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आदानं हि विसर्गाय सताँ वारिमुचामिव।
-कालीदास
बादल पृथ्वी से जल लेकर फिर पृथ्वी को लौटा देते हैं उसी प्रकार सज्जन पुरुषों को चाहिए कि वे समाज से जो कुछ पायें उसका दान भी करें।
लोग सार्वजनिक संस्थाओं में दान देते हैं। पर साथ ही यह भी प्रयत्न करते हैं कि उनका नाम प्रसिद्ध हो। उनको संस्था में कोई पद मिले जिससे लोग उन्हें जानें और उनका सम्मान करें। ऐसे ही लोक लिप्सालुओं के कारण सार्वजनिक संस्थाओं की मिट्टी खराब हो जाती है, जिनका ध्येय लोक सेवा होता है वे आपसी ईर्ष्या-कलह तथा दुरभिसन्धियों के अखाड़े बन जाते हैं। जिनको सब नहीं मिल पाता वे संस्था को हानि पहुँचाने की कोशिश करने लगते हैं और पद पा सकते हैं वे किन्हीं भी कारणों से उन्हें छोड़ना नहीं चाहते फिर चाहे उसके लिये उन्हें कितनी ही उखाड़-पछाड़ क्यों न करनी पड़े। सदस्य एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए संस्था तक को नष्ट कर देने पर तुले रहते हैं। यह तो जनसेवा नहीं हुई। थोड़ा सा दान देकर इतना बड़ा पाप मोल लेकर यदि कोई आत्म-संतोष का सुख चाहता है तो वह बालू से तेल पाने जैसी आशा रखता है।
लोग किसी देवता का मन्दिर बनवाते हैं उसमें पैसा लगाते हैं और उसका प्रबंध करते हैं, किन्तु खेद है कि वे मन्दिर की प्रसिद्ध देवता के नाम पर न कराकर अपने नाम पर कराते हैं। स्थापक का पत्थर देवता के नाम से कहीं विशाल तथा मोटे अक्षरों का जड़ा जाता है। अपने इस कार्य के लिये प्रशंसा पाने के हेतु पैसा खर्च कर प्रचार कराते हैं। भला इस प्रकार की व्यापारिक जनसेवा आत्म-संतोष का सुख कहाँ से लाकर दे पायेगी। बड़े-बड़े काम तो छोड़ दीजिए यदि कोई कुछ दिनों के लिये एक छोटी-सी प्याऊ बिठाल देता है तो उस स्थान पर अपने नाम का बोर्ड टंगवा देता है। किसी को भी पानी पिलाने पर उससे यह आशा करता है कि वह उनकी इस उदारता का परिचय लोगों को दे और उनके नाम का प्रचार करे।
इसी प्रकार यदि कोई अभावग्रस्त अथवा आपत्तिग्रस्त लोगों की कुछ सेवा करते हैं और यदि वहाँ पर नामपद जड़ाने का कोई अवसर न हुआ तो अपने कृत्य का स्वयं प्रचार करते हैं। जहाँ किसी से बात करने का मौका मिला कि घुमा-घुमा कर अपने सुकृत्य की चर्चा करने लगे। बहुत बार देखा गया है कि यदि कोई शिक्षित किन्हीं बच्चों को निःशुल्क पढ़ा देते हैं तो चाहते हैं कि उनके अभिभावक उनका अभिनन्दन करें और बच्चे अपने गुरु की स्थान-स्थान पर चर्चा करते रहें।
अधिकाँश लोक लिप्सा से प्रेरित होकर ही थोड़ा सा जनसेवा का कार्य करके सौ मुखों से उसका प्रचार करते हैं। लंबे-लंबे लेक्चर झाड़ कर लोगों को प्रभावित करते, चुनावों में खड़े होते और दाँव-पेंच चलाकर सफल हो जाते हैं और तब अपना लोक परिचय बढ़ाने के लिए नेताओं तथा मंत्रियों के साथ खुशामद अथवा करामात से फोटो खिंचाने का प्रयत्न करते और इच्छुक रहते हैं कि उनका नाम भी अखबार में जाता। एक सेवा से इतना लाभ उठाने वाले लोक लिप्सु यदि आत्म-संतोष जैसा अलौकिक सुख पाना चाहते हैं तो वे भूल करते हैं। उन्हें अपनी यह इच्छा छोड़ ही देनी चाहिए।
बहुत बार देखा जाता है कि लोक लिप्सु नेता तथा मंत्री लोग यदि अकाल अथवा बाढ़-पीड़ित लोगों की दशा का दिग्दर्शन करने जाते हैं तो उनके साथ उसका प्रचार करने वाले पत्रकार व फोटोग्राफर भी जाते हैं और सेवा कार्यक्रम, पर तरह-तरह के फोटो और तरह-तरह के जनसंपर्क का ही कार्यक्रम अधिक रहता है। वे उन दुर्दशाग्रस्त लोगों के प्रति अपनी तथाकथित सहानुभूति एवं संवेदना को लोक प्रियता के मूल्य में भुना लेने का प्रयत्न किया करते हैं। भला इस प्रकार की लोक लिप्सा से दूषित सेवा कार्य आत्म-संतोष देने लगे तो लोगों को उसके लिये तप त्याग तथा निस्पृह जन-सेवा का जीवन अपनाने की क्या जरूरत है।
मूक जन सेवा ही आत्म-संतोष की वाहिका होती है। इसके लिये जिज्ञासु को शिखरस्थ कलश नहीं नींव की आधारशिला बनने की भावना रखनी चाहिए। प्रशंसा, नामवरी, प्रसिद्धि आदि की लोक लिप्सा को छोड़कर जन सेवा का व्रत लेने वालों और दान-पुण्य करने वालों को ही आत्म सन्तोष मिला करता है। जो भी इस विषय में जरा भी व्यापार बुद्धि रखता है उसे सर्वथा, सर्वदा निराश ही होना पड़ता है सच्चे आत्म-संतोष के लिये लोक लिप्सा का त्याग आवश्यक है।