
इष्ट की उपासना का मर्म
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दिन ढल रहा था। रात तथा दिन फिर से बिछुड़ जाने को कुछ क्षणों के लिये एक दूसरे में विलीन हो गये थे। रम्य वनस्थली में एक पर्णकुटी में से कुछ धुआँ सा उठ रहा था।
कुटीर में निवास करने वाले दो ऋषि- शनक तथा अभिप्रतारी अपना भोजन तैयार कर रहे थे। वनवासियों का भोजन ही क्या? कुछ फल तोड़ लाये-कुछ दूध से काम चल गया-हाँ, कन्द-मूलों को अवश्य आँच में पकाना होता था। भोजन लगभग तैयार हो चुका था और उसे कदलीपत्रों पर परोसा जा रहा था।
तभी बाहर किसी आगन्तुक के आने का शब्द हुआ। दोनों ने जानने का प्रयत्न किया। बाहर एक युवा ब्रह्मचारी खड़ा था।
ऋषि ने प्रश्न किया- ‘कहो वत्स! क्या चाहिए?’ युवक विनम्र वाणी में बोला- ‘आज प्रातः से अभी तक मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सका है। मैं क्षुधा से व्याकुल हो रहा हूँ। यदि कुछ भोजन मिल जाता, तो बड़ी दया होती।’
कुटीर निवासी कहने को वनवासी थे, हृदय उनका सामान्य गृहस्थों से भी कहीं अधिक संकीर्ण था। मात्र सिद्धान्तवादी थे वे- व्यावहारिक वेदाँती नहीं थे। सो रूखे स्वर में कहा- ‘भाई तुम किसी गृहस्थ का घर देखो। हम तो वनवासी हैं। अपने उपयोग भर का ही भोजन जुटाते हैं नित्य।’
ब्रह्मचारी को बड़ी ही निराशा हुई। यद्यपि वह अभी ज्ञानार्जन कर ही रहा था-तथापि कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का व्यावहारिक बोध था उसे। निराश इस बात से नहीं था वह कि उसे भोजन प्राप्त नहीं हो सका था। उसकी मानसिक पीड़ा का कारण यह था कि यदि कोई साँसारिक मनुष्य इस प्रकार का उत्तर देता तो फिर भी उचित था। वह उसके भौतिकतावादी-मोह से भरे दृष्टिकोण का परिचायक होता। किन्तु ये वनवासी जो अपने आपको ब्रह्मज्ञान का अधिकारी अनुभव करते हैं- उनके द्वारा इस प्रकार का उत्तर पाकर यह क्षुब्ध हो उठा।
तब चुपचाप चले जाने की अपेक्षा उस युवक ने यही उचित समझा कि इन अज्ञान में डूबे ज्ञानियों को इनकी भूल का बोध करा ही देना चाहिए।
उसने पुनः उनको पुकारा। बाहर से भीतर का सब कुछ स्पष्ट दीख रहा था। झुँझलाते हुए शनक तथा अभिप्रतारी दोनों बाहर आये। तब युवक बोला- ‘क्या मैं यह जान सकता हूँ कि आप किस देवता की उपासना करते हैं?’
उपनिषद् काल में-जिस समय की यह घटना है-विभिन्न ऋषि-मुनि विभिन्न देवता विशेष की साधना करते थे।
उन ऋषियों को तनिक क्रोध आ गया। व्यर्थ ही भोजन को विलम्ब हो रहा था। पेट की जठराग्नि भी उधर को ही मन की रास मोड़ रही थी।
झुँझलाहट में कहा- ‘तुम बड़े असभ्य मालूम होते हो। समय-कुसमय कुछ नहीं देखते। अस्तु! हमारा इष्टदेव वायु है, जिसे प्राण भी कहते हैं।’
अब वह ब्रह्मचारी बोला- ‘तब तो आप अवश्य ही यह जानते होंगे कि यह प्राण समस्त सृष्टि में व्यापक है। जड़-चेतन सभी में।’
ऋषि बोले- ‘क्यों नहीं! यह तो हम भली-भाँति जानते हैं।’
अब युवक ने प्रश्न किया- ‘क्या मैं यह जान सकता हूँ कि यह भोजन आपने किसके निमित्त तैयार किया है?’
ऋषि अब बड़े गर्व से बोले- ‘हमारा प्रत्येक कार्य अपने उपास्य को समर्पित होता है।’
ब्रह्मचारी ने मन्द स्मिति के साथ पुनः कहा- ‘यदि प्राण तत्व इस समस्त संसार में व्याप्त है, तो वह मुझमें भी है। आप यह मानते हैं?’
ऋषि को अब ऐसा बोध हो रहा था कि अनजाने ही वे इस युवा के समक्ष हारते चले जा रहे हैं। तली में जैसे छेद हो जाने पर नाव पल-पल अतल गहराई में डूबती ही जाती है युवक की सारगर्भित वाणी में उनका अहं तथा अज्ञान वैसे ही धंसता चला जा रहा था। आवेश का स्थान अब विनम्रता लेती जा रही थी।
शनक धीमे स्वर में बोले- ‘तुम सत्य कहते हो ब्रह्मचारी! निश्चय ही तुम्हारे अन्दर वही प्राण, वही वायु संव्याप्त है, जो इस संसार का आधार है।’
ब्रह्मचारी संयत स्वर में अब भी कह रहा था-’तो हे महामुनि ज्ञानियों! आपने मुझे भोजन देने से मना करके अपने उस इष्टदेव का ही अपमान किया है जो कण-कण में परिव्याप्त है। चाहे विशाल पुँज लगा हो, चाहे एक दाना हो- परिणाम में अन्तर हो सकता है- किन्तु उससे तत्व की एकता में कोई अन्तर नहीं आता। आशा है मेरी बात का आप कुछ अन्यथा अर्थ न लगायेंगे।’ ब्रह्मचारी का उत्तर हृदय में चला गया था। सत्य में यही शक्ति होती है। दोनों ऋषि अत्यन्त ही लज्जित हुए खड़े थे। किन्तु साधारण मनोभूमि के व्यक्तियों में तथा ज्ञानियों में यही तो अन्तर होता है। ये अपनी त्रुटियों को भी अपनी हठधर्मी के समक्ष स्वीकार नहीं करते और ये अपनी भूल का बोध होते ही, उसे सच्चे हृदय से स्वीकार कर लेते हैं तथा तत्क्षण उसके सुधार में संलग्न हो जाते हैं।
अभिप्रतारी ने अत्यन्त ही विनम्र वाणी में कहा- ‘हम से बड़ी भूल हो गई ब्रह्मचारी! लगता है तुम किसी बहुत ही योग्य गुरु के पास शिक्षा ग्रहण कर रहे हो। धन्य हैं वे। तुम उम्र में हमसे कहीं छोटे होते हुए भी तत्वज्ञानी हो। अब कृपा करके हमारी कुटी में आओ और भोजन ग्रहण करके हमें हमारी भूल का प्रायश्चित्त करने का अवसर दो।’
और दोनों सादर उस ब्रह्मचारी युवक को ले गये। उसे पग पाद प्रक्षालन हेतु शीतल जल दिया तथा अपने साथ बैठकर सम्मानपूर्वक भोजन कराया।
उस दिन से वे अपनी कुटी में ऐसी व्यवस्था रखते कि कोई भी अतिथि अथवा राहगीर कभी भी आये, वे उसे बिना भोजन किये न जाने देते। इष्ट की उपासना का मर्म-सच्चा स्वरूप अब उनकी समझ में आ गया था।