
औषधि के नाम पर जघन्य हिंसा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मछलियों और बकरियों को मारकर जिगर (लिवर) अलग निकाल कर उसे इस तरह छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है, जैसे किसान कुट्टी काटते हैं। फिर इन नन्हें-नन्हें टुकड़ों को मशीनों से इस तरह मिलाया जाता है कि वह बिलकुल मिल (होमोजेनाइज) जाये। इसके बाद एक निश्चित प्रणाली द्वारा उसका सत निकाल लिया जाता है, यही ‘लिवर एक्स्ट्रेक्ट’ कहा जाता है, जो बाद में चमकते डिब्बों में भर कर दवा के रूप में प्रयोग के लिये भेज दिया जाता है। काँड लिवर ऑयल काँड नामक मछली और शार्क लिवर ऑयल शार्क मछली को मार कर निकाले जाते हैं। इन्हें वाष्प-आसव पद्धति (स्टीम डिस्टिलेशन प्रोसेस) से निकालते हैं। चेचक के कीटाणु लेकर पहले बन्दर के गुर्दे (किडनी) में घुसेड़ (इनाकुलेट) देते हैं। यह 14 से 21 दिन में पककर तैयार हो जाता है, उसे चेचक के टीके के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। एण्टीटिटैनिक सीरप के लिये भी बन्दर के गुर्दे (किडनी) काम में लाये जाते हैं। घोड़ों के पट्टों पर भी यह प्रयोग किया जाता है। भारतीय बन्दर आज बड़ी मात्रा में अमेरिकी देशों को निर्यात किये जाते हैं। इस प्रकार अपने देश से बन्दर की नस्ल कुछ दिन में ही समाप्त हो सकती है, जबकि अमेरिका में भी वे पलते नहीं। मार कर उनके शरीर का एक-एक अंग काट कर काम में ले लिया जाता है। यह बन्दर यहाँ से 15-20 रुपये में जाते हैं और उन्हीं को मार कर जो औषधियाँ बनती हैं, उनके लिये हमसे लाखों रुपये वसूल किये जाते हैं। औषधि के लिये यदि कदाचित कभी कोई हिंसा करनी पड़े तो कुछ लोग उसे क्षम्य मान सकते हैं प्रकृत के इन निरीह प्राणियों को एक बार अच्छे उद्देश्य के लिये बलि के रूप में स्वीकार कर भी लिया जाय पर इस भयंकर हिंसा को जो संसार में निर्दयता, अपराध-वृत्ति और दुराचरण को प्रोत्साहित करती है, कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। चिकित्सा के रूप में भी उसके भले परिणाम निकलते तो भी कोई बात थी। एक कुत्ते की पूँछ टेढ़ी थी, उसकी पूँछ को एक बाँस की नली में घुसेड़ दिया गया। आशा थी कि साल, छः महीने में पूँछ सीधी पड़ जायेगी पर जब उसे बाँस में पोंगे से बाहर किया गया तो पूँछ वही टेढ़ी की टेढ़ी निकली। आज चिकित्सा और वैज्ञानिक प्रयोगों की स्थिति भी ऐसी ही है। आज सारे विश्व में स्वास्थ्य शोधकर्ताओं की संख्या 30 लाख है। संसार की 60 भाषाओं में स्वास्थ्य चिकित्सा सम्बन्धी लगभग 55 हजार पत्रिकायें छपती हैं, वैज्ञानिकों और चिकित्सकों की संख्या में इतनी वृद्धि के बाद भी आज संसार के 87 प्रतिशत लोग किसी न किसी रोग से पीड़ित हैं। सन 1958 में अकेले भारतवर्ष में 50 लाख व्यक्ति टी. बी. से बीमार थे। कोढ़, कैन्सर, एन्फ्लुएंजा आदि के रोगियों की संख्या भी उतनी ही होगी, इससे कम नहीं । दाँतों की दृष्टि से भारत के 65 प्रतिशत लोग पायरिया ग्रस्त हैं। यह आँकड़े जहाँ हमारे त्रुटिपूर्ण जीवन की ओर संकेत करते हैं, वहाँ वह विज्ञान और आधुनिक पद्धति की असफलता को भी प्रमाणित करते हैं। भारत जैसे अहिंसावादी देश के लिये तो हिंसा, वह भी औषधि के लिए, महान कलंक की बात है, जबकि आयुर्वेद जैसी शुद्ध चिकित्सा पद्धति की उपयोगिता सरकार भी स्वीकार करती है। जब हमें हिंसा द्वारा प्राप्त औषधियों के मुकाबले प्रभावशाली चिकित्सा पद्धति उपलब्ध हो तो जान-बूझ कर माँसाहार क्यों करें। कैप्सूल के ऊपर चढ़ा हुआ आवरण जिलेटिन हड्डियों से बनता है। अधिकाँश सभी साबुनों में विशेष कर चिकने साबुनों में गाय और सूअर की चर्बी पड़ती है। लोकसभा में इस बात को स्वीकार किया गया और सभी समाचार-पत्रों ने उसे छापा, फिर भी हम इन औषधियों को समर्थन देते रहें तो यही कहना पड़ेगा कि गाँधीजी के देशवासी हम अहिंसा के उपासक भी हिंसक से कम नहीं हैं।