
खबरदार इस पानी को पीना मत-खतरा है।
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किसी समय अमेरिका के सुन्दर झरने जो अपनी प्राकृतिक छटा के कारण प्रकृति प्रेमियों का मन ललचाते थे और लोग वहाँ कुछ समय बिताकर शाँति प्राप्त करने के लिये जाया करते थे; अब उनके किनारों पर बड़े-बड़े सूचना बोर्ड लगे हैं—डेन्जर, पोल्यूटेड वाटर, नो स्विमिंग, खबरदार, पानी जहरीला है, इसमें तैरिये मत! औद्योगिक नगरों के निकटवर्ती सरोवर एक प्रकार से मृतक संज्ञा में गिने जाते हैं। उनका पानी किसी के उपयोग में नहीं आता। नदियाँ अब गंदगी बहाने वाली गटरें भर रह गई हैं। ह्वाइन नदी को योरोप की गटर कहा जाता है। स्वीडन सरकार ने डिडेलालबेन नदी को अपना प्राकृतिक रूप बनाये रहने के लिए सुरक्षित घोषित कर दिया है। यह इसलिए किया गया कि बढ़ती हुई औद्योगिक प्रगति कुछ दिनों में इस संसार की जल राशि की शुद्धता को नष्ट कर देगी, पानी में सर्वत्र विष भरा होगा। मजबूरी में पीना तो उसे ही पड़ेगा और उसके दुष्परिणाम भी कष्टकर असाध्य रोगों के रूप में सहने ही होंगे। तब भावी पीढ़ियाँ यह जानना चाहेंगी कि शुद्ध जल कैसा होता है? इसके लिए कम से कम जल देवता का एक तीर्थ तो रहना ही चाहिए जहाँ उसे अपने असली रूप में देखा जा सके। पुरातत्व संग्रहालय इसी लिए बनाये जाते हैं कि भूतकाल की झाँकी देख सकना संभव हो सके। अगले दिनों भी यह नदी शुद्ध जल ही प्रवाहित करती रहे और एक दर्शनीय स्थान समझी जाय इसलिए इसमें मल मूत्र अथवा कारखानों की गन्दगी डालने पर प्रतिबंधित रखा गया है। ऐरिजोना के प्रोफेसरों की एक समिति ने जनता की ओर से ताँबा बनाने वाली छह फैक्ट्रियों पर दो अरब डालर का दावा किया है। वादियों का कहना है कि इन कम्पनियों ने जनता की जान-माल की जो अपार क्षति की है उसके बदले इन्हें इतना हरजाना तो देना ही चाहिए। ऐसा ही एक मुकदमा जनता की ओर से न्यूयार्क की प्रमुख महिलाओं ने डी0डी0टी0 बनाने वाली 3 कम्पनियों के विरुद्ध दायर किया है और 3 अरब डालर की इस आधार पर माँग की है कि उनके उत्पादन ने जन स्वास्थ्य को भारी हानि पहुँचाई है। ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने इंग्लैंड की सरकार को चेतावनी दी है कि यदि वायु प्रदूषण घटाने के कारगर उपाय न किये गए तो यह खतरा लन्दन के लिये तबाही ही खड़ी कर देंगे। विशेषज्ञों की यह भी कल्पना है कि यदि प्रदूषण की रोक थाम न हुई और औद्योगिक प्रगति बढ़ती चली गई तो जलवायु में बढ़ी हुई विषाक्तता मनुष्य के वर्तमान स्वरूप में ही ऐसा परिवर्तन कर सकती है जो विष ही खाये, विष ही पिये और उसकी आकृति प्रकृति सब कुछ बदल कर विषधर सर्प के स्तर की बन जाय। रसायन विशेषज्ञ नारवल्ड डफिमराइट ने नार्वे की सेन्ट फ्लेयर झील से पकड़ी गई मछलियों का रासायनिक विश्लेषण किया तो पारे की खतरनाक मात्रा पाई गई। मछलियों में पारा कहाँ से आया? अधिक बारीकी से पता लगाया तो मालूम हुआ कि औद्योगिक रसायनों में पारे की भी एक बड़ी मात्रा होती है और वह गन्दगी के रूप में बहती हुई झीलों में पहुँचती है। सोचा यह गया था यह पारा भारी होने के कारण जल की तली में बैठ जायगा। कुछ मछलियाँ यदि पारे से मर भी गई तो कुछ विशेष हानि न होगी। पर वह अनुमान गलत निकला। शोधों ने बताया कि जल में पहुँच कर पारे की रासायनिक प्रतिक्रिया होती है। उसकी सूक्ष्म मात्रा जीव कणों में प्रवेश कर जाती है। इन्हें छोटे कीड़े खाते हैं और वे मछलियों की खुराक बनते हैं इस प्रकार पारे की रासायनिक प्रतिक्रिया मछली के माँस में एक इकाई बनकर बस जाती है। विश्लेषण कर्त्ताओं ने बताया है कि इस प्रकार की पारा प्रभावित मछलियों को खाने वाले मनुष्य अन्धे या पागल हो सकते हैं और विशेष परिस्थितियों में तो वे मर भी सकते हैं। इस वैज्ञानिक निष्कर्ष के उपरान्त उद्योगों में पारे के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। इस प्रकार के उद्योगों में कागज निर्माण और समुद्री जल में से क्लोरीन निकालने वाले कारखाने अग्रणी थे। इस निष्कर्ष ने अमेरिका को भी चौकन्ना किया है उसने भी अब पारे के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाया है फलतः उसमें 86 प्रतिशत कमी तत्काल कर दी गई है। फिर भी यह प्रश्न तो है ही कि पारे की जो मात्रा जल में चली गई उसका प्रभाव अभी कम से कम 50 वर्ष तक तो बना ही रहेगा। उसके द्वारा होने वाली हानियों से कैसे बचा जाय? पारे की ही भाँति कुछ और भी ऐसे ही रसायन हैं जिनका खतरा कम नहीं कुछ ज्यादा ही है। उन्हें भी उद्योगों में भरपूर मात्रा में प्रयोग किया जाता है और उनका कचरा भी जल दूषण में अग्रणी ही रहता है। डार्ट माउथ मेडीकल कालेज के डॉक्टर हैनरी श्रुडर ने अमेरिकी प्रशासन को चेतावनी दी है कि सीसा, कैडमियम, निकिल कार्वोनिला जैसे पदार्थ भी कम घातक नहीं हैं। इनका प्रयोग इन दिनों बहुत चल पड़ा है। इनकी अति सूक्ष्म मात्रा भी रक्तचाप एवं फेफड़े का केन्सर उत्पन्न कर सकती है। अमेरिका में कचरा वृद्धि का एक और कारण है। वहाँ 48 अरब डिब्बे, 28 अरब बोतलें, 10 करोड़ टायर, 70 लाख मोटर गाड़ियाँ हर साल कचरा बन जाती हैं। इसी तरह की और भी बहुत सी चीजें हैं जिनको रद्दी हो जाने के बाद कचरा ही बनना पड़ता है और फिर उसे समुद्र में पटक दिया जाता है। फलतः यह कूड़ा समुद्र तट के किनारे को खतरा बनाता जा रहा है। इस कचरे में गन्दगी जड़ जमाती है। थोड़ा इस्तेमाल करो। ‘फेंक दो और नया खरीदो’ का नारा उस देश की विलासिता और समृद्धि बढ़ाने में कितना सहायक सिद्ध हुआ यह तो समय ही बतायेगा पर उससे कचरे में असाधारण वृद्धि हुई है। लोग अपनी पुरानी मोटरों के प्लेट उतार कर कहीं यों ही छोड़ जाते है। कारों के कब्रिस्तान हर जगह मौजूद मिलेंगे, डिब्बे और बोतलों को कोई उठाता तक नहीं। इस समस्या से क्षुब्ध जनता ने ‘अर्थ डे’ मनाया और यह कचरा उनके बनाने वाली फैक्ट्रियों के दरवाजे पर पटक कर पहाड़ लगा दिये और माँग की बनाने के साथ-साथ इनके रद्दी होने पर इनका कचरा उठाने की जिम्मेदारी भी वे ही लें। पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घट जाने और विषाक्त तत्वों के बढ़ जाने से वहाँ वृक्ष वनस्पति विषैले होकर मर रहे हैं। बादलों में भी यह विष मिल जाता है और फिर जहरीली वर्षों के रूप में बरसता है, उससे पक्षी और पौधे दोनों ही झुलसते देखे गये हैं। मछलियाँ मरती घटती जा रही हैं। जो उन्हें खाते हैं वे बीमार पड़ते हैं। अब वहाँ जहरीली मछलियों की एक नई जाति विकसित हो रही है जिसे ‘कार्प’ कहते हैं। इसने जहर भरे पानी में रहना और जीना तो सीख लिया है पर मच्छीमारों के लिए तो ये किसी काम की नहीं रहीं। अमेरिका में हर साल 70 लाख मोटरें तथा 10 करोड़ टायर कचरा बन जाते हैं। वहाँ 20 करोड़ लोगों के पीछे साढ़े आठ करोड़ मोटर हैं। अकेले लॉसएंजेल्स नगर में ही 20 लाख आबादी में 10 लाख मोटरें हैं। वहाँ नई मोटर 300 डालर की मिल जाती है। ऐसी दशा में पुरानी गाड़ियों की मरम्मत महंगी पड़ती है। पुरानी होते ही उन्हें कूड़े में फेंक दिया जाता है। यही हाल मोटर साइकिलों तथा दूसरी मशीनों का है। यह कचरा कहाँ फेंका जाता रहेगा यह प्रश्न उस देश की सरकार के लिए सिर दर्द बना हुआ है। फिलहाल तो यह कबाड़ समुद्र में गिराया जा रहा है पर वह भी तो यह पहाड़ गिरते-गिरते पटने की लगेगी। समुद्र तटों का तो अभी भी बुरा हाल है। वहाँ इस कचरे की सड़ाँद निकट भविष्य में किसी बड़े स्वास्थ्य संकट का कारण बन सकती है। सागर अन्तराल के शोधकर्त्ता जैक्वीस वाइवस ने समुद्र में बढ़ती हुई अशुद्धता को शोचनीय स्थिति में पाया है और जल दूषण से समुद्रों की उपयोगिता नष्ट होने की आशंका व्यक्त की है। उनने तेल कणों तथा दूसरे विषाक्त रसायनों की मात्रा बढ़ जाने के फलस्वरूप विगत 20 वर्षों में 40 प्रतिशत जल जन्तुओं के मर जाने का हिसाब लगाया है। उनका कथन है कि मछलियाँ ही नहीं वनस्पतियाँ भी समुद्र तल से गायब होती चली जा रही हैं। कीटाणु नाशक दवाओं में क्लोरीन जैसे पदार्थों का उत्पादन इन दिनों 50 लाख टन से अधिक है। उसकी स्वल्प मात्रा से ही चूहे जैसे छोटे जीव तत्काल मर जाते हैं। वह विष पदार्थ जलवायु में मिलकर इतना व्यापक होता जा रहा है कि ध्रुव प्रदेशों के निवासी मनुष्यों और पक्षियों तक के शरीर में वह तत्व पाया गया है। कारखानों की गन्दगी घूम फिरकर—नदी नालों में होती हुई अन्ततः समुद्र में जा पहुँचती है। वृक्ष वनस्पतियों पर छिड़के जाने वाले कृमिनाशक विष भी वर्षा जल के साथ समुद्र में ही जा पहुँचते हैं। अणु भट्टियों की राख को भी समुद्र में ही प्रश्रय मिलता है। समुद्र विशाल भले ही हो असीम नहीं है। विष को पचाने की उसकी भी एक सीमा है। वह मात्रा जब बढ़ रही हो तो समुद्र का विषाक्त होना स्वाभाविक है। जमीन की तरह उस जल राशि में भी वनस्पतियाँ हैं, इन तैरने वाली वनस्पतियों से जल जगत के लिये आवश्यक प्राण वायु उपलब्ध होती है। पृथ्वी पर फैली पड़ी प्राण वायु का एक बहुत बड़ा अंश इन जल वनस्पतियों—फिटो प्लैंकटीन—से ही मिलता है, समुद्र का जल जैसे-जैसे विषाक्त होता जाता है इन वनस्पतियों का नाश होता जाता है और फलस्वरूप जल जन्तुओं के लिये ही नहीं धरती पर रहने वालों के लिये भी प्राण संकट उत्पन्न हो रहा है। समुद्र का जल ही बादल बनकर सर्वत्र बरसता है। बादलों में वह विष घुला रहता है और विषैली वर्षा का जल पीकर उगी हुई वनस्पति भी वैसी ही बनती जाती है। उस घास पर पलने वाले पशुओं का दूध और माँस दोनों ही अभक्ष स्तर के बनने लगे हैं। अन्न और शाक फलों में वे अवाँछनीय तत्व बढ़कर मानव शरीरों में भी वे आरोग्य नष्ट करने वाली परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रहे हैं। डी0डी0टी0 सरीखे विषाक्त छिड़कावों तथा रासायनिक खादों का प्रचलन घुमा फिराकर मनुष्य शरीर में ही प्रवेश करता है। जहाँ यह प्रचलन अधिक है वहाँ पशुओं के तथा नारियों के दूध में विषाक्तता की मात्रा काफी बढ़ी चढ़ी पाई गई है। इसे पीने वाले बालकों तथा बड़ों को इसका परिणाम भुगतना ही पड़ता होगा। किसी समय दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में विशालकाय एक गेंडा जैसा पशु रहता था। नाम था उसका—हिपोपोटमस। मनुष्य ने उसे निरुपयोगी समझा और खाल के लोभ में अन्धा-धुन्ध शिकार करके उसका वंश मिटाया। उस समय इसे बुद्धिमत्ता समझा गया था पर पीछे वह भारी मूर्खता सिद्ध हुई। इस जन्तु से जो लाभ होता था उससे वंचित रहना पड़ा और उस क्षेत्र में दूसरे प्रकार की भारी हानियाँ उत्पन्न हुई। हिपो नदियों में घूमता और उसके वजन से उनकी गहराई सम्भलती रहती थी। बेचारा समाप्त कर दिया गया तो नदियों में मिट्टी जमने लगी, वे उथली हो गई और बाढ़ से भारी नुकसान उठाना पड़ा। हिपो के चलने के कुछ रास्ते होते थे वे वजन से नाले जैसे बन जाते थे और नदियों का पानी उनमें होकर दूर-दूर तक पहुँचता था। इस प्रकार वह प्राकृतिक नहरें बनाया करता था और प्यासी जमीन तथा उस क्षेत्र की आबादी के लिए जल सुलभ किया करता था। वह मर गया तो नई नहरें बनना तो दूर वे पुरानी भी बन्द हो गई और जमीन तथा आबादी प्यासी मरने लगी। नदियों की बाढ़ से मलेरिया, हैजा जैसे रोग फैले सो अलग। शोर और कोलाहल की मात्रा बढ़ जाना कम घातक नहीं। मोटरों की दौड़, कारखानों की मशीनें, जहाजों की भर्राहट, लाउडस्पीकर की चिल्लाहट, बात-चीत का शोरगुल मिलकर इतना विघातक बन जाता है कि उस वातावरण में रहने वाले लोग रक्तचाप, हृदय की तेज धड़कन, अनिद्रा जैसे रोगों से ग्रसित हो जाते हैं बड़े कारखाने में काम करने वाले लोग बहरे, चिड़चिड़े थके हुए और मानसिक रोगों से ग्रसित रहने लगते हैं। यहाँ तक कि गर्भस्थ बालक भी इस वातावरण से प्रभावित होकर कई तरह की जन्मजात बीमारियाँ लेकर उत्पन्न होते हैं।