शक्ति से बच गया, आज भी तुम मेरा कुछ नहीं कर सकते।”
बलदेवसिंह बिखर गये। स्वामी जी की अंतर्दृष्टि ने उसे पराजित कर दिया। उसने सारी बातें सच-सच कह दीं, फिर वह गोसाइयों में कभी गया भी नहीं।
यह घटनायें बताती हैं कि भले ही असामान्य व्यक्तियों में परिलक्षित होती हों पर कोई ऐसी सर्वदर्शी सत्ता हे अवश्य, चाहे उसे आत्मा और शरीर से मुक्त या परमात्मा माना जाये। दोनों ही दृष्टि से व्यक्ति का अन्तर्मुखी होना आवश्यक हैं। स्वामी जी प्रायः अपने पास आने वालों से कहा करते थे-”तुम अपने सब पाप हमें बता दो तो लोग कहते आप जब सब कुछ जानते हैं तो फिर पूछते क्यों है-स्वामी जो उत्तर देते-”ताकि तुम्हारे मन हलके हो जायें और जन्म-जन्मान्तरों से मजबूत हो गई कुसंस्कारों की गाँठें छूट जायें। एक बार मनुष्य पिछले पाप और कुसंस्कारों का परिमार्जन कर देता है तो उसे भी आत्मा-विकास की दिशा में बढ़ते हुए के दर्शन होने लगते हैं। अशुद्ध अन्तःकरण से ही नई साधना इसीलिये सफल नहीं होती कि उससे साधना का प्रकाश भी उसी गन्दगी में घुलकर नष्ट होता चला जाता है, जो बाहर तो निकलती नहीं, भीतर ही घुटती रहती हैं।
आत्मा की सर्वदर्शी शक्ति से मनुष्य अपना ही कल्याण नहीं करता वरन् लोकोपयोगी कार्य करने में भी उसे सहायता मिलती हैं। ऐसे भी अनेक उदाहरण है, जब किन्हीं योगी या महात्माओं द्वारा किसी को व्यक्तिगत लाभ भी हुये हों और सामूहिक रूप से भी लोगों की सुविधायें बढ़ी हों।
कुछ दिन पहले को बात है, दिल्ली के पास फरीदा गई में 40 हजार शरणार्थियों को बसाने के लिये एक औद्योगिक बस्ती बनाने का कार्य प्रारम्भ किया गया। यमुना यहाँ से लगभग 20 मील दूर है। जल की पूर्ति एक समस्या बन गई। भूमिगत जल की ही आशा रह गई थी। इंजीनियरों ने सारी बस्ती की खाक छान मारी और घोषणा कर दी, यहाँ चूँकि पानी है ही नहीं, इसलिये नलकूप भी नहीं लगाये जा सकते?
बस इसी एक समस्या को लेकर लोगों का उत्साह ठण्डा पड़ गया। शरणार्थियों को कहाँ ले जाया जाय, यह समस्या हो गई। उन दिनों पं. जवाहरलाल नेहरू जीवित थे। यह बस्ती उनकी योजना के अंतर्गत ही बन रही थी। अतएव वे बड़े चिन्तित हुये। तभी उन्हें एक प्रसंग याद आया। नवानगर (गुजरात) के जामसाहब ने उन्हें कभी बताया था कि वे एक ऐसे व्यक्ति को जानते हैं, जिनकी अंतर्दृष्टि इतनी पैनी है कि कड़ी सकती है, कहाँ पानी है, कहाँ कौन-सा खनिज उपलब्ध हो सकता हैं। जो ज्ञान इंजीनियर अपनी मशीनों से ही नहीं प्राप्त कर सकते, सिद्ध योगियों के लिये यह चुटकी बजाने जैसा खेल मात्र हैं।
उक्त प्रसंग का स्मरण होते ही प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने जाम साहब को पत्र लिखा। जाम साहब ने उस व्यक्ति को फरीदाबाद भेज दिया। निर्माण कार्य सेना के एक कर्नल की देख-रेख में चल रहा था, उसने उस योगी को भारतीय वेषभूषा में देखा तो नाक-भौं सिकोड़ते हुये असहमति व्यक्त की, यह आदमी भला पानी ढूँढ़ सकता हैं। महात्मा के साथ फरीदाबाद बोर्ड के अध्यक्ष श्री सुधीर घोष भी थे। उनका भारतीय धर्म और योग में विश्वास था और सबसे बड़ी बात यह थी कि महात्मा को पं0 जवाहर-लाल नेहरू के आदेश पर भेज गया था।
तीनों व्यक्ति 3500 एकड़ धरती में चूमे। महात्मा कई स्थानों पर रुक जाते और पैरों की ठोकर मार कर कहते-”यहाँ पानी है” जहाँ-जहाँ उन्होंने कहा-उन सब दसों स्थानों की खुदाई की गई कनंल और घोष सब यह देखकर चकित रह गये कि वहाँ पानी ही नहीं, इतना पानी मिला जो सैकड़ों वर्षों तक भी समाप्त नहीं हो सकता। आज भी फरीदाबाद बस्ती इन्हीं नल-कूपों से पानी प्राप्त कर रही हैं। प्रत्येक नल-कूप तीस हजार गैलन पानी दे रहा है।
एक भारतीय योगी ने इंजीनियर और कलन दोनों को फेल कर दिया। पर हम भारतीय है, जो अपने ही योग और तत्त्व-दर्शन से अनभिज्ञ है। यह तो रहीं दूर की बातें अपनी वेषभूषा पहनते हुए भी आत्म-हीनता अनुभव करते और पाश्चात्य वेषभूषा को महत्व देते है, यह सब हमारी अपनी आत्म-हीनता का परिचायक है। अपने तत्त्वदर्शन का हमें स्वाभिमान रहा होता तो हम भी पानी वाले महात्मा की तरह जहाँ भी जाते शान और स्वाभिमान के साथ जाते और अपने धर्म व संस्कृति को नीची दृष्टि से देखने वालों के मुख पर कालिस पोत आते।
यह उदाहरण यह बताते हैं कि मनुष्य शरीर में कोई ऐसा तत्त्व है, अवश्य जो विलक्षण शक्तियों से भरपूर है। वह कहीं की भी कोई वस्तु टेलीविजन की भाँति देख सकता है। आत्मा के विकास की ओर ध्यान वे तो वह शक्ति स्वयं है। यह विशेषतायें हम भी अपने भीतर जागृत कर सकते हैं।
स्वामी रामतीर्थ अमेरिका गये। वहाँ उनके प्रवचनों से काफी लोग प्रभावित हुए। एक दिन शाम को प्रवचन के बाद एक महिला स्वामी जी के निवास पर भेंट के लिए आई और कहने लगी-”स्वामी जी! पिछले दिनों से मेरा चित्त अशान्त रहता हैं। जब से इकलौते पुत्र की मृत्यु हुई है, रात्रि को गहरी नींद भी नहीं आती। जीवन में बड़ी नीरसता आ गई है। क्या आप मुझे कोई ऐसा उपाय बता सकते हैं, जिससे जीवन में पुनः सुख-शान्ति और आनन्द की स्थापना हो सके।
“क्यों नहीं? पर आनन्द की प्राप्ति के लिए उसका मूल्य चुकाना होगा। स्वामी जी ने उस महिला से कहा।
“मूल्य! बस आपके बताने की देर है, और तुरन्त उसका भुगतान कर दिया जायेगा। यदि एक बार मुझे सर्वस्व निछावर करना पड़े फिर भी चिन्ता नहीं।”
स्वामी जी एक अनाथ हब्शी बाल को तलाश कर उसके घर पहुँचे और बोले- माता जी! आनन्द का मूल्य किन्हीं मुद्राओं में नहीं चुकाया जा सकता। यह रहा तुम्हारा पुत्र। तुम इसका पालन पोषण अपना पुत्र मानकर ही करना।”
काले रंग के बालक को अपना पुत्र बनाने की बात सुनकर वह चौंकी- ‘‘मेरे परिवार में यह हब्शी बालक कैसे प्रवेश प्राप्त कर सकता हैं?”
“यदि इस बालक के पालन-पोषण में तुम्हें इतनी कठिनाई का अनुभव होता हैं तो आनन्द प्राप्ति का मार्ग और कठिन हैं।” स्वामी जी का महिला के लिये उत्तर था।