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Magazine - Year 1972 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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परिजनों ने गुरुदेव को जैसा देखा पाया

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गुरुदेव के संपर्क में आने वाले न केवल उनका स्नेह, सद्भाव, मार्गदर्शन, आशीर्वाद और सहयोग ही प्राप्त करते रहे हैं वरन् आत्मशोधन और लोकमंगल के लिए अचूक प्रयत्न करने की प्रेरणा भी पाते रहे हैं। नीचे केवल गुरुदेव के अनुदानों की चर्चा है। शिष्यों ने प्रतिदान में समाज के लिये क्या दिया उसके वर्णन आगे कभी प्रस्तुत किये जायेंगे।

मार्गदर्शन ही नहीं अंशदान भी

साधना मार्ग पर मेरी रुचि 20 साल की उम्र में उत्पन्न हुई थी। आज 55 साल का हूँ। इन 35 वर्षों में सैकड़ों साधना ग्रन्थ पढ़े, और अनगिनत साधकों से मार्ग पूछे। जितना पूछता गया उतना ही परस्पर विरोधी बातें बताये जाने के कारण उलझता गया। बहुत तरह की साधनाएँ की पर न किसी में मन लगा और न सफलता मिली ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह सब कहीं जाल-जंजाल ही तो नहीं है।

तीन वर्ष पूर्व गुरुदेव से संपर्क बना। इसे दुर्भाग्य भी कहा जा सकता है और सौभाग्य भी। दुर्भाग्य इसलिए कि आरम्भ से ही ऐसे महापुरुष के संपर्क में आया होता तो इतना समय खराब क्यों होता। सौभाग्य इस माने से कि थोड़े दिन पहले ही सही पर रास्ता तो सही मिल गया। तीन वर्षों में जो प्रगति हुई है उससे मुझे अति सन्तोष है। तीन शरीर, पाँच कोष, षट्चक्र, तीन ग्रन्थियाँ, कुण्डलिनी और ब्रह्मरंध्र की वस्तुस्थिति ठीक तरह समझ ली है। तीन वर्षों में इतनी उपलब्धियाँ मिल गई हैं कि बाहरी जीवन की अपेक्षा भीतर भरा हुआ खजाना लाख गुना मूल्यवान दीखता है। वहाँ से मिलता है उसका प्रभाव बाहरी जीवन की समृद्धि पर प्रत्यक्ष दीखता है। सच्चा आत्मबल मिलने पर भौतिक प्रगति भी सामने उपस्थित रहती है। यह तथ्य मैं इन तीन वर्षों में हर रोज देखता रहा हूँ। सही राह मिल गई तो अब लक्ष्य तक पहुँचना भी असम्भव नहीं रहा।

प्रस्तुत सफलता का सारा श्रेय गुरुदेव के प्रत्यक्ष अनुदानों को है। उस मार्ग पर बढ़ने के लिए मात्र मार्गदर्शन, परामर्श काफी नहीं वरन् ऐसा शक्तिशाली अवलम्बन चाहिये जो अपनी कमाई में से कुछ अंशदान भी दे। इस मार्ग पर सफलता का यही रहस्य है। भाग्य से अन्तिम समय ही सही मैंने गुरुदेव की सहायता का लाभ प्राप्त कर ही लिया और धन्य हो गया-

-विद्यानन्द गिरि-नन्द प्रयाग

जो देखा उससे नेत्र धन्य हो गये

गायत्री तपोभूमि गया था-वहाँ कुछ शिक्षा प्राप्त की और लौट आया। इन दिनों मैंने जो देखा वह ऐसा है कि कभी भुलाया न जा सकेगा। जो देखा वह मेरे रोम-रोम में उतर गया है।

मैंने गुरुदेव को एक सच्चे मनुष्य के रूप में देखा। ऐसा मनुष्य जिसमें-आदर्श गृहस्थ, दार्शनिक, लेखक, वक्ता, शिक्षा सुधारक, देश भक्त, निर्मल चरित्र, निस्पृह त्यागी, सच्चा ऋषि और बालकों जैसे निर्मल हृदय का अद्भुत समन्वय हुआ है। यों देखा मैंने दुनिया में बहुत है पर ऐसा समग्र दर्शन कहीं अन्यत्र आज तक नहीं हो सका।

-सोचता हूँ-ऐसी स्थिति में संपर्क बनने के बाद मुझे आज प्रोफेसर ही नहीं कहना चाहिये।

-प्रो0 डाह्या भाई पटेल, खेतीवाड़ी आणन्द

तीन अलौकिकतायें-जो छिपा रखी गई

20 जून सन् 53 में गायत्री तपोभूमि का स्थापना उत्सव था। गुरुदेव ने 24 दिन केवल गंगाजल लेकर उस स्थापना की आत्म-शुद्धि के लिये उपवास किया था। उनका वजन 117 पौण्ड से घटकर 93 पौण्ड रह गया। 24 पौण्ड भार घट गया। तपोभूमि के वे इन दिनों तख्त पर पड़े रहते थे। किसी से कुछ कहना होता पास बुलाकर धीमी आवाज में या इशारों से कहते।

सौभाग्य से मुझे उनके पास रहने और उनके आवश्यक काम करते रहने का अवसर मिला। उन्हें अधिक निकटता से देखा-समझा, उनकी आध्यात्मिक गरिमा के सम्बन्ध में तो क्या कहा जाय पर शारीरिक तीन विशेषतायें विशेष रूप से अनुभव कीं। 1-शरीर में से गुलाब जैसी तीव्र सुगन्ध महकती थी, छूते ही झटका लगता था और रोमाँच हो आते थे। खुली आँख से किसी को देखें तो वह सकपका जाता था। इन तीनों विशेषताओं को छिपाने के लिए उन्होंने पूरा प्रबन्ध कर रखा था। भरी गर्मियों में पूरे शरीर को कम्बल से लपेटे रहते थे आँखों पर काला चश्मा चढ़ा रहता था। किसी को पैर नहीं छूने देने देते थे।

इससे पहले भी उनसे कई बार मिला था पर काला चश्मा, पूरा शरीर कम्बल से लपेटा तथा पैर आदि छूने की मनाही जैसे बन्धन नहीं थे। पूछने पर माता जी ने बताया कि जब कभी वे उग्र तपश्चर्या की स्थिति में होते हैं तब-दिव्य तत्वों की मात्रा अधिक बढ़ जाने से यह तीनों ही विशेषतायें उनके शरीर में अक्सर पैदा हो जाती हैं। इन दिनों भी यही स्थिति है। इसका पता वे किसी को चलने देना नहीं चाहते सो किसी से कहना मत। मैंने इस बात को आज पहली बार प्रकट किया है।

-राधाकान्त पाराशर रामनगर

लड़की को नेत्र ज्योति मिली

सन् 1953 की बात है मेरी लड़की की आँखों में अचानक ऐसा रोग उठा कि कुछ ही समय में वह बिल्कुल अन्धी हो गई। उसे लिये दूर-दूर तक आँखों में मशहूर डॉक्टर जहाँ भी सुने वहीं पहुँचा। कलकत्ता में ठहरे हुए विश्व विख्यात अंग्रेज नेत्र विशेषज्ञ के पास भी गया। पैसा और समय जितना खर्च करना अपने बस में था सब कर लिया। निराशा सामने थी। दिन-रात खून सूखता कि हे भगवान इस अन्धी लड़की का आगे क्या होगा।

मेरे मित्र मणि भाई पटील अक्सर मिला करते थे। वे गुरुदेव के बारे में बहुत जानते थे और बहुत बताते थे। मैंने उन तक अपनी पुकार पहुँचाने की ठानी। 100 रु0 कर्ज लिये और किराये का प्रबन्ध करके मथुरा चल दिया। अपनी बात को कही पर विश्वास न होता था कि मामूली गृहस्थ में कोई सिद्धि विशेषता हो सकती है।

आशीर्वाद लेकर आया और लड़की की आँखों में रोशनी लौटने लगी। धीरे-धीरे उसकी आँखें पूरी तरह ठीक हो गईं। उतना ही नहीं उसने पढ़ना चालू कर दिया अब वह एम0ए॰ कर चुकी और अध्यापिका है।

-ठाकुरदत्त कपलिस, इन्द्र नगर-जमशेदपुर

दो लड़कियाँ डॉक्टर बनीं

आचार्य जी को पहली बार मैंने बीना में देखा। पहली ही दृष्टि में ऐसा लगा। मानों वे मेरे लिये ही यहाँ आये हों। एक ओर सादगी, सरलता, आत्मीयता और बालकों जैसी निर्मलता, दूसरी और ज्ञान की गरिमा, साधना का पुञ्ज, क्रान्तिकारी प्रवृत्ति इन दोनों का समन्वय गंगा जमुना के संगम जैसा लगा। मैं श्रद्धा से नत हो गया। उन्होंने मुझे गायत्री साधना के मार्ग पर लगाया।

सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ के स्वरूप, उद्देश्य और फलितार्थ को देखकर दंग रह गया। उतनी महान प्रक्रिया का संचालन कोई अद्भुत व्यक्ति ही कर सकता है। आचार्य जी को निस्सन्देह अलौकिक कहा जा सकता है। उनके संपर्क में क्या आया? उसका भौतिक और आत्मिक विवरण इतना विस्तृत है कि ठीक से कुछ कहते न बन पड़ेगा। एक शब्द में इतना ही कह सकता हूँ कि जो पाया है उसे बचा लिया तो सब कुछ सार्थक हो जायगा।

घर के सब लोग मेरी देखा-देखी उसी मार्ग चले। पुत्र के बिना वह उदास रहती थी उसकी इच्छा पूरी हो गई। बीना में हायर सैकेण्डरी स्कूल है। लड़कियाँ आगे पढ़ना चाहती थी पर बाहर भेजना मुझ जैसे रेलवे कर्मचारी के लिए अर्थाभाव के कारण असम्भव है। श्रद्धा उपासना और गुरुदेव की कृपा का पूरा लाभ तो उनने उठाया। चि0 उर्मिला, चि0 शशि प्रथम श्रेणी मेरिट में पास हुई। छात्रवृत्ति मिली वे दोनों अब एम0बी0बी0एस॰ का कोर्स पूरा कर रही हैं जो सभी लोगों के लिए आश्चर्य का कारण बना हुआ है।

-गौरीशंकर श्रीवास्तव-बीना

बीस वर्ष की व्याधि से छुटकारा

मेरी पत्नी तारादेवी को विचित्र रोग था जो भी खाती थी उसकी तुरन्त उल्टी हो जाती। कुछ भी न पचता। जीवित कैसे थी यही आश्चर्य था। उसे लेकर गुरुदेव के पास गया उन्होंने पूरी बात सुनी और चाय देते हुये कहा-ले पीले। पत्नी ने कहा तुरन्त उल्टी हो जायगी। कैसे पिऊँ आपके समीप गन्दगी फैले यह अच्छा नहीं। आचार्य जी ने मुस्कराते हुये कहा-पियो उलटी नहीं होगी चाय पी ली और उल्टी नहीं हुई। साथ ही वह 20 वर्ष पुराना कष्ट भी उसी क्षण समाप्त हो गया गुरुदेव की यह कृपा हम लोग कभी भी नहीं भूल सकेंगे।

-चन्दूलाल त्रिवेदी, अहमदाबाद

प्रत्यक्ष मार्गदर्शन, प्रत्यक्ष प्रकाश

लम्बे समय से यों तो गुरुदेव मुझे राह बताते ही रहे हैं। पर उस दिन तो उन्होंने प्रत्यक्ष ही रास्ता बताया। यह जंगली प्रदेश है। गाँव से आ रहा था कि रास्ता भटक गया। बरसात की रात का भयंकर अन्धकार, साँप-बिच्छू या जंगली जानवर तथा खाई, खड्डों का भय। दिशा तक का पता नहीं चल रहा था कि पाँव किधर चल रहे हैं। रास्ता सुनसान- आदमी का नाम नहीं प्रकाश का कोई सहारा नहीं। इस स्थिति में बेतरह घबरा उठा।

इतने में क्या देखता हूँ कि प्रकाश हाथ में सँजोये कोई मनुष्य कुछ ही दूरी पर आगे चल रहा है। मैं उसके पीछे-पीछे चलता रहा। भय से उसका परिचय भी न पूछा जा सका। घर के समीप तक वह मार्गदर्शक आया और फिर वह प्रकाश भी लुप्त हो गया और मार्ग दर्शक भी। इसे गुरुदेव के सूक्ष्म शरीर के अतिरिक्त और क्या कहूँ।

-विश्वनाथ प्रसाद वैकुण्ठपुर-सरगुजा

मनुष्य शरीर में भगवान की झाँकी

गायत्री, तपोभूमि में गुरुदेव से भेंट करने देश के राजनैतिक, धार्मिक नेताओं का आगमन सदा ही बना रहता था। देश के मूर्धन्य लोगों में से प्रायः सभी से उनका सम्बन्ध था।

उन दिनों श्री विश्वनाथ दास उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे। तपोभूमि में पधारे। उन्होंने मथुरा के सम्भ्राँत नागरिकों की उपस्थिति में कहा-”मैं मथुरा भगवान के दर्शन करने आया था वह तो न हो सके पर आचार्य जी के रूप में भगवान की झाँकी पाई। उनने देश सेवा की चर्चा करते हुए कहा-जितना कार्य हम सबने मिलकर किया है उतना अकेले आचार्य जी ने किया है।”

यह भाव भरी और सारगर्भित अभिव्यक्ति देश के प्रमुख अखबारों में भी छपी लोग दंग रह गये कि जिन्हें सादा रहन-सहन के कारण हम सामान्य व्यक्ति समझते हैं। उनका व्यक्तित्व समझदार लोगों की दृष्टि में कितना बढ़ा-चढ़ा है।

-बलराम सिंह परिहार, मथुरा

पहरेदार गुरुदेव

सहस्र कुण्डी यज्ञ में मथुरा गया था, सम्मेलन तो और भी बड़े देखे हैं पर वहाँ तो हर बात अद्भुत थी। मानो मनुष्य लोक के व्यवहार की अपेक्षा सब कुछ दूसरे ही ढंग से चल रहा हो। अलौकिकता से मुग्ध मन लेकर घर वापिस आया। ताला खोलकर देखा तो सारा सामान कोठों से बाहर निकला पड़ा है। सँभाला तो सभी चीजें मौजूद थीं। कितनी चीजें भी थीं पर गया उसमें से कुछ भी नहीं था। भारी आश्चर्य की किसी ने जब इतना परिश्रम करके बाहर ही निकाला तो लिया कुछ क्यों नहीं?

जल्दी ही चोर का पता लग गया। उसने स्वयं ही लोगों को बताया कि घर का सामान ढो ले जाने की उसकी योजना थी। सामान आँगन में जमा कर लिया तो कोई देवता आया ओर बोला रामचन्द्र हमारे यज्ञ में है और तू पीछे उसकी चोरी कर रहा है। हम यहाँ मौजूद हैं। जल्दी भाग जा नहीं अभी अक्ल ठिकाने होती है। चोर उल्टे पाँवों भागा। पीछे वह हमारे सत्संग में आने लगा और गायत्री उपासक बन गया।

-रामचन्द्र गुप्ता पेंशनर सीसवाली कोटा

भयंकर दुर्घटना से बाल-बाल बचे

जिस बस से भाई हेमचन्द्र सौ0 विमला और चि0 पिंकी मथुरा से दिल्ली आ रहे थे उसी बस की भयंकर टक्कर पलवल के पास एक ट्रक से हो गई। टक्कर ऐसी वीभत्स थी कि लेखनी से नहीं उतारी जा सकती। दोनों के ड्राइवर तथा कितने ही व्यक्ति तत्काल मर गये। घायल तो सभी सवारियाँ भयंकर रूप से हुई। बस का चूरा हो गया। परन्तु ये तीनों ही सकुशल बचे रहे। उन्होंने अनुभव किया गुरुदेव उन्हें गोदी में उठाए बचा रहे हैं। ऐसे असम्भव को सम्भव में परिणत करने वाले अनेकों अनुभव हमारे परिवार को होते रहे हैं।

-शिवशंकर गुप्त बी0ए0एल0बी0 देहली

घातक कैन्सर से प्राण बचे

जाँच करने पर गर्भाशय का कैन्सर निकला। खून तो महीने भर से जा रहा था। पर इतनी बड़ी आशंका न थी। कैन्सर का अर्थ मृत्यु। दो छोटे बच्चे अनाथ हो जायेंगे। 130 मासिक की अस्पताल में नौकरी है। इलाज भी अच्छा नहीं हो सकता जीवित थी पर मौत ही चारों ओर घूम रही थी।

गुरुदेव आगरा जा रहे थे। गई तो दर्शनों को थी पर मन न माना जबरदस्ती उनकी मोटर में घुस गई और आगरा तक साथ रही। अपनी व्यथा सुनाई रक्त उस समय भी बुरी तरह जा रहा था। गुरुदेव ने एक ही शब्द कहा-’मरने न देंगे, इलाज करा ले।’

इन्दौर अस्पताल में भर्ती हुई वार्ड में सभी कैन्सर के रोगी थे। एक-एक करके सभी दुसह्य दुख सहते हुए मर गये। मैं अकेली ही जीवित रही और अच्छी होकर निकली। इलाज डॉक्टर करते रहे मैं हर समय गुरुदेव का ध्यान किये ही पड़ी रहती और यही कहती पिताजी अबकी बार बचा लो सचमुच उनने बचा ही लिया जब तब जीती रहूँगी उन्हीं का दिया जीवन मानूँगी।

-शारदा देवी दुबे, बड़नगर

आशीर्वाद से पुत्र प्राप्ति

गुरुदेव नागदा पधारे अन्य परिजनों की तरह हमारे घर भी आये। घर में दो ही प्राणी देखकर पूछा- “कोई बच्चा नहीं है” एक हुआ तो था मर गया। ढलती आयु में अब क्या आशा रही।

गुरुदेव कई बार मौज और मजाक के मूड में भी होते हैं। हँसते हुए कहा-अच्छा तो अगले वर्ष वही बच्चा वापिस आ जाएगा। यदि तेरे भाग्य में न भी होगा तो भी भगवान के घर में रात को घुसकर एक बच्चा तेरे लिये जरूर चुरा लाऊँगा।

अगले वर्ष बच्चा घर में आ गया जैसा गया था ठीक उसी शक्ल सूरत का। गुरुदेव चुरा कर लाये, माँगकर लाये या अपने पास से दे गये यह रहस्य तो वे ही जानें।

-नागूलाल शर्मा, नागदा

पेड़ के सहारे बेल भी ऊँची बढ़ी

ऊँचे पेड़ के सहारे जमीन पर पड़ी बेल कहाँ से कहाँ चढ़ जाती है यह सभी ने देखा है। मैंने यह देखा है कि महामानवों के सहारे सामान्य मनुष्य किस तरह आगे बढ़ सकता है।

इन दिनों शारीरिक मानसिक और आर्थिक आपत्तियों से इतना ग्रस्त था कि कभी-कभी आत्महत्या कर लेने को जी करता। एकमात्र अवलम्ब हेतु चाचाजी के दिवंगत होते ही उनकी सम्पत्ति प्राप्ति हेतु पारिवारिक कलह, अपनी तथा पत्नी की रुग्णता, अध्ययन के खर्चे का न जुट पाना आदि के कितने ही कारण थे जिनने सारा सन्तुलन बिगाड़ रखा था। कानून की कक्षाओं में उपस्थित न रह सका अर्थाभाव के कारण पुस्तकें न खरीद सका। होटल वाले का दो महीने का पैसा बकाया परीक्षाओं के 20 दिन शेष परीक्षा के लिये 25-30 पुस्तकों का कम से कम उलटना तो आवश्यक था। इन परिस्थितियों ने किंकर्त्तव्यविमूढ़ कर रखा था।

उन्हीं दिनों देवयोग से गुरुदेव के साथ संपर्क बना। अपनी करुण कथा उन्हें लिखी। स्नेह और प्रोत्साहन भरा उत्तर मिला। कहा “हिम्मत न हारो, सहायता करेंगे।” आँखों में आशा की ज्योति चमकी। गुरुदेव के बारे में जितना अधिक जाना उतना ही उनके आश्वासन पर विश्वास बढ़ता गया।

अप्रत्याशित रूप से एक कृपालु स्नेही का 188) का मनीऑर्डर आ गया। पुस्तकें खरीदी, होटल का बिल चुकाया साथ ही बताई हुई विधि से गायत्री मन्त्र की उपासना

भी करने लगा। दो सप्ताह की तैयारी जादू जैसी सिद्ध हुई। 80 प्रतिशत नम्बरों से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ।

वकालत आरम्भ की साथ ही लोकसेवा की भावना भी उमड़ी। लोगों ने नगरपालिका की अध्यक्षता का चुनाव लड़ने को उकसाया कहाँ मैं नौसिखिया वकील कहाँ धन और प्रभाव से सम्पन्न प्रतियोगी दिग्गज। सफलता कैसे मिलेगी। इसका निर्णय भी गुरुदेव पर छोड़ा। स्थिति लिखी। जब उनका चुनाव लड़ने का आदेश और सफलता का आश्वासन आ गया तो मैंने नामाँकन पत्र भर दिया। मेरी सफलता को सभी ने आश्चर्य माना। 11 वर्षों तक नगरपालिका का अध्यक्ष निर्वाचित होता रहा।

विरोधी ईर्ष्यालुओं ने मुझे एक मुकदमे में उलझा दिया। गुरुदेव ने राजीनामे का इशारा किया। दोनों ही पक्षों में काफी जोश था। राजीनामे की कोई सूरत न थी फिर भी अनायास प्रतिपक्ष की ओर से राजीनामे का प्रस्ताव आया मैंने स्वीकार कर लिया और गुरुदेव का आदेश अनायास ही पूरा हो गया।

पत्नी का जटिल ऑपरेशन, मेरी स्वयं की हृदय और मस्तिष्क संबंधी बीमारी, लड़के का परीक्षा संबंधी अवरोध और भी न जाने कितने संकट आये और गुरुदेव की कृपा से हल हुये हैं। वकालत के आरम्भ में 25) मासिक की भी आमदनी न होती थी, पीछे वह ऐसी चमकी कि आजकल मेरे पास 4 बँगले, मोटर, लम्बी-चौड़ी कृषि तथा और भी बहुत कुछ है जिसे मैंने अपने श्रम से नहीं गुरुदेव की आशीर्वाद से अर्जित किया है। उनके चले जाने पर सारी दुनिया सुनी लगती है। मानो आज मेरा कुछ रहा ही नहीं।

-विष्णुदत्त गुप्त एडवोकेट, वैकुण्ठपुर सरगुजा

विपत्ति से छूटा मजिस्ट्रेट बना

कितने ही व्यक्ति ज्ञान और आत्म-कल्याण का उद्देश्य लेकर भी गुरुदेव के संपर्क में आते हैं पर मैंने तो मुसीबत में उनका पल्ला पकड़ा और उन्होंने गोदी में ही उठा लिया।

आई0ए0एस॰ का छात्र था। कुछ ऐसा मानसिक आघात लगा कि विक्षिप्त सा हो गया। एक पर्चा देकर ही परीक्षा से उठ आया। उम्मीद जाती रही। दिमाग में हर समय अशान्ति, उद्विग्नता, विकलता, निराशा और आत्महत्या की इच्छा उठती रहती। स्वास्थ्य बुरी तरह गिरने लगा सूखकर काँटा हो गया। हाथ देखकर एक ज्योतिषी ने कह दिया-जीवन रेखा कटी हुई है जो उठती उम्र में ही मौत हो जायेगी। चारों तरफ मौत ही दिखती।

श्री रामनन्दन प्रसाद सिंह ने गुरुदेव का परिचय कराया उन्हें पत्र लिखा। उत्तर बहुत ही सान्त्वना भरा हुआ और जल्दी ही ठीक होने का पक्का आश्वासन था। पत्र पाते ही स्थिति सुधरनी शुरू हुई और भला-चंगा होकर अपने कार्य में लग गया।

पत्र-व्यवहार चलता रहा। पढ़ाई करता रहा। बी0ए॰ ऑनर्स बी0टी0 सफलता पूर्वक पास की। अध्यापकों और परीक्षकों को सराहा, नौकरी के आरम्भ में 60 रुपये मासिक पाने वाला प्राइवेट स्कूल का मास्टर था। गुरुदेव का अनुग्रह ही है कि अब 650 रुपये पाने वाला मजिस्ट्रेट हूँ।

सन् 54 का वह दिन भूलता नहीं जब प्रातः पूजा में बैठा था। अचानक एक अति विचित्र अद्भुत अलौकिक अनुभूति हुई। मेरा रोम-रोम प्रकाश से भर गया। लगा गुरुदेव प्रकाश बनकर मेरे रोम-रोम में प्रवेश कर गये हैं। फूट-फूट कर रोया। हर्ष और आवेश में आँसू घण्टों झरते रहे। जीवन को नवीन दिशा देने वाला इसे मैं शक्तिपात ही मानता हूँ। तब से मेरी श्रद्धा निरन्तर बढ़ती ही गई है।

मेरी अलौकिक अनुभूतियाँ

गुरुदेव से मैंने संपर्क ही नहीं बनाया वरन् गहराई तक गया। उन्हें अपना-मार्गदर्शक ही बना लिया।

मथुरा गया तो मेरे सिर पर हाथ रखकर आज्ञा चक्र जगा दिया। ऐसा दिव्य प्रकाश भीतर अनुभव होता कि उसे आंखें बन्द करके देखते ही रहा जाय। आनन्द इतना आता कि वर्णन नहीं हो सकता। यह स्थिति बहुत दिन रही, गुरुदेव का स्पर्श मेरे रोम-रोम को झनझना देते रहे। स्वप्न में और अर्धजागृत अवस्था में उनके दर्शन प्रायः मुझे होते रहते हैं। सोते में देर हो जाय तो हाथ पकड़ कर बैठा देते हैं।

एक बार पैसे की तंगी से उदास था आश्वासन मिला कुछ अच्छा प्रबन्ध कर देंगे। तब की अपेक्षा अब चार गुनी तनख्वाह मिलती है और वह संकट टल गया।

एक बार बिना सूचना के अकस्मात मथुरा पहुँचा रात के 10:30 बजे थे। गुरुदेव आठ बजे सो जाते हैं। पर घीयामंडी पहुँचकर देखा वे 10:30 बजे दरवाजे पर खड़े हैं। जाते ही बोले तुम्हारे इन्तजार में हम लोग अभी सोये नहीं। चलो थाली पर सी रखी है रोटी खा लो और चारपाई बिछी है उस पर सो जाओ। चुपचाप घर गया। भोजन किया और सो गया अभी भी यह एक रहस्य ही है कि मेरी बिना सूचना के उन्होंने मेरे पहुँचने का समय कैसे जाना और भोजन विश्राम का पूर्व प्रबन्ध करके कैसे रखा।

- कन्हैयालाल मिश्र, जोधपुर

दिव्य अनुभूतियों की शृंखला

विगत 30 वर्षों से हमारा परिवार गुरुदेव के संपर्क में है, उनकी प्रेरणा से इस परिवार के प्रत्येक सदस्य में ब्राह्मण वृत्तियों का बाहुल्य है। कुमार्ग पर चलने की हिम्मत करना तो दूर कोई उस संबंध में सोचता भी नहीं है। इस जमाने में ऐसे परिवार कहाँ दीखते हैं। यह उनके आशीर्वाद की सबसे बड़ी अनुभूति है।

इसके अतिरिक्त छोटे-मोटे लाभ तो हम उनके अनुग्रह के पग-पग पर उठाते हैं। छोटी लड़की चि0 कृष्णा के लिए अच्छा घर वर ढूँढ़ने में बहुत दौड़ धूप कर रहे थे किन्तु ऐसा आश्चर्य हुआ कि एक अच्छी स्थिति के सज्जन ने रिश्ता बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया और दान-दहेज का कोई प्रश्न सामने नहीं आया।

ग्यारह वर्ष पूर्व चि0 कृष्णा का बड़ा लड़का ऐसा बीमार हुआ कि उसके बचने की आशा ही नहीं रही। पुतलियाँ एक महीने तक ऊपर चढ़ी रहीं, शरीर में ऐंठन बेहोशी, मोतीझरा, आदि न जाने कितनी ही बीमारियाँ इकट्ठी होकर आईं। तब भी गुरुदेव की सहायता माँगी और वह बच्चा बचा।

बड़ी लड़की को विवाह से 15 वर्ष तक कोई सन्तान न हुई तो उसने अपनी इच्छा गुरुदेव तक पहुँचाई। आशीर्वाद आने के ठीक एक वर्ष बाद लड़का हुआ।

सबसे छोटा लड़का जब उनकी गोद में दिया तो बोले इसे डॉक्टर बनायेंगे और मिलिट्री में देश सेवा के लिये भेजेंगे। आश्चर्य कि वह एम0बी0बी0एस॰ बन गया और सेना के अस्पताल में महत्वपूर्ण देश सेवा कर रहा है।

हम लोग गुरुदेव को घर में लगा हुआ कल्प-वृक्ष मानते हैं और जब चाहते हैं उससे फल-फूल तोड़ लेते हैं।

-कन्हैयालाल मिश्र वैद्य, चन्द्रभागा, इन्दौर

पूर्व आभास की दिव्य-शक्ति

अक्टूबर 70 के शिविर में पत्नी और बच्चों समेत गया। प्रवचन प्रशिक्षण के अतिरिक्त निजी बातें भी हुई। मैंने स्थानीय वकील तथा संस्था के प्रमुख श्री उमाकान्त झा से चर्चा की। गुरुदेव ने खिन्न होकर कहा-आज तो उनका समय समाप्त हो रहा है।

मैं उस समय उसका अर्थ कुछ भी न समझ सका। क्योंकि ‘झा’ को ठीक स्थिति में छोड़कर आया था। घर आने पर मालूम पड़ा कि जिस दिन जिस तारीख को गुरुदेव ने कहा था ठीक उसी दिन उनका स्वर्गवास हो गया। अदृश्य को देखने की कैसी अद्भुत शक्ति थी गुरुदेव में।

-रामकृष्ण सिंह एडवोकेट, बेतिया

पर्वत जैसी कठिनाई राई बनी

अनेक समस्याओं से घिरा हुआ पत्नी समेत जून 64 के शिविर में गुरुदेव की शरण में आया था। उनने पर्वत जैसी समस्याएं राई बना दीं। मेरी हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी चली गई। पत्नी का असाध्य हृदय रोग जिससे डॉक्टर हार मान चुके थे ठीक हुआ। छोटा लड़का डॉक्टर बन गया। लड़की की शादी बहुत अच्छे परिवार में हो गई। सरकार के साथ झमेले में पड़ा हुआ सात हजार रुपया मिल गया। मकान के केस का अपने पक्ष में फैसला हुआ। इस प्रकार से मुझे प्राप्त हुए कितने ही लाभ हैं। मेरी ही तरह कितनों ने ही गुरुदेव की कृपा से बहुत कुछ पाया है। आध्यात्मिक प्रगति का लाभ तो साथ-साथ है ही।

-इन्द्रराज व्यास, नागौर, राजस्थान

कहाँ से कहाँ आ पहुँचा

पिताजी जसीडीह (बिहार) में एक छोटे मन्दिर के पुजारी थी। मुश्किल से गुजर होती थी। वे भी चल बसे मैं बालक था। कुछ दिन उसी मन्दिर में काम करता हुआ दिन काटता रहा। इसी बीच गायत्री साहित्य पढ़ा और गुरुदेव के साथ बँध गया।

अध्ययन की इच्छा जगी और वह पूरी हुई। प्राइवेट ही पढ़ता-पढ़ाता बी0ए॰ तक पहुँचा। बिड़ला कम्पनी में 150 रुपये की नौकरी कर ली। तरक्की भी हुई और शादी भी हो गई। बिड़ला कम्पनी से कुछ झंझट हुआ तो एल्युमिनियम खदान में एक लीज होल्डर की ‘सब लेशी’ ले ली। माइन्स होल्डर बन गया। अब अपने पास 60 आदमियों का साथ है। अब जो स्थिति और इज्जत है उसे अनहोनी घटना ही कहना चाहिए।

कहाँ से कहाँ पहुँचने की लम्बी मंजिल से गुरुदेव का सहारा पग-पग पर लिया है। वे ही रास्ता बताते और रास्ता खोजने के दोनों काम करते रहे थे।

अभी-अभी 500 टन का एक नया आर्डर। रेलवे द्वारा किये गये 8000 रुपये जुर्माने की माफी जैसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनके कारण प्रगति के इतने साधन जुट सके।

गुरुदेव का हूँ। उन्हीं के रास्ते पर चलता हूँ जब तक जीवित हूँ-उन्हीं के इशारे पर चलता रहूँगा।

-भगवती प्रसाद मिश्र, लोहरदगा (राँची)

पत्र और उत्तर एक ही समय लिखे गये।

सन् 63 में पत्नी को सन्निपात ज्वर हुआ। तापमान 107 से नीचे ही न उतरता था। स्थिति बिगड़ती ही जा रही थी। डॉक्टर लाचारी प्रकट कर देते थे। छोटे चार बच्चे, पत्नी को कुछ हुआ तो इनका पालन कैसे होगा।

व्याकुलता सीमा के बाहर बढ़ गई तो गुरुदेव को पत्र लिखा, उत्तर तीसरे दिन आ गया तो प्रसन्नता के अतिरिक्त आश्चर्य भी कम नहीं हुआ। ता0 18 मार्च का मैंने पत्र लिखा था। उत्तर के लिफाफे पर भी 18 मार्च की मुहर थी। पत्र पहुँचने में 3 दिन लगते हैं। उसी दिन तो तार भी नहीं पहुँचता। सवेरे की डाक में मैंने पत्र डाला था। सवेरे 10 बजे की ही मुहर मथुरा डाकखाने की थी। जिस समय मैं पत्र लिखूँ ठीक उसकी समय उत्तर भी लिख जाय। यह कैसी अद्भुत बात? पत्नी अच्छी हो गई उसे लेकर छः महीने बाद मथुरा गया। पत्र वाला रहस्य पूछा। तो मुस्करा दिये। यही कहा तुम्हारी परेशानी को देखते हुए जल्दी पत्र पहुँचाया था।

-उमाशरण निचल, शिलाँग (आसाम)

सहायता नीति के दो अन्य कारण

अपना तप बल खर्च करके लोगों की भौतिक सहायता करते रहने की उपयोगिता के संबंध में एक दिन पूछा तो गुरुदेव ने कहा-इसके दो कारण हैं-एक तो समर्थ व्यक्ति दूसरों की सहायता करे इसमें कुछ भी अनुचित नहीं। दूसरे आजकल अध्यात्म का केवल ज्ञान पक्ष ही सजीव दिखता है धर्मोपदेश ही चलता रहता है। विज्ञान भाग लुप्त हो चला। अध्यात्म की सहायता से आत्मिक उन्नति के साथ भौतिक प्रगति भी हो सकती है। इस तथ्य की प्रामाणिकता इन दिनों नहीं मिलती। यह तथ्य स्पष्ट हो जाय तो लोक रुचि इस ओर मुड़ेगी और लोग गम्भीरतापूर्वक इस मार्ग को अपना लेंगे। लोगों की सहायता करते रहने से इस विश्वास को परिपक्व करना भी एक बड़ा कारण है।

-गिरिराज किशोर पाराशर, मिर्जापुर

आपत्तियाँ इस तरह टलीं

कई वर्ष पूर्व पेट ऐसा खराब हुआ कि एक पाव दूध तक हजम होना कठिन हो गया पेट पत्थर जैसा-वैद्य, डॉक्टरों ने भयंकर मर्ज बताया जीवन की आशा न रही तब गुरुदेव को पुकारा और बिना दवा के अच्छा हुआ। सन् 51 में ऐसा दर्द उठा कि पेट में सिर देकर बैठ गया। उठना तक सम्भव न रहा। तभी उन्हीं के सहारे बचा।

मेरा चौथा लड़का चि0 पदमसिंह बीमार पड़ा टी0बी0 अस्पताल में भर्ती हुआ तीन दिन लगातार मुँह से खून की उल्टी होती रही। उसे भी गुरुदेव ने बचाया तीन महीने में अस्पताल से छुट्टी मिल गई जबकि मरीजों को एक वर्ष भर्ती रहना पड़ता है।

मेरे भतीजे पर कत्ल केस चला तथा निर्दोष भाई साहब को भी उसमें फँसा दिया। जमानत न होती थी प्रतिपक्षी पुलिस वाले थे उनकी हिमायत सिफारिश भी बड़ी थी। गुरुदेव के सामने वस्तु स्थिति बताई तो उनकी कृपा से केस छूट गया। सब लोग बरी हो गये।

सन् 65 में पाकिस्तानी जहाजों ने जोधपुर में भारी बम वर्षा की। हम घबराये। गुरुदेव का पत्र आया-युग निर्माण परिवार के हर व्यक्ति से जाकर कह आना वे पूर्ण निश्चिन्त रहें। कितनी ही बमबारी क्यों न हों अपने लोगों में से किसी का कुछ न बिगड़ेगा। 200 बम गिरे पर परिवार के किसी भी व्यक्ति का बाल-बाँका न हुआ न कुछ आर्थिक क्षति हुई।

सन् 56 में शतकुण्डी यज्ञ में मथुरा गया। छः हजार व्यक्ति आसाम मद्रास तक से आये थे। गुरुदेव इतने व्यस्त थे कि आगन्तुकों को देख भर लेते थे कुशलता पूछ न पाते थे। मैंने बहुत लोगों से पूछा आप इतनी दूर से इतना खर्च करके आये हैं-यहाँ तो आप गुरुजी से बात भी नहीं कर पाते आने का क्या लाभ हुआ? कितनों ने एक ही उत्तर दिया। लाभ तो कभी का उठा चुके अब दर्शन भर करना शेष था सो उसी कमी को पूरा करने आये हैं।

-मानसिंह टाँक, जोधपुर

स्पर्श का अद्भुत अनुभव

मथुरा से बहुत दूर इस वन्य प्रदेश में पड़ा हुआ यह स्वप्न मुद्दतों से देख रहा था कि किसी प्रकार कम से कम एक बार गुरुदेव के दर्शन अवश्य करूंगा, पर इच्छा पूरी होने का सुयोग ही नहीं बन रहा था। शरीर की रुग्णता ने बेतरह जकड़ रखा था। पैसे की तंगी। और भी न जाने क्या-क्या अवरोध थे, पर एक दिन अजीब तरह की बेचैनी उठी तो मैं पत्नी और बच्चा सहित मथुरा चल ही पड़ा।

मथुरा पहुँचते-पहुँचते मुद्दतों से पल्ले बँधी हुई बीमारी अपने आप मुझे छोड़कर चली गयी। शिविर का क्रम चला। नौ दिन की साधना की। कितनी ही शंकायें और समस्यायें लेकर गया था कागज पर नोट थी। दैनिक प्रवचनों में मेरी ही शंकाओं के उत्तर होते थे। पूरा शिविर होने तक मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर मिल गया। लगता मानो मेरा ही समाधान करने के लिये प्रवचन होते हों। कई बार मैंने ऐसा देखा कि उनका पार्थिव शरीर लुप्त हो गया और उसके स्थान पर कोई तेज पुञ्ज देवता विराजमान हैं। हो सकता है यह मेरा भावावेश हो पर एक नहीं अनेक बार ऐसी अनुभूति मैंने पाई।

शिविर से विदा होने लगा तथा चरण स्पर्श किये तो उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रख दिया- हाथ रखना था कि नख से शिर तक एक बिजली जैसा झटका लगा। मैं काँप गया। उस झटके ने मेरे भीतर कितना परिवर्तन कर दिया और कितना अद्भुत बल दिया इसे मैं इतने दिन बाद भी हर घड़ी अनुभव करता हूँ।

-जगदीश प्रसाद मिश्र, नागपुर सरगुजा

सम्मानित उच्च पद तक पहुँचा

पिताजी के स्वर्गवास के बाद कठिनाइयों का आसमान मेरे ऊपर टूट पड़ा। पढ़ने की इच्छा होते हुए भी परिस्थितियों ने अध्ययन छोड़ने को मजबूर कर दिया। अध्यापक की नौकरी मिली 59) मासिक।

ऐसे कैसे काम चलेगा शिक्षा आगे न बढ़ी तो गुजारा कैसे होगा गृहस्थ कैसे चलेगा। यही चिन्ता खाए जा रही थी। इतने में गुरुदेव धर्मपिता के रूप में मिल गये और वे मुझे कहीं से कहीं घसीट ले गये। बी0ए॰ किया एम0ए॰ किया एल0एल0बी0 किया और अब आडीटर के सम्मानित पद पर हूँ। पहली सन्तान लड़का था। वह चल बसा पत्नी बहुत दुखी रहने लगी। गुरुदेव ने सान्त्वना दी और वही बालक उसी रूप में उसकी गोदी में आ गया। ऐसे भौतिक अनुभव अनेक हैं पिता अपने बच्चे को क्या नहीं देता। मुझे अब तक निरन्तर गुरुदेव से मिला है। जीवन की लक्ष्य पूर्ति का वरदान भी उनसे प्राप्त करके रहूँगा।