
आचार्य की वेश-भूषा भी आचार्यत्व की द्योतक हों
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विश्वविख्यात भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक कहोल साहब सदैव धोती-कुर्ता पहन कर ही महाविद्यालय जाया करते थे। उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था। अतः उनके वेश पर किसी को उंगली उठने का साहस नहीं होता था। आखिर विद्यार्थी कब मानने वाले थे। एक दिन गपशप में पूछ ही लिया - ‘प्रोफेसर साहब! आप कभी पेन्ट नहीं पहनते क्या?’ सदा धोती ही प्रयोग करते हैं। अथवा यदा कदा किसी अवसर पर पैंट भी धारण कर लेते हैं।
‘मुझे किसी भी वेश से घृणा नहीं। पर जब मैं आचार्य के रूप में आप लोगों को पढ़ाने आता हूँ तब ढीले-ढीले वस्त्र पहन कर आना ही मुझे रुचिकर लगता है। प्राचीन काल में भी आचार्य चाहे वह किसी भी देश के रहे हों ढीले वस्त्र पहन कर ही आते थे। फिर भारतवर्ष की तो अपनी परम्परा ही यह रही है कि आचार्य की वेश-भूषा भी आचार्यत्व की द्योतक हों।
आचार्य अरस्तू और सुकरात के चित्र आपने देखे होंगे। वे सदैव ढीली पोशाक पहनना पसन्द करते थे। हाँ जब कभी मुझे कोई शारीरिक श्रम का कार्य जैसे सफाई करने या कपड़े धोने की आवश्यकता पड़ती है तब मैं पैंट भी पहन लेता हूँ।’