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Magazine - Year 1971 - Version 2

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जीवन प्रवाह-अनादि से अनन्त तक

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दिसम्बर 1604 का एक दिन। एक फ्रांसीसी इंजीनियर के घर खचाखच भीड़ से भरे वातावरण में अधेड़ आयु के व्यक्ति कर्नल डिरोचाज ने प्रवेश किया। कर्नल को देखते ही लोगों में खामोशी छा गई। एक सर्वथा विचित्र प्रयोग था यह, लोग पुनर्जन्म के प्रमाण देखने उपस्थित हुये थे। कर्नल ने इंजीनियर की लड़की मेरी मेव को स्वच्छ आसन पर बैठाया, उसकी दृष्टि में अपनी दृष्टि डालकर वे कुछ क्षणों तक एकटक देखते रहे, थोड़ी ही देर में लड़की की बाह्य चेतना शून्य हो चली, कर्नल ने उसे आहिस्ता से लिटा दिया और उसकी देह को हलकी काली चादर से ढक दिया।

पश्चिमी देश पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानते नहीं, इस्लाम धर्म की मान्यता भी ऐसी ही है। उसका कहना है कि मृत्यु के बाद कयामत तक जीव कब्र में गड़ा रहता है। भारतीय मान्यतायें इन सबसे भिन्न और कहीं अधिक स्पष्ट व बुद्धि संगत है। पंचदशी के तृतीय अव्यय में आचार्य मिहिरचन्द्र ने पंचकोश विवेक प्रकरण में मनुष्य चेतना को अनादि व अनंत आत्मा का प्रवाह बताते हुए 43 श्लोकों में उसके क्रमशः आनन्द प्राप्ति हेतु विज्ञान स्वरूप धारण करने, मन के रूप में व्यक्त होने और प्राण रूप में गतिशील होकर माता-पिता के रज-वीर्य से बने मनुष्य शरीर में आने का वर्णन किया हैं वहाँ यह भी बताया है कि यह चेतना अपनी वासनाओं के कारण साँसारिक सुखों के आकर्षण में पड़ी बार-बार जन्म और मृत्यु वाले शरीरों में आता रहता है जब तक वह ज्ञान तप साधना द्वारा उस अविरल प्रवाह को पहचान नहीं लेता तब तक वह इस प्रकार मरता और नये शरीर धारण करता रहता है।

योग वशिष्ठ इसी बात को यों कहती है-

न जायते म्रियते चेतनः पुरुषः क्वचित्। स्वप्न संभ्रमवद्भ्रान्तते तत्पश्यति केवलम्॥ पुरुषश्चेतनामात्र, स कदा क्वेव नश्यति। चेतनव्यतिरिक्तत्वे वदान्यतिक पुमान्मवेत॥ कोऽद्य यावन्मृतं ब्रूहि चेतनं कस्य किं कथम्। म्रियन्ते देहलक्षणि चेतनं स्थित मक्षयत्॥ -योग वशिष्ठ 3/5/7

हे राम! मनुष्य के भीतर जो चेतना है। (आत्मा) वह न जन्म लेता है, न मरता है, भ्रम वश संसार की परिस्थितियों का स्वप्न की भाँति अनुभव मात्र करता है। मनुष्य में चेतना के अतिरिक्त है ही क्या वह नष्ट कहाँ होता है? यह तो शरीर हैं जो मरते-जीते रहते हैं आत्मा तो अक्षय स्थित रहता है।

दैवयोग से कर्नल डिरोचाज ने भारतीय दर्शन की इस मीमाँसा की अनुभूति करली थी। वे मैस्मरेजम के सिद्ध थे और इस विद्या द्वारा जीवन के गूढ़ रहस्यों का पता लगाने में सफल हुए थे। उन्होंने न केवल फ्राँस वरन् सारे योरोप को यह बताया था कि जीवन के बारे में पाश्चात्य मान्यता भ्रामक और त्रुटि पूर्ण है हमें इस सम्बन्ध में अन्ततः भारतीय दर्शन की ही शरण लेनी पड़ेगी। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए ही वे यह प्रयोग कर रहे थे। उन प्रयोग को देखने के लिये फ्राँस के बड़े शिक्षाविद् और वैज्ञानिक भी उपस्थित थे।

मेरी मेव के पिता सीरिया में इंजीनियर थे। मेरी स्वयं भी प्रतिभाशाली लड़की थी मैस्मरेजम द्वारा उसे अचेत कर लिटा देने के बाद कर्नल साहब ने उपस्थित लोगों की ओर देखकर कहा- अब मेरा इस लड़की के सूक्ष्म शरीर पर अधिकार है मैं इसे काल और ब्रह्माण्ड की गहराइयों तक ले जाने और वहाँ के सूक्ष्म रहस्यों का ज्ञान करा लाने में समर्थ हूँ।

किसी जमाने में यह प्राण विद्या भारतीयों के लिये आम-प्रचलित विद्या थी और उनके द्वारा अनेक योगी मृत्यु से पूर्व ही अपने शरीर मृतकों के शरीरों से बदल लिया करते थे और एक ही अवस्था में हजारों वर्ष तक जीवित बने रहते थे। प्राण विद्या के यह प्रयोग विज्ञान के प्रयोगों से कहीं अधिक रोचक और तथ्य पूर्ण हैं इसी विद्या के आधार पर प्राणों द्वारा आरोग्य प्रदान करते, गुप्त रहस्यों का पता लगाने तथा जीवन के प्रामाणिक रहस्य ढूंढ़ने के प्रयोग हुआ करते थे। कर्नल डिरोचाज का यह प्रयोग भारतीय सिद्धान्तों का प्रत्यक्ष प्रमाण है यह अनेक विलायती पत्रों में छपा था। पीछे इसे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मासिक ‘सरस्वती’ में छपाया था। उसी से यह घटना ‘आध्यात्मिकी’ पुस्तक के लिए उद्धृत की गई। यह पुस्तक इण्डियन प्रेम लि. प्रयोग से प्रकाशित हुई।

कर्नल डिरोचाज अब प्रयोग के लिए तैयार थे। उन्होंने मेरी मेव को सम्बोधित कर पहला प्रश्न किया- अब तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा है, क्या दिख रहा है- प्राण पाश में बद्ध अचेतन कन्या उत्तर दिया- मैं नीले और लाल रंग की छाया देख रही हूँ यह प्रकाश मेरे भौतिक शरीर से अलग हो रहा है और मैं अनुभव कर रही हूँ कि मैं शरीर नहीं प्रकाश जैसी कोई वस्तु हूँ यह प्रकाश मेरे भौतिक शरीर से अलग हो रहा है और मैं अनुभव कर रही हूँ कि मैं शरीर नहीं प्रकाश जैसी कोई वस्तु हूँ, अब मैं अपने शरीर से एक गज के फासले पर स्थित हूँ। पर जिस तरह विद्युत कण एक रेडियो को रेडियो स्टेशन से सम्बद्ध किये रहते हैं उसी प्रकार मेरा यह शरीर एक रस्सी की तरह पार्थिव शरीर से बंधा हुआ है। मेरी इस रंगीन प्रकाश शरीर के भीतर दिव्य ज्योति परिलक्षित हो रही है मैं यही तो आत्मा हूँ।”

कर्नल के प्रश्न बड़े विचित्र लग रहे थे पर उनमें एक अदृश्य सत्य झाँक रहा था। उपस्थित जन समुदाय स्तब्ध बैठा सारी गतिविधियों को देख सुन रहा था। जब यह प्रयोग हो रहा था मेरी मेव 18 वर्ष की थी। अब वह बोली मैं 16 वर्ष की आयु के दृश्य देख रही हूँ अब 14, अब 12 अब 10 की आयु के चित्र मेरे सामने हैं इस समय मैं सारसैल में हूँ अपने पिता के साथ, एक विस्तृत जीवन के दृश्य मेरे सामने हैं। अब मैं क्रमशः छोटी हुई जा रही हूँ। फिर वह कुछ देर तक चुप रही। ................. फिर बताना प्रारम्भ किया अभी मैं 1 वर्ष थी बोल नहीं पाई अब मैं अपने पूर्व जन्म के शरीर में हूँ इस शरीर से निकलने के बाद मुझे किसी अज्ञात प्रेरणा ने ‘मेरी मेव’ के शरीर में पहुँचा दिया था- अब मैं पहले जन्म के शरीर में छोटी हो रही हूँ और देख रही हूँ कि यह ग्रेट ब्रिटेन का समुद्री तट है मैं एक मछुए की लड़की हूँ। मेरा नाम ‘लोना’ था। 20 वर्ष की आयु में मेरी शादी हुई। मेरी एक कन्या हुई वह दो वर्ष की आयु में मर गई। मेरा पति मछलियाँ मारता है। उसके पास एक छोटा सा जहाज है। वह समुद्री तूफान में नष्ट हो गया उसी में मेरे पति की मृत्यु हो गई। मैं बहुत दुःखी हूँ, मैं भी समुद्र में डूबकर मर गई हूँ मछलियों ने मेरा शरीर खाया मैं वह सब देख रही हूँ इस सूक्ष्म शरीर में मैंने वैसी ही अनेकों आत्मायें देखी मैंने कुछ बात भी करनी चाही पर मेरा बात ही किसी ने नहीं सुनी, मैं भटकती फिरी पति और बच्चे की याद में वे मुझे मिले नहीं। हाँ एक नया शरीर अवश्य मिल गया।

यहाँ तक जो कुछ मेरी मेव ने बताया पीछे जाँच करने पर वह सारा घटना क्रम सत्य पाया गया। उससे भी गहन सत्य जीवन के अदृश्य भाग में छिपा हुआ है जिसे आज लोग भूले हुए हैं वासनाओं से बँधे जीव बार-बार शरीरों के बंधन में आते और स्थूल से स्थूल तर होते जाते, कष्ट भुगतते और संसार की नारकीय बनाकर स्वयं नरक तुल्य यन्त्रणायें सहते रहते हैं। इन्द्रियों के आकर्षण हमें छोड़ पाते तो हम अनुभव करते कि मनुष्य जीवन परमात्मा की अलभ्य देन है हमें इसका सदुपयोग करना चाहिए और सच्चे सुख की प्राप्ति करनी चाहिए यह सुख आत्म-चेतना के स्थिर प्रवाह को ढूँढ़ते और उसे प्राप्त करने में ही सन्निहित है।

कर्नल डिरोचाज ने कहा- अब तुम लोना के जन्म से पहले वाले शरीर में प्रवेश करो और वहाँ के सब दृश्य बतलाओ? मेरी मेव एक क्षण चुप रही फिर बोली- सघन अन्धकार हैं, मुझे तकलीफ हो रही है, उसका वर्णन नहीं कर सकती पर लगता है कि ये सब मेरी अपनी भूल के ही परिणाम है। जब मैं लुई अट्ठारहवें के समय में हूँ। पर मैं तो आदमी हूँ मेरा नाम ‘मावील’ है। पेरिस के एक दफ्तर में कर्मचारी हूँ, लोग गलियों में युद्ध कर रहे हैं, चारों तरफ रक्त-रंजित क्रान्ति, मैं भी उसी सम्मिलित हूँ, मैंने कई आदमियों को मार डाला है। मैं बुरा आदमी हूँ, मारने में मुझे अच्छा लगता है। अब मैंने नौकरी छोड़ दी। मेरी आयु 50 की है, बीमारी ने घेरा ओह कितनी यंत्रणा है, कैसी पीड़ा में यह शरीर छूटा, सोचा मनुष्य शरीर की अपेक्षा स्त्री होती तो अच्छा। इसी इच्छा के साथ मृत्यु होती है और मैं मर जाती हूँ। मृतक संस्कार को सारी बाते मुझे याद हैं फिर वही घना अन्धकार।

उतने प्राचीन रिकार्ड ढूंढ़ना कठिन था पर मेरी मेव ने इस समय जो बातें बताईं वह एक-एक कर सभी लुई अठारहवें के समय से मिलती-जुलती थीं। लोग सारा घटना चक्र चलचित्र की भाँति सुन रहे थे। यह कथन भारतीय मान्यताओं के कितने समीप है, यह देखकर अपने पूर्वजों के गहन अध्ययन, शोध और उपलब्धि पर आश्चर्य भी होता है, गर्व भी, पर इन्हें संसार तो क्या अपने देशवासियों ने ही किस तरह भुला दिया यह बात मन में आती है तो उससे भी अधिक दुःख और चिन्ता होती है कि यदि यह स्थिति ऐसी ही रही आने दी गई हम भारतीयों ने ही अपने आध्यात्म को सँवारा व सुधारा नहीं तो लोक-मंगल और विश्व के कल्याण का क्या होगा? हमारे ब्रह्म वचेस का क्या होगा जिसके द्वारा हम कभी संसार के शिरोमणि थे। मेरी मेव की घटना से क्या यह कथन प्रमाणित नहीं होते?

सनातन मेन माहुरताद्य स्यात पुनर्णावः। अहोरात्रे अजायेते अन्यो अन्यस्थ रुपयोः॥

स्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उस वा कुमारी। त्वं जीर्णो दण्डेन वंचसि त्वं जातो भवसि- विश्वतोमुखं॥ अथर्ववेद 10/8/23 से 27

अर्थात्- जीव जिसके भीतर स्वयं परमात्मा समाया हुआ है। वही सत्य रूप में अत्यन्त प्रतापी और ऐश्वर्यवान है पर भ्रम में असत्य में पड़ने के कारण वही निम्न गामी योनियों में क्षुद्र जीव-सा परिलक्षित होता है। हे जीव! तू कभी स्त्री, कभी पुरुष, कभी कुमार, कभी कुमारी होता कभी वृद्ध होकर लाठी के सहारे चलता। इसीलिये तू जन्म लेने वाला सर्वतोमुखी है नहीं तो तू तो साक्षात् परमात्मा स्वरूप है।

कर्नल डिरोचाज ने मेरी मेव को पिछले दो और जन्मों का बोध इसी प्रकार कराया। लोग उनके इस प्रयोग से बहुत प्रभावित हुए। पर प्रयोग प्रयोग है, उपलब्धि है। प्रयोग की सार्थकता तब है, जब हम स्वयं भी आत्म-चेतना के उस सूक्ष्म प्रवाह को समझने का प्रयास करें परिष्कार और प्राप्त करने का साहस जो अविरल रूप से अनादि काल से बहता आ रहा है और अनंत काल तक जब तक कि हम ईश्वरी भूत नहीं हो जाते चलता ही रहेगा।

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