
पदार्थ से पृथक् आत्म-चेतना का अस्तित्व
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एम्सटरडम (हालैण्ड) के एक स्कूल में वहाँ के प्रिंसिपल की लड़की मितगोल के साथ हाला नाम की एक ग्रामीण कन्या की बड़ी मित्रता थी। हाला देखने में बड़ी सुन्दर थी, मितगोल विद्वान। दोनों में समीपी संबंध था और परस्पर स्नेह भी। इसलिये वे प्रायः एक दूसरे से मिलतीं और पिकनिक पार्टियाँ मनाया करतीं।
एक बार की बात है कि दोनों सहेलियाँ कार से कहीं जा रही थीं। सामने से आ रहे किसी भार-वाहक से बचाव करते समय कार एक विशालकाय वृक्ष के तने से जा टकराई। भीतर बैठी दोनों सहेलियों में से मितगोल को तो भयंकर चोटें आयीं, उसका सम्पूर्ण शरीर क्षत-विक्षत हो गया और कार से निकालते-निकालते उसका प्राणाँत हो गया। हाला के शरीर में यद्यपि बाहर कोई घाव नहीं थे तथापि अन्दर कहीं ऐसी चोट लगी कि उसका भी प्राणाँत वहीं हो गया। दोनों शव बाहर निकाल कर रखे गये। तभी एकाएक एक विलक्षण घटना घटित हुई। जैसे किसी ने शक्ति लगाकर हाला के शरीर में प्राण प्रविष्ट करा दिये हों, वह एकाएक उठ बैठी और प्रिंसिपल को पिताजी कह कर लिपटकर रोने लगी। सब लोगों ने उसे धैर्य दिलाया, पर सब आश्चर्यचकित थे कि यह किसान की कन्या प्रिंसिपल साहब को अपना पिता कैसे कहती है। उनकी पुत्री मितगोल का शरीर तो अभी भी क्षत-विक्षत अवस्था में पड़ा हुआ था।
उसका नाम-हाला कहकर जब उसे सम्बोधित किया गया तो उसने बताया-पिताजी! मैं हाला नहीं, मैं तो आपकी कन्या मितगोल हूँ। मैं अभी तक (शव की ओर इशारा करते हुए) इस शरीर में थी। अभी-अभी किसी अज्ञात शक्ति ने मुझे हाला के शरीर में डाल दिया है।
अनदेखी, अनहोनी इस घटना का जितना विस्तार होता गया, लोगों का कौतूहल उतना ही बढ़ता गया। लोग तरह-तरह के प्रश्न पूछते और कन्या उनका ठीक वही उत्तर देती जिनकी मितगोल को ही जानकारी हो सकती मितगोल की कई सहेलियाँ, संबंधी आये आये और उससे बातचीत की। उन सब वार्ताओं में हाला के शरीर में प्रविष्ट चेतना ने ऐसी-ऐसी एकान्त की और गुप्त बातें तक बता दीं, जो केवल मितगोल ही जानती थी।
एक अन्तिम रूप से यह निश्चित करने के लिए कि हाला के शरीर में विद्यमान आत्म-चेतना क्या वस्तुतः मितगोल ही है- वहाँ के वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, अध्यापकों और प्रिंसिपल सहित सैंकड़ों छात्रों के बीच खड़ा कर उस कन्या से ‘स्पिनोजा के दर्शन शास्त्र’ पर व्याख्यान देने को कहा गया। उल्लेखनीय है कि वह मितगोल ही थी जिसे ‘स्पिनोजा के दर्शनों’ जैसे गूढ़ विषय पर अधिकार प्राप्त था। गाँव की सरल कन्या बेचारी हाला स्पिनोजा तो क्या अच्छी कविता भी बोलना नहीं जानती थी। किन्तु जब यह बालिका स्टेज पर खड़ी हुई तो उसने ‘स्पिनोजा के तत्वज्ञान’ पर भाषण देकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। प्रिंसिपल साहब ने स्वीकार किया कि उसके शब्द, बोलने का ढंग हाव-भाव ज्यों-के-त्यों मितगोल के जैसे ही हैं, इसलिए वह मितगोल ही हैं, भले ही इस घटना का अद्भुत रहस्य हम लोगों की समझ में न आता हो।
पुनर्जन्म, मृत्यु और उसके कुछ ही समय बाद जीवित होकर कई-कई वर्ष तक जीवित रहने की सैंकड़ों घटनाएं प्रकाश में आती रहती हैं और उनसे यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि आत्म-चेतना पदार्थ से कोई भिन्न अस्तित्व है, फिर भी मनुष्य साँसारिक मोह-वासनाओं और तरह-तरह की महत्वाकाँक्षाओं में इतना लिप्त हो चुका है कि उसे इस ओर ध्यान देने और एक अति महत्वपूर्ण तथ्य को समझ कर आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने की भी प्रेरणा नहीं मिलती। महाराज युधिष्ठिर के शब्दों में इसे संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य ही कहना चाहिए।
कुछ समय पूर्व जब वैज्ञानिक यह मानते थे कि जीवन या चेतना शरीर बनाने वाले कोशों (सेल्स-शरीर का वह छोटे-से-छोटा टुकड़ा जिसमें जीवन के सभी लक्षण मौजूद हों) की रासायनिक चेतना के अतिरिक्त कुछ नहीं है, पर सजीव और निर्जीव कोशों (सेल्स के विस्तृत अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों की उक्त धारणा भी नष्ट हो चुकी है और अब जो सिद्धाँत सामने आये हैं वह इस बात के साक्षी हैं कि मनुष्य के शरीर में भरी हुई चेतनता को स्थिर रखने में कोशों की रासायनिक प्रक्रिया सहायक तो हो सकती है पर वही आत्म-चेतना हो, यह नितान्त भ्रममूलक है।
जीवित कोश जिस रासायनिक पदार्थ से बने होते हैं उसे ‘प्रोटोप्लाज्मा’ कहते हैं। पर कोश का संपूर्ण भाग प्रोटोप्लाज्म ही नहीं होता। प्रोटोप्लाज्म एक प्रकार का तरल द्रव होता है, वह एक स्थान पर कुछ गाढ़ा और कुछ कड़ा-सा हो जाता है। इस स्थान से ही ‘प्रोटोप्लाज्म’ में रासायनिक हलचल के लिये स्पन्दन निकलते रहते हैं। यह कहना चाहिए कि प्रोटोप्लाज्म का जीवन इस केन्द्रक पर आधारित है। इस केन्द्रक (न्यूक्लियस) के बीच में एक और गोला होता है, उसे केन्द्रिका (न्यूक्लियस) कहते हैं। इसके अतिरिक्त कोश में आकर्षण मण्डल, आकर्षण बिन्दु, कोशिका आवरण और शून्य स्थान (वैक्युओल) भी होते हैं। पर मुख्य रूप से सम्पूर्ण कोश में यह केन्द्रक ही चेतना का मूल बिन्दु है। एक कोशीय जीव अमीबा के विस्तृत अध्ययन से पता चल गया है कि 1. गति (मूवमेंट)2. उत्तेजनशीलता (इरिटबिलिटी) 3. पोषण (न्यूट्रिशन) और स्वाँगीकरण (एस्सिमिलेशन) 4. वृद्धि(ग्रोथ) 5. उत्सर्जन (एक्स्क्रेशन) तथा 6. जनन (रिप्रोडक्शन) यह 6 क्रियाएं केन्द्रक की इच्छा और स्पन्दन के ही परिणाम हैं। सामान्यतः इन 6 क्रियाओं के आधार पर ही मनुष्य को भी जीवित माना जाता है। केन्द्रीय रूप से शरीर की यह क्रियायें समाप्त हो जाती हैं तो मनुष्य की मृत्यु हो गई मान ली जाती है।
इन 6 क्रियाओं को समझ लेना आवश्यक है।
(1) गति-अमीबा को देखने से पता चलता है (सूक्ष्मदर्शी से यह सब देख पाना संभव है) कि अमीबा (जीव के रूप में एक जीवित और स्वतंत्र कोश) अपने प्रोटोप्लाज्म की थैली में से उंगली की तरह का कुछ हिस्सा बाहर निकलता रहता है और जिधर यह भाग निकल पड़ता है उधर ही अमीबा चल पड़ता है। मनुष्य शरीर-रचना जिस पुरुष बीज कोश (स्पर्म) और नारी के रज (ओवम) से मिलकर होती है वह कोश अपना विस्तार यद्यपि एक निश्चित सिद्धाँत पर करता हुआ शरीर के निश्चित बनावट वाले अंग-प्रत्यंग बनाता है पर उनकी विकास गति भी ठीक इसी सिद्धाँत पर काम करती है।
(2) उत्तेजनशीलता का अर्थ है अनुभूति या तन्मात्रा। मनुष्य-शरीर में यह काम नाड़ियाँ (अफरेन्ट एण्ड इफरेन्ट नर्व्स) करती हैं। पर यह नाड़ी मण्डल शरीर के सम्पूर्ण कोशों में छाया हुआ है अर्थात् प्रत्येक कोश में अमीबा के समान ही उत्तेजनशीलता होती है। अमीबा के शरीर के निकट गर्म आग, ठण्डी बर्फ, विद्युत, अम्ल, कोई वस्तु लाई जाये तो वह तुरन्त पीछे भागता है। इसी गुण का नाम उत्तेजनशीलता है। शरीर में यह क्रिया झटके से उस संकट से हाथ हटाने जैसी होती है। हमारे शरीर के किसी अंग में काँटा चुभ जाये तो इसी गुण के आधार पर मस्तिष्क को सूचना पहुँचती है। देखने में यह दर्द उंगली या शरीर के किसी भी हिस्से में होगा पर उसका अनुभव मस्तिष्क कर रहा होगा अर्थात् मस्तिष्क वाली चेतना सारे शरीर में प्रत्येक कोश के केन्द्रक की तरह स्थित होकर काम करती है।