
श्रद्धा-सुमन (Kavita)
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धन्य-धन्य आदर्श तुम्हारा, आत्मा का शृंगार किया।
आत्म-शुद्धि के महा यज्ञ में, तन-मन जीवन वार दिया॥
दिव्य “अखण्ड-ज्योति दी तुमने, घर-घर फैला उजियारा।
“युग-निर्माण” लक्ष्य जीवन का, सत्संकल्प तुम्हें प्यारा॥
परम शान्ति, संतोष कोष से, तुमने मानव मन जीता।
तम बल के रावण से छीनी, परम पुनीता सत सीता॥
श्रीराम ने श्रीराम का, मृदु सपना साकार किया।
धर्म-कर्म के महा यज्ञ में, अपना सब कुछ वार दिया॥1॥
जीवित साँसों के मन्त्रों का, तुमने जादू दिखलाया।
सूने मन-मंदिर में सहसा, सुख का सागर लहराया॥
जन गण मन के नव जीवन तुम, जन-जन की जीवित भाषा।
धर्म-प्राण तुम तपोनिष्ठ तुम, जीवन दर्शन परिभाषा॥
योग साधना के उन्नायक, वेद पुराणों के ज्ञाता।
सदाचार समता के पोषक, राष्ट्र धर्म के निर्माता॥
भूली भटकी मानवता को, सविता का आधार दिया।
यज्ञ-ज्योति घर-घर फैलाई, मानव का उपकार किया॥2॥
आँधी पानी तूफानों से, लड़ना तुमने सिखलाया।
पशुता के आँगन में तुमने, महा यज्ञ ध्वज फहराया॥
ऐसी कठिन साधना तुमने, अपने जीवन में साधी।
असुरों की दुर्धर्ष शाहियाँ, अपनी मुट्ठी में बाँधी॥
प्राण प्रतिष्ठा, जीवन निष्ठा, सीखी सत पथ राही से।
लिखा दिव्य जीवन पृष्ठों को, सदाचार की स्याही से॥
तुमने गीता कर्म योग को, जीवन में साकार किया।
अपने प्राणों की ऊष्मा से, नव जीवन संचार किया॥3॥
धुआँ उगलता आसमान है, घुटन भरी है साँसों में।
जीवन की बीहड़ घाटी में, आग लगी विश्वासों में॥
तुम्हें साधना, हमें यातना, कैसा खेल विधाता का।
किस दर्पण में कहाँ निहारें, प्रियदर्शी मुख, त्राता का॥
मन अधीर कुण्ठित है वाणी, याद तुम्हारी कलपाती।
लेते नाम विदा का गुरुवर, जन-जन की फटती छाती॥
जीवन यज्ञ अभी है बाकी, असमय में मुँह मोड़ चले।
आकर प्राण कंठ में अटके, राम अयोध्या छोड़ चले॥
-बाबूलाल जैन ‘जलज’
*समाप्त*