
भारतीय संस्कृति का मर्म और स्वरूप
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‘कृति’ जो ‘संस्कार’-सम्पन्न हो- संस्कृति कहलाती है। इसका अर्थ भारतीय जीवन प्रणाली में प्रचलित षोडश संस्कारों मात्र से नहीं हैं। वह तो 16 अध्याय मात्र हैं, जो मनुष्य को थोड़ा ठहर कर यह सोचने की प्रेरणा देते हैं कि उसका अंतरंग जीवन क्यों, कैसे और किसलिए आविर्भूत हुआ। एक बौद्धिक प्राणी होने के नाते वह अपने उस उद्देश्य को बाह्य जीवन में पूरा भी कर पा रहा है या नहीं? यदि नहीं तो उसे अब निश्चित ही आगे सोच−समझ कर पग बढ़ाना चाहिये।
इस तरह 16 संस्कार जीवन के 16 मोड़ थे, हैं जो प्रत्येक मुमुक्षु अर्थात् आत्म-कल्याण की इच्छा रखने वाले को पिछले जीवन में हुये आलस्य, प्रमाद और पाप से सावधान-सचेत करते हैं और आगे के लिये दिशा निर्देशन भी। पर संस्कृति इन षोडश संस्कारों से भी बड़ी- जीवन के प्रत्येक क्षेत्र प्रत्येक घड़ी, प्रत्येक कर्म में नीति बनकर समाई रहती है। प्रत्येक आचरण जो आत्मा को प्रिय लगता है-आत्म कल्याण की आवश्यकता को पूरी करता है-वहाँ तक संस्कृति का विस्तार है।
सभ्यता और संस्कृति दोनों शब्द साथ-साथ चलते हैं, पर दोनों के अर्थ में भारी भिन्नता है। इसी प्रकार धर्म और संस्कृति भी पर्याय से लगते हैं, किन्तु इनमें भी अन्तर है। सभ्यता किसी भी देश की हो सकती है और उसका संबंध, रहन-सहन, भाषा-वेश, पारिवारिक जीवन, शिखा-दीक्षा आदि बहुर्मुखी व्यावहारिक पहलुओं से है। और धर्म इससे ठीक विपरीत अर्थात् अन्तर्मुखी विकास के जितने भी साधन और अभ्यास हैं, वह सब धर्म के अंतर्गत आते हैं। ‘यतोऽभ्युदय-निश्रेयस सिद्धिः स धर्मः। जो निःश्रेयस और अभ्युदय की प्राप्ति कराये, वही धर्म है। धर्म के 10 अंगों-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध में से कई ऐसे लगते हैं जो बहिर्मुखी जीवन से संबंधित जान पड़ते हैं किन्तु यह सब भावनायें हैं जो मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार के लिये तैयार करती हैं, भले ही उससे बहिर्मुखी जीवन में कुछ कठिनाइयाँ ही क्यों न आती हों।
सभ्यता और धर्म के समन्वय का नाम संस्कृति है। जिस तरह इड़ा और पिंगला के योग से सुषुम्ना का, गंगा और यमुना के योग से त्रिवेणी का आविर्भाव होता है, उसी प्रकार संस्कृति धार्मिक परिप्रेक्ष्य में तो अन्तर्मुखी जीवन के विकास की प्रेरणा देती है और सभ्यता के रूप में बाह्य जीवन को भी शुद्ध और ऐसा बनाती है जिसमें एक मनुष्य किसी भी दूसरे प्राणी के हित का अतिक्रमण न करता हुआ धार्मिक लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे।
इस तरह जो आचार-विचार, रहन-सहन साधना उपासना, इष्ट-ध्यान, बोली-भाषा, उपरोक्त दोनों आवश्यकताओं को पूर्ण करें वही सच्ची संस्कृति का निर्माण करते हैं, जब इस परिभाषा में रखकर देखते हैं तो हम पाते हैं कि भारतीय संस्कृति ने इस संतुलन को बनाये रखने में सफलता प्राप्त की है। उसमें जाति-आयु लिंग और वर्ण का कोई भेद-भाव नहीं है। सब देशों के लिये संपूर्ण प्राणियों के लिये हितकारक होने के कारण ही वह विश्व-संस्कृति कही जाती है। भारत में जन्म लेने के कारण उसे भारतीय संस्कृति या हिन्दू-संस्कृति भी कहते हैं। पर उसमें किसी एक समुदाय, सम्प्रदाय या देशवासियों के ही कल्याण की सीमा संकीर्णता नहीं है।
संस्कृति का सीधा संबंध आत्मा से, मोक्ष, अमरत्व और ईश्वर की प्राप्ति से है। इसलिये उसमें जोड़े गये साधन, पूजन और योगाभ्यास को भी अनिवार्य स्थान दिया गया है। कुछ लोग उसे हिन्दुओं की ही निधि मानते हैं। पर ऐसा सोचना, चाहे कोई अन्य देश का व्यक्ति हो या इसी देश का, गलत है। हमारा दर्शन जिस पर संस्कृति आधारित है, उसमें ऐसी कोई अनिवार्यतायें नहीं हैं। कोई भी इष्ट रखकर कैसी भी उपासना पद्धति से मनुष्य आत्म-कल्याण का लक्ष्य पूरा करे, संस्कृति इस मामले में तो व्यक्ति को स्वतंत्र कर देती है। किन्तु साथ ही वह यह भी देखती है कि ऐसी किसी भी साधना या अभ्यास से पराये का हित नष्ट नहीं होना चाहिये, भले ही उससे आत्म-कल्याण की आवश्यकता पूरी न हो। तंत्र भाग में ऐसी क्रियाएं हैं। इसीलिये भारतीय आचार्यों ने उसे गोपनीय रखा। उनका उद्देश्य प्रत्येक कर्म को चाहे वह उपासना रही हो अथवा वणिक-विपणन उसमें ब्राह्मी भाव, परमार्थ शुद्धता और पवित्रता बनाये रखना रहा है। इसीलिये भारतीय संस्कृति सदैव ही निरालोच्य रही है। उसने दूसरे धर्मों के आदर्शों को भी अपने में मिलाया पर तो भी उसने अपने तत्वदर्शन की वैज्ञानिकता को आँच नहीं आने दी।
मानवीय प्रकृति अधोगामी है इसलिये व्यवहार में मनुष्य पूर्ण शुद्ध और ब्रह्मपरायण नहीं रह सकता इस तरह की आलोचना कोई पाश्चात्य विद्वानों ने की है किन्तु भारतीय संस्कृति में ऐसी व्यवस्था, निष्ठा और संकल्प जागृत किया गया है जो प्रत्येक व्यक्ति को कम के कम किसी भी क्षेत्र में ब्रह्म-आविर्भूत बनाये रख सकती है।
भारतीय संस्कृति उसके मनोनिग्रह पर जोर देती है, वह बताती है कि मनुष्य यदि काम क्रोध लोभ, मोह, अभिमान और बनावटीपन से अपने आपको बचा ले तो किसी भी क्षेत्र में रखकर अपनी ब्रह्मनिष्ठा बनाये रख सकता है। यह तभी संभव है, जब उसका ज्ञान भी समृद्ध रहे और क्षात्र तेज भी। यजुर्वेद में कहा है-
यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च संम्यचौ चरतः सह।
तं लोक पुण्यं प्रज्ञेष यत्र देवाः सहाऽग्निना॥
अर्थात्- हे वत्स! तुम अपने विचार उच्च रखना, पर साथ-साथ अपने क्षत्रियत्व को भी जागृत किये रखना। ऐसा विज्ञानी व्यक्ति ही अपनी अग्नि (तेजस्विता) को बनाये रखते हैं और जहाँ ऐसे लोग बने रहते हैं, वहाँ यज्ञ का फल उन्हें सदैव मिलता रहता है।
ब्रह्म और क्षत्रियत्व के पास-पास रहने का अर्थ ज्ञान की तेजस्विता और संयम से है अर्थात् यदि ज्ञान से अपनी निष्ठा और आदर्श को स्थिर नहीं रख सकते तो उसके लिये विध्वंस का भी मार्ग अपनाया जा सकता है। भले ही अपनी इच्छाओं का ही ध्वंस क्यों न हो। यही ब्रह्म के साथ क्षत्रियत्व है। इस नियम का पालन करने वाले ब्राह्मण समाज के शीर्ष होते हुए भी पक्षपात और पराश्रय रहित रहे। उन्होंने जो कुछ लिखा, पढ़ा-पढ़ाया, प्रसारित किया वह शुद्ध ज्ञान था। ब्राह्मी मार्गदर्शन से ओत-प्रोत था। यदि ऐसा करते हुए वे अपने मोह, काम, क्रोध, लोभ को मारते नहीं, तो अपनी तेजस्विता बनाये नहीं रख सकते थे।
क्षत्रिय जब मनु के समक्ष आये तो उन्होंने कहा- भगवन्! आपने हमें जो कर्म दिया है उसमें तो हत्या, लूटपाट, मारकाट ही है। हम अपने ब्राह्मी संस्कार कैसे सुरक्षित रख सकेंगे। मनु ने कहा-
ब्राह्मं प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि।
सर्वस्याऽस्य यथान्यायं कर्त्तव्य परिक्षणम्॥
क्षत्रियों! तुम्हें आदेश है कि शत्रु की सेना और सैन्य सामग्री का ही विनाश करना, प्रजा पर हाथ न उठाना, यही तुम्हारे ब्रह्म-संस्कार की रक्षा करेगा।