
प्रेम का प्रयोग केवल उच्चस्तर पर
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जिसे हम अपना समझते हैं उससे प्यार होता है। अपना आपा जिसमें न घुलाया जाय उससे प्यार हो ही नहीं सकता। दूसरे लोगों की अपेक्षा अपने भाई से प्रेम अधिक होता है क्योंकि वह अपना सहोदर है। भाई से भी अधिक प्यारा पुत्र होता है क्योंकि वह अपने ही अंश से पैदा हुआ है। पुत्र से भी अधिक स्त्री प्रिय होती है क्योंकि वह अर्धांगिनी है। अपनेपन का यह दायरा जितना सघन होता चला जायगा उसी अनुपात से यह संसार और उसके निवासी अपने लगने लगेंगे। कहना न होगा कि यह आत्मीयता ही आनन्द की निर्झरणी है। हमें निरन्तर इस आनन्द की अनुभूति करनी हो तो अपने को प्रेम योग ही आराधना में लगाना चाहिए।
प्रेम निर्मल और निर्लोभ होना चाहिए तभी उसका समुचित आनन्द मिल सकता है। लोभ की कीचड़ में सने हुए प्रेम का नाम तो मोह है। मोह में व्यक्ति पराधीन हो जाता है। यदि प्रेम पात्र ने अनुकूलता दिखाई तो सुख, यदि वह प्रतिकूल हो गया या उपेक्षा बरतने लगा तो दुःख, जिस प्रक्रिया से पराधीन होना पड़ता हो वह अध्यात्म नहीं हो सकता। प्रेम विशुद्ध अध्यात्म की उपलब्धि है, उसमें प्रेमी सर्वथा स्वाधीन रहता है। वह किसी की अपेक्षा नहीं करता। प्रिय पात्र की भी नहीं इसलिए वह शाश्वत कहा गया, लोभ युक्त मोह जहाँ होगा वहाँ साथी का दबाव अनुभव करना पड़ेगा। उसकी मर्जी पर चलना पड़ेगा यदि वह अनुचित होगी तो भी संकोचवश उसे मानने की विवशता रहेगी। किन्तु यदि वह निर्मल है, उच्च आदर्श और उद्देश्य के निमित्त किया गया है तो उसमें प्रेम को अक्षुब्ध बनाये रहने पर भी साथी की बात मानने से इनकार करने की भी गुंजाइश रहेगी। प्रेम का अर्थ अवाँछनीयता के आगे सिर झुका देना नहीं वरन् यह है कि प्रिय पात्र की अनुपयुक्त गतिविधियों को सुधारा जाय, न बन पड़े तो भी स्वयं उसमें सहमत सम्मिलित न होने की तो छूट रहनी ही चाहिए। प्रेम व्यवहार नर-नारी, बाल-वृद्ध, सबके बीच निर्बाध रूप से चलता रह सकता है पर उसमें मर्यादाओं का ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसा न हो कि घनिष्ठता की छूट में फिसलन पैदा करने वाली परिस्थितियाँ बनने लगें। यदि ऐसा हुआ तब तो प्रेम का मूल स्वरूप और प्रयोजन ही नष्ट हो जायेगा।