
मारने की बात बहुत हो चुकी, कुछ जिलाने की भी हो [2]
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डायनामाइट एक तरह का बारूद ही है, जो बमों में बिल्डिंगें, पुल, सड़कें और सैनिक-वाहन तोड़ने के लिए प्रयुक्त होता है। आज अमेरिका के पास इतना अधिक डायनामाइट भण्डार है कि वह उससे विश्व को 30 बार नष्ट कर सकता है, रूस के पास इतना डायनामाइट है कि वह सारे संसार को 7 बार नष्ट कर सकता है। अभी तो फ्राँस, ब्रिटेन, चीन जैसे बड़े देश भी हैं फिर हर देश अपनी सेना रखता है, यदि उन सब के पास कुल मिलाकर भी इतना ही डायनामाइट हो तो समझना चाहिये कि आज पृथ्वी पर जितने लोग हैं, यदि ऐसा कोई उपाय हो कि वे मरते ही नया शरीर धारण कर लें तो 74 बार तो उन्हें निश्चित रूप से मारा जा सकता है, जबकि संसार के अधिकाँश देश खाने के लिये बड़े देशों पर ही आश्रित हैं। सैन्य-संगठन संसार के सभी देशों में हैं और इस तरह दस प्रतिशत तक श्रम शक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सैनिक कार्यक्रमों से सम्बद्ध है देखने में यह शक्ति अति महत्वपूर्ण है पर, यदि मानवता की दृष्टि से देखा जाय तो पता चलेगा कि जिस तरह भिक्षा-वृत्ति समाज पर भार है सेनाओं पर होने वाला व्यय भी एक प्रकार से बोझ ही है, जिससे कोई रचनात्मक या उत्पादन का कार्य नहीं होता, जबकि इतनी सारी संगठित शक्ति का कहीं भी उपयोग करके उल्लेखनीय कार्य किये जा सकते थे। पिछले दिनों अम्बाला डिवीजन के सैनिकों ने अपनी श्रम से अम्बाला में 1600 कमरे तैयार किये यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। अधिकाँश देश अर्जित आय का दसवाँ भाग आभूषणों पर खर्च करते हैं, सम्पत्ति का यह कारावास उद्योगों के विस्तार और संसार में गरीबी मिटाने की एक बड़ी भारी बाधा है पर यह शक्ति चौथे, पाँचवें कभी न कभी तो उपयोग में आती ही है, पर इसी तरह जो युद्ध पर दस प्रतिशत खर्च होता है, वह अपने साथ उतनी ही क्षति भी करता है, अर्थात् दस प्रतिशत खर्च और दस प्रतिशत क्षति बीस प्रतिशत यह धन व्यर्थ ही जाता है, आज सारा विश्व सैन्य तैयारियों पर 40 करोड़ डालर लगभग ढाई अरब रुपया सैन्य तैयारियों पर व्यय करता है, कहीं यह धन कृषि विकास साधनों पर प्रयुक्त हुई होती, तो संसार में आज अच्छी-अच्छी नस्लों वाले बीज, खेती और पैदावारें होतीं। पिछले अंक में अमेरिका और रूस की मिसाइल शक्ति को जो आँकड़े दिये गये, वह सन् 1963 तक के थे। ‘गार्जियन’ पत्र में प्रकाशित एक सर्वेक्षण के अनुसार अन्तः महाद्वीपीय मिसाइल शक्ति के सम्बन्ध में अब अमेरिका व रूस दोनों की टक्कर बराबर की है। रूस के पास 900 से 1000 तक और अमेरिका के पास 1054 हैं। पोलारिस पनडुब्बियों की तरह की मिसाइल लगी पनडुब्बियों की संख्या उससे अलग है अमेरिका के पास ऐसी 656 और रूस के पास 120। इसी प्रकार हाइड्रोजन बमों को ले जाने के लिये अमेरिका के पास 500 बमवर्षक और रूस के पास 150 बमवर्षक हैं। फ्राँस और इंग्लैण्ड इनसे अलग हैं। अपनी तुलना में इन दोनों में इंग्लैण्ड फ्राँस से भी आगे है। मिसाइल शक्ति के रूप में चीन का अभ्युदय एक और चिन्ताजनक प्रश्न है। ब्रिटिश समर विशेषज्ञ नोविल ब्राउन ने अपनी ताजी पुस्तक ‘आर्म्स विदाउट एम्पायर’ में लिखा हैं कि चीन के पास अब तक 30 हाइड्रोजन बम तैयार हो गये हैं। चीन उनके कई सफल प्रयोग कर चुका है। प्रयोगों की शृंखला फ्राँस में भी छाई है। इन परीक्षणों से ही इतनी अधिक रेडियो एक्टिव धूल उत्पन्न हो गई है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति 2 से 12 रोएन्टजन धूल से प्रभावित हो रहा है। थोड़ी मात्रा में तो इस अणुधूल का मानव शरीर पर कोई ज्यादा घातक प्रभाव नहीं होता पर उसकी अधिक मात्रा जीवित कोषों को मार डालने की शक्ति रखती है। वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि यह प्रभाव मनुष्य शरीर के अति सूक्ष्म तत्व-जीन्स पर अधिक घातक होता है, उसके फलस्वरूप अब तक ही जितने विस्फोट हो चुके हैं, उनके दुष्प्रभाव स्वरूप नई-नई बीमारियाँ, जिनमें प्रमुख रूप से कैन्सर, रक्त-चाप, हृदय रोग, मधुमेह और चर्मरोग होंगे-उत्पन्न होंगी और यदि मारा नहीं तो भी मनुष्य जाति को तड़पा-तड़पा कर जिलायेंगी। भूखे और कष्ट पीड़ित संसार को अस्त्र-शस्त्रों का यह उपहार देकर आधुनिक विज्ञान ने कोई अच्छा काम नहीं किया। संसार में मानव का अस्तित्व बनाये रखने के लिए इस संहारक वृत्ति का मूलोच्छेद करना ही पड़ेगा। संसार को प्रेम, दया, करुणा, न्याय-नीति, उदारता का दृष्टिकोण प्रदान करना ही पड़ेगा। विश्व-जनमत यदि अब इसके लिये तैयार नहीं होता और संहारक शस्त्रों की यह होड़ बढ़ती ही जाती है तो भविष्य की परिस्थितियाँ कितनी वीभत्स हो सकती हैं, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। युद्धों के अब नये-नये तरीके निकल रहे हैं। अगले युद्ध रोगाणुओं से लड़े जायेंगे, इन युद्धों को ‘जर्म्स वार फेयर’ कहा जायेगा। इस सम्बन्ध में आज से कई वर्ष पूर्व विख्यात अमेरिकी भविष्यवक्ता श्रीमती जीन डिक्शन ने भविष्य-वाणी की थी कि चीन ‘जर्म्सवार’ प्रारम्भ करेगा, इस आशंका को निर्मूल नहीं कहा जा सकता। युद्ध की इस पद्धति के शस्त्र का काम रोगाणु करता है। किसी भी हैजा, चेचक, टी0बी0, कैन्सर, फ्लू आदि रोग के कीटाणु किसी देश में हवा के द्वारा फैला दिये जायेंगे तो एक ही दिन में करोड़ों लोग इन बीमारियों से तेजी से पीड़ित हो उठेंगे और कुछ ही दिनों में विशाल जनसंख्या को मारकर रख दिया करेंगे। इस तरह अब युद्ध की सीमा में सैनिक ही नहीं रहे, विश्व का एक-एक बच्चा उस सीमा में आ गया है। जो युद्ध के मोर्चे पर नहीं जायेंगे, वे भी उतने ही पीड़ित होंगे, जितने युद्धरत सैनिक, इसलिये बच्चे-बच्चे का यह कर्त्तव्य है कि संसार को हिंसा से मोड़कर अहिंसक समाज के निर्माण में सभी लोग जुट जायें। इस विभीषिका में जहाँ एक भी व्यक्ति सुरक्षित नहीं, वहाँ प्रयत्न सामूहिक ही करने पड़ेंगे अर्थात् इन परिस्थितियों के निवारण के लिये बहुमत को साथ देना ही पड़ेगा। इन शस्त्रों का प्रहार न होगा, यह सोचना कोरी मूर्खता है। एक बार एक बन्दर डाल पर बैठा एक राहगीर को दाढ़ी बनाते देख रहा था। किसी कार्यवश वह व्यक्ति 1 मिनट के लिये इधर-उधर हुआ ही था कि बन्दर उसका साबुन उस्तरा उठा लाया और स्वयं भी दाढ़ी बनाने की नकल करने लगा। बेचारे से दाढ़ी तो नहीं बनी हाँ उसने अपनी गर्दन अवश्य घायल कर डाली। शस्त्रास्त्रों के इस अन्धानुकरण से भी मनुष्य जाति की ऐसी ही स्थिति बने तो उसमें किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिये। कहा जाता है कि पिछले दिनों वियतनाम युद्ध में लड़ रहे अमेरिकनों को जब लगातार असफलताओं का सामना करना पड़ा तो उसने प्रयोगात्मक “रसायन-युद्ध” प्रारम्भ कर दिया। 2-4 डी, 2-4-5 टी (2, 4, 5, ट्रीक्लो रोफिनाक्सि ऐसटिक एसिड) यह दो रसायन तो मुख्य रूप से मनुष्यों, जमीन और वनस्पतियों को नष्ट करने के लिये छिड़के गये जबकि धान को बरबाद करने के लिये “कोको-डिलिक ऐसिड” छिड़का गया। इस एसिड में 54 प्रतिशत संखिया होता है। संखिया की थोड़ी सी मात्रा से ही जिगर में तरह-तरह की बीमारियाँ बढ़ने लगती हैं आंतों में गड़बड़ी मिलती और वमन की शिकायतें बढ़ जाती है। इसके बाद की दूषित प्रतिक्रिया से यद्यपि अमरीकी वैज्ञानिक इनकार करते हैं पर प्रो. गाल्स्टन आदि ने भी इस कथन को धोखा कहा है। विश्वास है कि यह रसायन भी बहुत लम्बे समय तक अपने विषैले प्रभाव से मनुष्य को पीड़ित करते रहेंगे। पहले दोनों रसायन बड़े सबेरे जब हवा की गति मन्द होती है छिड़के जाते हैं। इनसे एथिलीन फैलती है जो मनुष्यों के लिये तो खतरनाक है ही वृक्ष-वनस्पतियों के पत्ते भी नष्ट हो जाते हैं। उससे सूर्य के प्रकाश से शक्ति लेने वाली फोटो-सिन्थेसिस क्रिया अवरुद्ध हो जाती है मिट्टी को हम जड़ वस्तु समझते हैं पर विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि मिट्टी में सक्रिय जीव समाए हैं उसका फोटोसिन्थेसिस रुक जाने से जीवन मिलना बन्द हो जाता है फलस्वरूप मिट्टी खराब हो जाती है। देखा गया है कि क्ले-लोम मिट्टी जो बड़ी उपजाऊ और नरम होती है। पिछले दिनों वियतनाम में “पिक्लोरैम” नामक रसायन का छिड़काव हुआ उसे अमरीका ने भी स्वीकार किया उससे वियतनाम की भूमि की उर्वरा शक्ति को व्यापक हानि हुई है। यह हवा केवल वियतनाम में ही नहीं पड़ोसी देश और विश्व से भी गई होगी और इस तरह सारा संसार उससे प्रभावित हुआ होगा इसमें सन्देह नहीं है। शोध की दिशायें बुरी हो सकती हैं तो अच्छी भी हो सकती हैं। आज लोगों को मारने नष्ट करने में इतने साधन लगे हैं यदि इतने ही साधन भावनात्मक संसार के परिशोधन में लगा दिये गये होते तो आज यह पृथ्वी ही स्वर्ग होती। यहाँ अमन-चैन के सब साधन हैं यदि मानव-मन उज्ज्वल, शुद्ध और कल्याणकारी हो जाये तो फिर अन्य लोकों में स्वर्ग ढूँढ़ने की आवश्यकता न रहे। इसके लिये भी कुछ किया जा सकता है वही करने की आज आवश्यकता भी है अब पृथ्वी को मारने से नहीं उसे जीवन देने से ही काम चलेगा।