
बिना आँखों के भी देखा जा सकता है।
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भारतीय अध्यात्म वेत्ता चिरकाल से यह तथ्य प्रमाणित करते रहे हैं कि मानव शरीर में देखने की क्षमता का प्रयोजन केवल आँखें ही पूरा नहीं करती, वरन् दूसरे अवयव भी ऐसे हैं जो देखने का उद्देश्य पूरा करते हैं।
भ्रूमध्य भाग में भीतर एक ग्रन्थि होती है जिसे आज्ञाचक्र या तृतीय नेत्र कहा जाता है। शिव और पार्वती के चित्रों में उनका एक पौराणिक तीसरा नेत्र भी दिखाया जाता है। कथा के अनुसार शंकर भगवान ने इसी नेत्र को खोलकर उसमें से निकलने वाली अग्नि से कामदेव को भस्म किया था। यह दिव्य दृष्टि का केन्द्र है। इससे टेलीविजन जैसा कार्य लिया जा सकता है। दूर-दर्शन का दिव्य यन्त्र यहीं लगा हुआ है। महाभारत के सारे दृश्य संजय ने इसी के माध्यम से देखे और धृतराष्ट्र को सुनाये। चित्रलेखा द्वारा प्रद्युम्न प्रणय इस दिव्य दर्शन का ही परिणाम था।
यह तीसरा नेत्र अति प्रभावशाली है इससे दूरदर्शन ही नहीं; अदृश्य और अप्रत्यक्ष भी देखा जा सकता है। एक्सरे किरणें जिस तरह ठोस पदार्थों में होकर भी पार चली जाती हैं और आँखों से न दीख पड़ने वाली वस्तुओं के भी चित्र खींचती हैं, उसी प्रकार यह आज्ञाचक्र का कैमरा अदृश्य को देख सकता है। इसके माध्यम से न केवल पदार्थों को देखने का प्रयोजन पूरा होता है वरन् जीवित प्राणियों की मनःस्थिति को समझना भी सम्भव होता है। देखने समझने से ही बात पूरी नहीं होती आज्ञाचक्र की क्षमता इससे भी आगे है वह दूसरों को प्रभावित परिवर्तित भी कर सकती है। मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म में इसी दिव्य क्षमता को स्थूल नेत्रों के माध्यम से प्रयोग किया जाता है।
सूक्ष्म और कारण शरीर की दिव्य दृष्टि की मर्यादा और क्षमता बहुत बढ़ी-चढ़ी है। उसे समझने, विकसित करने और प्रयोग करने की क्षमता योगाभ्यास से उपलब्ध होती है। पर स्थूल शरीर में भी यह शक्ति बहुत व्यापक है। आँखों से ही सब कुछ नहीं देखा जाता उसके अतिरिक्त अंगों में भी देखने समझने की क्षमता मौजूद है। मस्तिष्क, नेत्र गोलकों का फोटोग्राफी कैमरे जैसा प्रयोग करता है और पदार्थों के जो चित्र आँखों की पुतलियों के लैंस से खींचता है वे मस्तिष्क में जमा होते हैं। इनकी प्रतिक्रिया के आधार पर मस्तिष्क के ज्ञान तन्तु जो निष्कर्ष निकालते हैं उसी का नाम ‘दर्शन’ है। आँख इसके लिए सबसे उपयुक्त माध्यम है। मस्तिष्क के रूप दर्शन केन्द्र के साथ नेत्र गोलकों के ज्ञान तन्तुओं का सीधा और समीपवर्ती संबंध है इसलिए आमतौर से हम नेत्रों से ही देखने का काम लेते हैं और मस्तिष्क उन्हीं के आधार पर अपनी निरीक्षण क्रिया को गतिशील देखता है।
पर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि दृष्टि शक्ति केवल नेत्रों तक ही सीमित है। अन्य अंगों के मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए ज्ञान तन्तुओं को विकसित करके भी मस्तिष्क बहुत हद तक उस प्रयोजन की पूर्ति कर सकता है। समस्त विश्व का हर पदार्थ अपने साथ ताप और प्रकाश की विद्युत किरणें संजोये हुए है। वे कम्पन लहरियों के साथ इस निखिल विश्व में अपना प्रवाह फैलाती हैं। ईथर तत्व के द्वारा वे दूर-दूर तक जा पहुँचती हैं। और यदि उन्हें ठीक तरह से पकड़ा जा सके तो जो दृश्य बहुत दूरी पर अवस्थित हैं-जो घटनाएं सुदूर क्षेत्रों में घटित हो रही हैं। उन्हें निकटवर्ती वस्तुओं की तरह देखा जा सकता है। इन दृश्य किरणों को पकड़ने के लिए नेत्र उपयुक्त हैं। समीपवर्ती दृश्य वही देखते हैं। और दूरवर्ती दृश्य देखने के लिए-तृतीय नेत्र को भ्रूमध्य में अवस्थित आज्ञाचक्र को प्रयुक्त किया जा सकता है। इतने पर भी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि रूप तत्व का - संबंध नेत्रों से ही है। अग्नि तत्व की प्रधानता से ‘रूप’ कम्पन उत्पन्न होते हैं। शरीर में अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व नेत्र करते हैं, पर ऐसा नहीं मानना चाहिए कि अग्नि तत्व अन्यत्र शरीर के अन्य अंगों में नहीं है। समस्त शरीर पंच-तत्वों के गुम्फन से बना है। यदि किसी अन्य अंग का अग्नि तत्व अनायास ही विकसित हो जायगा या साधनात्मक प्रयत्नों द्वारा विकसित कर लिया जाय तो नेत्रों की बहुत आवश्यकता उनके माध्यम से भी पूरी हो सकती है। इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों के कार्य एक सीमा तक दूसरे अंग कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किये गये पौहारी बाबा प्रत्यक्षतः वायु ही ग्रहण करते थे, अन्न, जल सेवन नहीं करते थे पर शरीर के अन्य अंगों द्वारा अदृश्य जगत से सूक्ष्म आहार बराबर मिलता रहता था इसके बिना किसी के लिए भी जीवन धारण किये रहना असम्भव है।
क्या नेत्रों का प्रयोजन अन्य अंग पूरा कर सकते हैं? अतीन्द्रिय क्षेत्र की इस सम्भावना के कितने ही प्रमाण समय-समय पर मिलते रहते हैं। अभी कुछ ही दिन पूर्व एक रूसी कुमारिका ‘रोजा कुलेशोवा’ ने अपनी उँगलियों के छोरों से नेत्र-शक्ति का प्रयोजन पूरा करके वहाँ के वैज्ञानिकों को आश्चर्य में डाल दिया। सभी जानते हैं कि रूस में नास्तिक सरकार है। वहाँ सिद्धि चमत्कार के नाम पर भारत की तरह छल-प्रपंच रचता-जनता को भ्रम में डालता पाया जाय तो उसे मृत्युदण्ड तक मिल सकता है। फिर वह बेचारी किशोरी ऐसा करती भी क्यों?
कुलेशोवा अन्धों के संघ में काम करती थी। उसकी ड्यूटी उन्हीं के बीच थी। न जाने क्या अचम्भा हुआ कि उसे उंगलियों की सहायता से बहुत कुछ पढ़ लेने देख लेने की क्षमता प्राप्त हो गई। वह दाँये हाथ की तीसरी और चौथी उंगलियाँ अखबार पर फिरा कर पढ़ने में समर्थ हो गई। आँखों से पट्टी बाँधकर उसने अपना यह करतब अनेकों को दिखाया।
बात आगे बढ़ी। उसे वैज्ञानिकों की प्रयोगशाला में उपस्थित होना पड़ा। ‘निजनी टैमिल शैक्षणिक संस्थान मास्को में उसे लाया गया और वैज्ञानिकों की एक समिति ने उसकी कड़ी परीक्षा ली और तथ्यों को जानने का बारीकी के साथ प्रयत्न किया। हर परीक्षण में ‘कुलेशोवा’ उत्तीर्ण रही। आँखों पर कड़ी पट्टी के साथ कई तरह के अन्य अवरोधक इसलिए चढ़ाये गये कि कहीं से उसे देख सकने की गुंजाइश न मिल जाय फिर भी उसने उंगलियों के पोरों के सहारे पुस्तक पढ़कर सुनाई। इतना ही नहीं उसने रंग भी पहचाने और डाक टिकटों पर छोटे चित्रों की बारीकियाँ भी बताई, इस विलक्षणता को देखते हुए इसमें किसी प्रकार का सन्देह करने की गुंजाइश नहीं रह गई कि नेत्रों का काम कुलेशोवा की उंगलियाँ करती हैं।
परीक्षकों ने आगे की बात जाननी चाही यह देखा कि क्या यह शक्ति उसकी दो उंगलियों में ही है या किसी अन्य अंग में भी है। लड़की को स्वयं भी यह मालूम नहीं था कि यह अद्भुत क्षमता उसके किसी अन्य अंग में भी होगी। परीक्षण ने सिद्ध किया कि वह शक्ति उसके अन्य कई अंगों में भी मौजूद है। बाँये हाथ की उंगलियों से दायें पैर के टखने से तथा जीभ से भी वह इस प्रयोजन को पूरा कर सकती है।
रूसी वैज्ञानिकों के लिए यह लड़की एक अध्ययन और परीक्षण का विषय बन गई। इस कार्य के लिए डॉ0 नोबोमीस्को की अध्यक्षता में वैज्ञानिकों का एक बोर्ड बना जो इस अतीन्द्रिय क्षमता के कारणों की शोध करने में संलग्न हो गया।
इसी बीच ठीक ऐसी ही एक और घटना सामने आई। वह अमेरिका की थी। बर्नार्ड कॉलेज न्यूयार्क के मनोविज्ञान प्राध्यापक डॉ0 रिचार्ड यूटस् को ऐसी ही एक अमेरिकन महिला पोद्दोशया के अध्ययन परीक्षण में लगाना पड़ा। वह महिला घोर अन्धकार में भी आँखों से पट्टी बाँध कर रंगों को पहचान लेती थी।
इस अतीन्द्रिय स्थिति के कई कारण सोचे गये एक यह था प्रत्येक रंग से अलग तरह की ताप किरणें निकलती हैं। किसी के शरीर में उन तरंगों का अन्तर समझने की क्षमता हो सकती है और उस आधार पर यह पहचान सम्भव है। कुलेशोवा की उंगलियों पर ऐसे यन्त्र लगाये गये जो रंगों की किरणों को सोख लेते थे। इसके बावजूद भी लड़की ने रंगों को ठीक तरह से पहचान लिया। इसलिए वह अनुमान गलत माना गया उसने बिना रिबिन के टाइप किये हुए अक्षर पढ़कर सुनाये। इसमें रंग का प्रश्न भी नहीं था। बिना रिबिन के टाइपराइटर से कागज पर थोड़े निशान ही बन सकते हैं, रंग तो उसमें था ही नहीं। रंगों की ताप किरणों वाली बात इससे भी कट गई।
रूस ही नहीं संसार के अन्य देशों के विज्ञान वेत्ताओं ने भी इस विलक्षणता को समझने की कोशिश की है। इनमें से चैकोस्लोवाकिया के परा मनोविज्ञान वेत्ता ‘मैलिन रिज्ल’ और लेनिन ग्राड विश्व विद्यालय के प्राध्यापक मि0 बेसिलियेव इस विलक्षणता को मनुष्य के अन्दर रहने वाली अतीन्द्रिय क्षमता की पृष्ठभूमि में देखते हैं। दूसरे वैज्ञानिक दूसरी तरह के भौतिक निष्कर्ष निकाल रहे हैं पर वे अभी किसी निश्चय समाधान पर पहुँच नहीं सके हैं। उनके लिये यह पहेली जहाँ की तहाँ है।
उपरोक्त रूस की कुलेशोवा और अमेरिकी पोद्देशिया स्टेनले की दो घटनाएं ही मनुष्य की अतीन्द्रिय क्षमता को प्रमाणित करती हों सो बात नहीं है। इससे पहले भी ऐसे ही अनेक प्रामाणिक उदाहरण उपलब्ध होते रहे हैं। तन्त्र विद्या के विश्वकोश ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ दी ऑकल्ट’ में एन्टीन मेसयर के अनुयायियों का ऐसा वर्णन है जिसमें वे पेट के माध्यम से अप्रत्यक्ष वस्तुओं का विवरण बताने में समर्थ होते थे।
प्रो0 फोन्टान ने एक फ्रान्सीसी नाविक का ऐसा ही उल्लेख किया है। वह अन्धा व्यक्ति उंगलियों से छूकर ऐसे विवरण बताता था जो साधारणतया आँखों के बिना नहीं बताये जा सकते। कनाडा की एक अन्धी लड़की हाथ की कुहनियों के माध्यम से ऐसा ही अदृश्य दर्शन कर सकने में समर्थ थी ऐसे प्रमाण मिले हैं।
फ्रान्सीसी कवि-जूल्स रोमेन्स की उन दिनों परोक्ष दृष्टि विज्ञान में बड़ी दिलचस्पी थी उसने अपने साहित्यकायों के साथ-साथ इस विषय में भी शोध की थी और बताया है कि त्वचा में अगणित ‘कीट नेत्र’ विद्यमान है जो स्पर्श संवेदना के द्वारा निकटवर्ती वस्तुओं के बारे में निरन्तर जानकारी संग्रहीत करते रहते हैं। आँखों की तरह ये छोटे नेत्र वस्तुओं की आकृति भले ही स्पष्ट रूप से न जान सकें पर उनकी प्रकृति के संबंध में नेत्र गोलकों से भी अधिक ज्ञान प्राप्त करते हैं।
प्रसिद्ध जादूगर गोगिया पाशा और प्रो0 सरकार नेत्रों से कड़ी पट्टी बँधवाकर घनी आबादी की भीड़ भरी सड़कों पर मोटर साइकिल दौड़ाने के अपने करतब दिखा चुके हैं। इस प्रदर्शन में आँखों से देखने की गुंजाइश तो नहीं रही है इसलिए पट्टी बाँधने से लेकर उसकी जाँच करने तक का काम ऐसे कार्यों की जानकारी रखने वाले प्रामाणिक लोगों को सौंपा गया था। उन लोगों की मोटर साइकिलें मोड़ और बचाव की सही व्यवस्था बनाती हुई निर्धारित लक्ष्य पर ठीक प्रकार जा पहुँची तो दर्शकों को यह विश्वास करना पड़ा कि बिना आँखों की सहायता के भी दूसरे माध्यमों से देखने का कार्य किया जा सकना सम्भव है। स्वामी माधवानन्दजी ने राजस्थान में जल रहित प्रदेशों में कई जगह अपनी दिव्य दृष्टि से जल स्रोतों