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कोई संस्कृति विश्व को प्रकाश दे सकती है, तो वह भारतीय संस्कृति ही है। वह किसी एक वर्ग जाति या देश के लिये नहीं।
-रोम्याँ रोलाँ
इसी प्रकार वैश्य को भी अपने कर्म में लोभ से तनिक भी चित्त न डुलाने और लाभ का एक निश्चित अंश लेने को ही कहा गया। जिससे समाज में किसी को भी उन्हें पाप-कर्मी कहने का अवसर नहीं आये। इस तरह जीवन के सभी कर्मों को तीन भागों में बाँटकर उनको ब्रह्मनिष्ठा से जोड़ने का जो अध्याय भारतीय संस्कृति ने रचा वह अद्वितीय और बेजोड़ है। उसमें मनुष्य ज्ञान से भी और कर्म से भी भक्ति की आवश्यकता को पूरा करता हुआ अपना लौकिक और पारलौकिक जीवन सुखी बना सकता है।
कर्म से इन्हीं तीनों क्षेत्रों को जब अनेक विधाओं में बाँटा गया तब 1. धर्म 2. राजनीति 3. वास्तु चित्र एवं ललित कलायें 4. व्यक्ति और परिवार-व्यक्ति और समाज के संबंध 5. शिक्षा-दीक्षा आदि अनेक क्षेत्र दिखाई दिये। किसी भी क्षेत्र में केवल श्रेष्ठता को ही मुख्य मानने और उसका निष्ठापूर्वक पालन करने से उस कृति में ब्राह्मी भाव बना रहता है। धर्म स्वार्थ सिद्धि में न पड़े उसका संबंध सदैव ही परलोक, स्वर्गमुक्ति और आत्म-साक्षात्कार से बना रहे तो वह धर्म ही मनुष्य का लोक-परलोक का साथी हो सकता है। राजनीति में साम-दाम, दण्ड, भेद को अधिकार रूप में प्रदान किया गया है, पर यदि नेता मरणपर्यन्त उनका प्रयोग अपने हित में न कर न्याय और समाज व्यवस्था के लिये करता रहता है तो वह संस्कार सम्पन्न बना रह सकता है। कला का जो स्वरूप आज दिखाई दे रहा है, वह अश्लीलता और कामुकता का उत्तेजन करता है। उसकी आवश्यकता कलाकारों के स्वार्थ के कारण है, अन्यथा परमार्थ और ईश्वर भावना का परित्याग न किया गया होता तो यह कला लोक-रंजन की आवश्यकता को भी पूरी कर रही होती और मनुष्य के पारलौकिक जीवन को भी सुदृढ़ बना रही होती। साहित्य के क्षेत्र में यही बात है। साहित्यकार भी अब स्वार्थ और आत्म-प्रवंचना में ही ग्रस्त हैं। समाज व्यवस्था में न तो बच्चों को संस्कार वान बनाने की कोई पद्धति है न शिक्षा में- ब्राह्मी संस्कार की फल जो होना चाहिये वही हो रहा है। चारों ओर छात्र असंतोष, असन्तुलन उद्दण्डता और चरित्रहीनता के ही दृश्य दिखाई दे रहे हैं। अब व्यक्ति का सामाजिक जीवन सभ्य तो हो रहा है, पर सुसंस्कृत नहीं। उसके लिये सभ्यता के साथ धर्म का समभाव आवश्यक है। तभी व्यक्ति समाज और संसार सुखी रह सकता है। यह तत्व केवल भारतीय संस्कृति में ही है। इसीलिये वह विश्व संस्कृति है। जो संस्कृति हमारे अन्तर्बाह्य जीवन में सामंजस्य नहीं रख सकती, वह कभी हितकर नहीं हो सकती। ग्राह्य तो वही हो सकती है जो मनुष्य जीवन के दोनों ही प्रयोजन साधे। क्योंकि मनुष्य न पूर्णतया पदार्थ ही है, न पूर्णतया आत्मा। दोनों का मिला-जुला रूप मनुष्य जीवन के रूप में सामने आता है। दोनों को शुद्ध बनाकर ही पूर्णता प्राप्त कराना संस्कृति का उद्देश्य है। इस रूप में भारतीय संस्कृति ही एक मात्र सफल जीवन नीति हो सकती है।