
परकाया-प्रवेश-एक सत्य घटना
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सन् 1636 की घटना है एक दिन परिश्रमी कमान के सैनिक कमाण्डेन्ट श्री एल. पी. फैरेल अपने सहायक अधिकारियों के साथ एक युद्ध सम्बन्धी योजना तैयार कर रहे थे। यह स्थान जहाँ पर उनका कैम्प लगा हुआ था, आसाम-बर्मा की सीमा पर था। वहीं पास में एक नदी बहती थी। नदी के पास ही यह मंत्रणा चल रही थी।
एकाएक कुछ अधिकारियों का ध्यान नदी की ओर चला गया। श्री फैरेल ने भी उधर देखा तो उनकी भी दृष्टि अटक कर रह गई। टेलिस्कोप उठाकर देखा एक महा जीर्ण-क्षीण शरीर का वृद्ध संन्यासी पानी में घुसा एक शव को बाहर खींच रहा है। कमजोर शरीर होने से शव ढोने में अड़चन हो रही थी। हाँफता जाता था और खींचता भी। बड़ी कठिनाई से शव किनारे आ पाया।
श्री एल. पी. फैरेल यद्यपि अँग्रेज थे पर अपनी बाल्यावस्था से ही आध्यात्मिक विषयों में रुचि उन्होंने प्रगाढ़ कर ली थी। भारतवर्ष में एक उच्च सैनिक अफसर नियुक्त होने के बाद तो उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। भारतीय तत्व-दर्शन का उन्होंने गहरा अध्ययन ही नहीं किया, जिसकी भी जानकारी मिली, वह सिद्ध महात्माओं के पास जा-जाकर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान भी करते रहे। धीर-धीरे उनका परलोक, पुनर्जन्म, कर्मफल और आत्मा की अमरता पर विश्वास हो चला था। यह घटना तो उनके जीवन में अप्रत्याशित ही थी और उसने उनके उक्त विश्वास को निष्ठा में बदल दिया। श्री फैरेल एक अंग्रेज ऑफिसर के रूप में भारत आये थे पर जब वे यहाँ से लौटे तब उनकी आत्मा में शुद्ध हिन्दू संस्कार स्थान ले चुके थे।
एक वृद्ध शव क्यों खींच रहा है? इस रहस्य को जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक ही थी। योजना तो वहीं रखी रह गईं, सब लोग एकटक देखने लगे कि वृद्ध संन्यासी इस शव का क्या करता है?
वृद्ध शव को खींचकर एक वृक्ष की आड़ में ले गया। फिर थोड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा, कुछ पता नहीं चला कि वह क्या कर रहा है। कोई 15-20 मिनट पीछे ही दिखाई दिया कि वह युवक जो अभी शव के रूप में नदी में बहता चला आ रहा था, उन्हीं गीले कपड़ों को पहने बाहर निकल आया और कपड़े उतारने लगा। सम्भवतः वह उन्हें सुखाना चाहता होगा।
मृत व्यक्ति का एकाएक जीवित हो जाना एक महान आश्चर्यजनक घटना थी और वह बड़ा भारी रहस्य भी जो श्री फैरेल के मन में कौतूहल भी उत्पन्न कर रहा था, आशंका भी। उन्होंने कुछ सैनिकों को आदेश दिया- सशस्त्र सिपाहियों ने जाकर युवक को घेर लिया और उसे बन्दी बनाकर श्री फैरेल के पास ले आये।
युवक के वहाँ आते ही श्री फैरेल ने प्रश्न किया- “वह वृद्ध कहाँ है?” इस पर युवक हँसा जैसे इस गिरफ्तारी आदि का उसके मन पर कोई प्रभाव ही न पड़ा हो और फिर बोला- “वह वृद्ध मैं ही हूँ।”
लेकिन अभी कुछ देर पहले तो तुम शव थे, पानी में बह रहे थे, एक बुड्ढा तुम्हें पानी में से खींचकर किनारे पर ले गया था फिर तुम प्रकट हो गये, यह रहस्य क्या है, यदि तुम्हीं वह वृद्ध हो तो वह वृद्ध का शरीर कहाँ है?” आश्चर्यचकित फैरेल ने एक साथ ही इतने प्रश्न पूछ डाले, जिनका एकाएक उत्तर देना असम्भव-सा था।
युवक ने संतोष के साथ बताया- “हम योगी हैं, हमारा स्थूल शरीर वृद्ध हो गया था, काम नहीं देता था, अभी इस पृथ्वी पर रहने की हमारी आकाँक्षा तृप्त नहीं हुई थी। किसी को मारकर बलात् शरीर में प्रवेश करना तो पाप होता, इसलिये बहुत दिन से इस प्रतीक्षा में था कि कोई अच्छा शव मिले तो उसमें अपना यह पुराना चोला बदल लें। सौभाग्य से यह इच्छा आज पुरी हुई। मैं ही वह वृद्ध हूँ, यह शरीर उस युवक का था, अब मेरा है।”
इस पर फैरेल ने प्रश्न किया- तब फिर तुम्हारा पहला शरीर कहाँ है?
संकेत से उस युवक शरीर में प्रवेशधारी संन्यासी ने बताया-वह वहाँ पेड़ के पीछे अब मृत अवस्था में पड़ा है। अपना प्राण शरीर खींच कर उसे इस शरीर में धारण कर लेने के बाद उसकी कोई उपयोगिता नहीं रही। थोड़ी देर में उसका अग्नि संस्कार कर देते, पर अभी तो इस शरीर के कपड़े भी नहीं सुखा पाये थे कि आपके इन सैनिकों ने हमें बन्दी बना लिया।
श्री फैरेल ने इसके बाद उन संन्यासी से बहुत सारी बातें हिन्दू-दर्शन के बारे में पूछीं और बहुत प्रभावित हुए। वह यह भी जानना चाहतें थे कि स्थूल शरीर के अणु-अणु में व्याप्त प्रकाश शरीर के अणुओं को किस प्रकार समेटा जा सकता है, किस प्रकार शरीर से बाहर निकाला और दूसरे शरीर में अथवा मुक्त आकाश में रखा जा सकता है? पर यह सब कष्ट साध्य योग साधनाओं से पूरी होने वाली योजनायें थी, उसके लिये श्री फैरेल के पास न तो पर्याप्त साहस ही था और न ही समय। पर उन्होंने यह अवश्य स्वीकार कर लिया कि सूक्ष्म अन्तर्चेतना से सम्बन्धित भारतीय तत्व-दर्शन कोई गल्प या कल्पना मात्र नहीं, वह वैज्ञानिक तथ्य है, जिनकी ओर आज यूरोपीय वैज्ञानिक बढ़ रहे हैं।
कोश ( सेल ) स्थिति नाभिक ( न्यूक्लियस) में, जिसमें जीवित चेतना के सूक्ष्मतम संस्कार माला के मनकों की तरह पिरोये हैं, स्वतंत्र कोश में शरीर निर्माण की क्षमता है, अमीबा के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रकट हो गया है। पर वैज्ञानिक अभी यह स्वीकार नहीं करते कि न्यूक्लियस स्वतन्त्र अवस्था में भी रह सकता है। उस सिद्धान्त की पुष्टि भारतीय दर्शन का यह परकाया प्रवेश सिद्धान्त करेगा। भूत-प्रेत की कल्पना को भले ही लोग एकाएक स्वीकार न करें पर श्री फैरेल के उक्त संस्मरण को धोखा नहीं कहा जा सकता। वे एक जिम्मेदार व्यक्ति थे और यह घटना उन्होंने स्वयं ही 17 मई 1657 के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उद्धृत की थी।