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Magazine - Year 1972 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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कुण्डलिनी विज्ञान में-कामकला और कामबीज

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कुण्डलिनी महाशक्ति को ‘काम कला’ कहा गया है। उसका वर्णन कतिपय स्थलों में ऐसा प्रतीत होता है मानो यह कोई सामान्य काम सेवन की चर्चा की जा रही हो। कुण्डलिनी का स्थान जननेन्द्रिय मूल में रहने से भी उसकी परिणति काम शक्ति के उभार के लिये प्रयुक्त होती प्रतीत होती है।

इस तत्व को समझने के लिये हमें अधिक गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और अधिक सूक्ष्म दृष्टि से देखना पड़ेगा। नर-नारी के बीच चलने वाली ‘काम क्रीड़ा’ और कुण्डलिनी साधना में सन्निहित ‘काम कला’ में भारी अन्तर है। मानवीय अन्तराल में उभय लिंग विद्यमान हैं। हर व्यक्ति अपने आप में आधा नर और आधा नारी है। अर्धनारी नटेश्वर भगवान् शंकर को चित्रित किया गया है। कृष्ण और राधा का भी ऐसा ही एक समन्वित रूप चित्रों में दृष्टि गोचर होता है। पति-पत्नी दो शरीर एक प्राण होते हैं। यह इस चित्रण का स्थूल वर्णन है। सूक्ष्म संकेत यह है कि हर व्यक्ति के भीतर उभय लिंग सत्ता विद्यमान है। जिसमें जो अंश अधिक होता है उसकी रुझान उसी ओर ढुलकने लगती है। उसकी चेष्टाएं उसी तरह की बन जाती हैं। कितने की पुरुषों में नारी जैसा स्वभाव पाया जाता है और कई नारियों में पुरुषों जैसी प्रवृत्ति, मनोवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति बढ़ चले तो इसी जन्म में शारीरिक दृष्टि से भी लिंग परिवर्तन हो सकता है। अगले जन्म में लिंग बदल सकता है अथवा मध्य सन्तुलन होने से नपुँसक जैसी स्थिति बन सकती है।

नारी लिंग का सूक्ष्म स्थल जननेन्द्रिय मूल है। इसे ‘योनि’ कहते हैं। मस्तिष्क का मध्य बिन्दु ब्रह्मरंध्र—’लिंग‘ है। इसका प्रतीक प्रतिनिधि सुमेरु —मूलाधार चक्र के योनि गह्वर में ही ‘काम बीज के रूप में अवस्थित है।’ अर्थात् एक ही स्थान पर वे दोनों विद्यमान हैं। पर प्रसुप्त पड़े हैं। उनके जागरण को ही कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। इन दोनों के संयोग की साधना ‘काम कला’ कही जाती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण की भूमिका कह सकते हैं। शारीरिक काम सेवन—इसी आध्यात्मिक संयोग प्रयास की छाया है।

आन्तरिक काम शक्ति को दूसरे शब्दों में महाशक्ति—महाकाली कह सकते हैं। एकाकी नर या नारी भौतिक जीवन में अस्त-व्यस्त रहते हैं। आन्तरिक जीवन में उभय पक्षी विद्युत शक्ति का समन्वय न होने से सर्वत्र नीरस नीरवता दिखाई पड़ती है। इसे दूर करके समग्र समर्थता एवं प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिए कुण्डलिनी साधना की जाती है। इसी संदर्भ में शास्त्रों में साधना विज्ञान का जहाँ उल्लेख किया है वहाँ काम क्रीड़ा जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः यह आध्यात्मिक काम कला की ही चर्चा है। योनि-लिंग, काम बीज, रज, वीर्य, संयोग आदि शब्दों में उसी अन्तःशक्ति के जागरण की विधि-व्यवस्था सन्निहित है—


स्वयंभु लिंग तन्मध्ये सरन्ध्रं यश्चिमावलम्।

                                     ध्यायेञ्च परमेशानि शिवं श्यामल सुन्दरम्॥ — शाक्तानन्द तरंगिणी


उसके मध्य रन्ध्र सहित महालिंग है। वह स्वयंभु और अधोमुख, श्यामल है सुन्दर है। उसका ध्यान करे।


तत्रस्थितो महालिंग स्वयंभुः सर्वदा सुखी।

                                अधोमुखः क्रियावाँक्ष्य काम बीजे न चालितः॥ —काली कुलामृत


वहाँ ब्रह्मरन्ध्र में —वह महालिंग अवस्थित है। वह स्वयंभु और सुख स्वरूप है। उसका मुख नीचे की ओर है। यह निरन्तर क्रियाशील है। काम बीज द्वारा चालित है।


             आत्मसंस्थं शिवं त्यक्त्वा बहिःस्थं यः समर्चयेत्।

      हस्तस्थं पिण्डमुत्सृज्य भ्रमते जीविताशया॥

आत्मलिंगार्चनं कुर्यादनालस्यं दिने दने।

                              तस्य स्यात्सकला सिद्धिर्नात्र कार्या विचरणा॥ —शिव संहिता


अपने शरीर में अवस्थित शिव को त्याग कर जो बाहर बाहर पूजते फिरते हैं। वे हाथ के भोजन को छोड़ कर इधर-उधर से प्राप्त करने के लिए भटकने वाले लोगों में से हैं।

आलस्य त्याग कर ‘आत्म-लिंग‘—शिव—की पूजा करे। इसी से समस्त सफलताएं मिलती हैं।


       नमो महाबिन्दुमुखी चन्द्र कार्य स्तन द्वया।

सुमेरु द्दार्घ कलया शोभमाना मही पदा॥

  काम राज कला रुपा जागर्ति स चराचरा।

                                       एतत कामकला व्याप्तं गुह्माद गुह्यतरं महत्॥ —रुद्रयामल तंत्र


महाबिन्दु उसका मुख है। सूर्य चन्द्र दोनों स्तन हैं, सुमेरु उसकी अर्ध कला है, पृथ्वी उसकी शोभा है। चर-अचर सब में काम कला के रूप में जगती है। सबमें काम कला होकर व्याप्त है। यह गुह्य से भी गुह्य है।

जननेन्द्रिय मूल-मूलाधार चक्र में योनि स्थान बताया गया है।


मूलाधारे हि यत् पद्मं चतुष्पत्रं व्यवस्थितम्।

                                तत्र कन्देऽस्ति या योनिस्तस्याँ सूर्यो व्यवस्थितः। —शिव संहिता


चार पंखुरियों वाले मूलाधार चक्र के कन्द भाग में जो प्रकाशवान् योनि है।


तस्मिन्नाधार पद्मे च कर्णिकायाँ सुशोभना।

                    त्रिकोणा वर्तते योनिः सर्वतंमेषु गोपिका॥ —शिव संहिता


उस आधार पद्म की कर्णिका में अर्थात् दण्डी में त्रिकोण योनि है। यह योनि सब तन्त्रों करके गोपित है।


यत्तद्गुह्यमिति प्रोक्तं देवयोनिस्तु सोच्यते।

                              अस्याँ यो जायते वह्निः स कल्याणप्रदुच्यते॥ —कात्यायन स्मृति


यह गुह्य नामक स्थान देव योनि है। उसी में जो वह्नि उत्पन्न होती है वह परम कल्याणकारिणी है।


आधारं प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम्।

                      योनि स्थानं द्वयोर्मध्ये कामरुपं निगद्यहे॥ —गोरक्ष पद्धति


पहले मूलाधार एवं दूसरे स्वाधिष्ठान चक्र के बीच में योनि स्थान है, यही काम रूप पीठ है।


आधाराख्ये गुदस्थाने पंकजं च चतुर्दलम्।

          तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्ध वंदिता॥


गुदा स्थान में जो चतुर्दल कमल विख्यात है उसके मध्य में त्रिकोणाकार योनि है जिसकी वन्दना समस्त सिद्धजन करते हैं, पंचाशत वर्ण से बनी हुई कामाख्या पीठ कहलाती है।


यत्समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वतो मुखम्।

                         तिस्मन दृष्टे महायोगे याता यातात्र विन्दते॥  —गोरक्ष पद्धति


इसी त्रिकोण विषय समाधि में अनन्त विश्व में व्याप्त होने वाली परम ज्योति प्रकट होती है वही कालाग्नि रूप है जब योगी ध्यान, धारण, समाधि—द्वारा उक्त ज्योति देखने लगता है तब उसका जन्म मरण नहीं होता।

इन दोनों का परस्पर अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह सम्बन्ध जब मिला रहता है तो आत्म-बल समुन्नत होता चला जाता है और आत्मशक्ति सिद्धियों के रूप में विकसित होती चलती है। जब उनका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो मनुष्य दीन-दुर्बल, असहाय-असमर्थ एवं असफल जीवन जीता है। कुण्डलिनी रूपी योनि और सहस्रार रूपी लिंग का संयोग मनुष्य की आन्तरिक अपूर्णता को पूर्ण करता है। साधना का उद्देश्य इसी महान प्रयोजन की पूर्ति करना है। इसी को शिव शक्ति का संयोग एवं आत्मा से परमात्मा का मिलन कहते हैं। इस संयोग का वर्णन साधना क्षेत्र में इस प्रकार किया गया है।


भगः शक्तिर्भगवान् काम ईश उया दातार विह सौभमानाम्।

                               सम प्रधानौ समसत्वौ समोजौ तयोः शक्तिरजरा विश्व योनिः॥  —त्रिपुरोपनिषद


भग शक्ति है। काम रूप ईश्वर भगवान है। दोनों सौभाग्य देने वाले हैं। दोनों की प्रधानता समान है। दोनों की सत्ता समान है। दोनों समान ओजस्वी हैं। उनकी अजरा शक्ति विश्व का निमित्त कारण है।

शिव और शक्ति के सम्मिश्रण को शक्ति का उद्भव आधार माना गया है। इन्हें बिजली के ‘धन और ऋण’ भाग माना जाना चाहिये। बिजली इन दोनों वर्गों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होती है। अध्यात्म विद्युत के उत्पन्न होने का आधार भी इन दोनों शक्ति केन्द्रों का संयोग ही है। शिव पूजा में इसी आध्यात्मिक योनि लिंग का संयोग प्रतीक रूप से लिया गया है।


लिंगवेदी उमा देवी लिंगं साक्षान्महेश्वरः। —लिंग पुराण


‘लिंग वेदी’ (योनि) देवी उमा है और लिंग साक्षात् महेश्वर हैं।


सा भगाख्या जगद्धात्री लिंगमूर्तेस्त्रिवेदिका।

            लिंगस्तु भगवान्द्वाभ्याँ जगत्सृाष्टर्द्विजोत्तमाः॥

                                                                                     लिंगमूर्तिः शिवो ज्योतिस्तमसश्चोपरि स्थितः।   —लिंग पुराण


वह महादेवी भग संज्ञा वाली और इस जगत् की धात्री है तथा लिंग रूप वाले शिव की त्रिगुणा प्रकृति रूप वाली है। हे द्विजोत्तमो! लिंग रूप वाले भगवान् शिव नित्य ही भग से युक्त रहा करते हैं और इन्हीं दोनों से इस जगत् की सृष्टि होती है। लिंग स्वरूप शिव स्वतः प्रकाश रूप वाले हैं और यह माया के तिमिर से ऊपर विद्यमान रहा करते हैं।


ध्यायेत् कुण्डलिनीं देवीं स्वयंभु लिंग वेष्टिनीम्।

        श्यामाँ सूक्ष्माँ सृष्टि रुपाँ सृष्टि स्थिति लयात्मिकम्।

                                  विश्वातीताँ ज्ञान रुपाँ चिन्तयेद ऊर्ध्ववाहिनीम्।   —षट्चक्र निरुपणम्


स्वयंभू लिंग से लिपटी हुई कुँडलिनी महाशक्ति का ध्यान श्यामा, सूक्ष्मा सृष्टि रूपा, विश्व को उत्पन्न और लय करने वाली, विश्वातीत, ज्ञान रूप ऊर्ध्ववाहिनी के रूप में करे।

यह उभय लिंग एक ही स्थान पर प्रतिष्ठापित है। जननेन्द्रिय मूल—मूलाधार चक्र में सूक्ष्म योनि गह्वर है। उसे ऋण विद्युत कह सकते हैं। उसी के बीचों बीच सहस्रार चक्र का प्रतिनिधि एक छोटा सा उभार है जिसे ‘सुमेर’ कहा जाता है। देवताओं का निवास सुमेरु पर्वत पर माना गया है। समुद्र मंथन में इसी पर्वत का वर्णन आता है। साढ़े तीन चक्र लपटा हुआ शेष नाग इसी स्थान पर है। इस उभार केन्द्र को ‘काम बीज’ भी कहा गया है। एक ही स्थान पर दोनों का संयोग होने से साधक का ‘आत्मरति’ प्रयोजन सहज ही पूरा हो जाता है। कुण्डलिनी साधना इस प्रकार आत्मा के उभय पक्षी लिंगों का समन्वय सम्मिश्रण ही है। इसकी जब जागृति होती है तो रोम-रोम में अन्तः क्षेत्र के प्रत्येक प्रसुप्त केन्द्र में हलचल मचती है और आनन्द, उल्लास का प्रवाह बहने लगता है। इस समन्वय केन्द्र में हलचल मचती है और आनन्द, उल्लास का प्रवाह बहने लगता है। इस समन्वय केन्द्र—काम बीज का वर्णन इस प्रकार मिलता है—


योनि मध्ये महालिंगं पश्चिमाभिमुखस्थितम्।

                             मस्तके मणिबद्बिम्बं यो जानाति स योगवित्॥   —गोरक्ष पद्धति


त्रिकोणाकार योनि में सुषुम्ना द्वार के सम्मुख स्वयंभू नायक महालिंग है उसके सिर में मणि के समान देदीप्यमान बिम्ब है यही कुण्डलिनी जीवाधार मोक्ष द्वार है इसे जो सम्यक् प्रकार से जानता है उसे योगविद् कहते हैं।


तप्तचामी कराभासं तडिल्लेखेव विस्फुरत्।

                           त्रिकोणं तत्परं वह्नरधो मेढ्रात्प्रतिष्ठितम्॥   —गोरक्ष पद्धति


मेढ्र (लिंग स्थान) से नीचे मूलाधार कर्णिका में तपे हुए स्वर्ण के वर्ण के समान वाला एवं बिजली के समान चमक-दमक वाला जो त्रिकोण है वही कालाग्नि का स्थान है।


पूर्वाक्ता डाकिनी तत्र कर्णिकायाँ त्रिकोणकम्।

यन्मध्ये विवरं सूक्ष्मं रक्ताभं काम वीजकम्।

                     तत्र स्वयंभु लिंग स्नाधो मुखारक्तक प्रभुमू।   —शक्ति तंत्र


वहीं ब्रह्म डाकिनी शक्ति है। कर्णिका में त्रिकोण है। इसके मध्य में एक सूक्ष्म विवर है। रक्त आभा वाला काम बीज स्वयंभू अधोमुख महालिंग यहीं है।


    आधारं प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम्।

   योनिस्थानं द्वयोर्मध्ये कामरुपं निगद्यते॥

आधाराख्ये गुदस्थाने पंकजं च चतुर्दलम्।

         तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवंदिता॥

      योनिमध्ये महालिंगं पश्चिमाभिमुखस्थितम्।

          मस्तके मणिवद्बिम्बं यो जानाति स योगवित्॥

  तप्तचामीकराभासं तडिल्लेखेव विस्फुरत्।

   त्रिकोणं तत्पुरं वह्नरधो मेढ्रात्प्रतिष्ठितम्॥

    यत्समाधौ परं ज्योतिरनन्त विश्वतोमुखम्।

                                                                                      तिस्मन् दृष्टे महायोगे यातायातान्न विन्दते॥   —गोरक्ष पद्धति


मूलाधार और स्वाधिष्ठान इन दो चक्रों के बीच जो योनि स्थान है वही ‘काम रूप’ पीठ है।

चौदह पंखुरियों वाले मूलाधार चक्र के मध्य में त्रिकोणाकार योनि है इसे ‘कामाख्या’ पीठ कहते हैं। यह सिद्धों द्वारा अभिवंदित है।

इस योनि के मध्य पश्चिम की ओर अभिमुख ‘महालिंग‘ है। उसके मस्तक में मणि की तरह प्रकाशवान बिम्ब है। जो इस तथ्य को जानता है वही योगविद् है।

लिंग स्थान से नीचे, मूलाधार कर्णिका में अवस्थित तपे सोने के समान आभा वाला, विद्युत जैसी चमक से युक्त जो त्रिकोण है उसी को ‘कालाग्नि’ कहते हैं।

इसी विश्वव्यापी परम ज्योति में तन्मय होने में महायोग की समाधि प्राप्त होती है और जन्म-मरण से छुटकारा मिलता है।


     तत्र बन्धूक पुष्पाभं कामबीजं प्रकीर्तितम्।

  कलहेमसमं योगे प्रयुक्ताक्षररुपिणम्॥

            सुषुम्णापि च संश्लिष्टो बीजं तत्र वरं स्थितम्।

            शरच्चंद्रनिभं तेजस्स्वयमेतत्स्फुरत्स्थितम्॥

        सूर्यकोटिप्रतीकाशं चन्द्रकोटि सुशीतलम्।

एतत्रयं मिलित्वैव देवी त्रिपुरभैरवी।

      बीजसंज्ञं परं तेजस्तदेव परिकीर्तितम्॥

               क्रियाविज्ञानशक्तिभ्याँ युतं यत्परितो भ्रमत्।

                      उत्तिष्ठद्विशतस्त्वम्भः सूक्ष्मं शोणशिखायुतम्।

                                         योनिस्थं तत्परं तेजः स्वयम्भूलिंगसंज्ञितम्॥   —शिव संहिता


जिस स्थान पर कुण्डलिनी है उसी स्थान पर पुष्प के समान स्वर्ण आभा जैसा चमकता हुआ रक्त वर्ण काम-बीज है।

कुण्डलिनी, सुषुम्ना और काम बीज यह सूर्य चन्द्रमा की तरह प्रकाशवान हैं। इन तीनों के मिलने को त्रिपुर भैरवी कहते हैं। इस तेजस्वी तत्व की ‘बीज’ संज्ञा है।

यह ‘बीज’ ज्ञान और क्रिया शक्ति से संयुक्त होकर शरीर में भ्रमण करता है और ऊर्ध्वगामी होता है। इस परम तेजस्वी अग्नि का योनि स्थान है और उसे ‘स्वयंभू लिंग‘ कहते हैं।


क्रिया विज्ञान शक्तिभ्याँ युतं यत्परितो भ्रमत्।

      उत्तिष्ठ द्विशतस्त्वम्भः सूक्ष्मं शोणशिखायुतम्।

                         योनिस्थं तत्परं तेजः स्वयम्भू लिंग संज्ञितम्।  —शिव संहिता


अर्थ-वह बीज क्रिया शक्ति एवं ज्ञान शक्ति से युक्त होकर शरीर में भ्रमण करता है और कभी ऊर्ध्वगामी होता है और कभी जल में प्रवेश करता है और सूक्ष्म प्रज्वलित अग्नि के समान शिखा युत परम तेज वीर्य की स्थिति योनि स्थान में है स्वयम्भू लिंग संज्ञा है।


तत्र बन्धूकपुष्पाभं कामबीजं प्रकीर्तितम्।

                      कलहेम समं योगे प्रयुक्ताक्षर रुपिणम्।  —शिव संहिता


अर्थ-जिस स्थान में कुण्डलिनी है उसी स्थान में बन्धूक पुष्प के समान रक्त वर्ण काम बीज की स्थिति कही गई है। वह काम बीज तप्त स्वर्ण के समान स्वरूप योग युक्त द्वारा चिन्तनीय है।


        सुषुम्णापि च संश्लिष्टो बीजं तत्र वरं स्थितम्।

शरच्चंद्र तेजस्स्वयमेतत्स्फुरत्स्थितम्॥

                            सूर्य कोटि प्रतीकाशं चन्द्रकोटि सुशीतलम्।   —शिव संहिता


अर्थ-जिस स्थान में कुण्डलिनी स्थित है सुषुम्ना उसी स्थान में काम बीज के साथ स्थित है और वह बीज शरच्चन्द्र के समान प्रकाशमान तेज है और वह आप ही कोटि सूर्य के समान प्रकाश और कोटि चन्द्र के समान शीतल है।

स्थूल शरीर में नारी का प्रजनन द्रव ‘रज’ कहलाता है। नर का उत्पादक रस ‘वीर्य’ है। सूक्ष्म शरीर में इन दोनों की प्रचुर मात्रा एक ही शरीर में विद्यमान है। उनके स्थान निर्धारित हैं। इन दोनों के पृथक रहने के कारण जीवन में कोई बड़ी उपलब्धि नहीं होती। पर जब इनका संयोग होता है तो जीवन पुष्प का पराग मकरन्द परस्पर मिलकर फलित होने लगता है और सफल जीवन की अगणित सम्भावनाएं प्रस्फुटित होती हैं। एक ही शरीर में विद्यमान इन ‘उभय’ रसों का वर्णन साधना विज्ञानियों ने इस प्रकार किया है—


    योनिस्थाने महाक्षेत्रे जपा बन्धूकसन्निभम्।

रजो वर्सात जंतूनाँ देवीतत्वं समाहितम्॥

                                  रजसो रेतसो योगाद्राजयोग इति स्मृतः।  —योग शिखोपनिषद


योनि स्थान रूपी मूलाधार महा क्षेत्र में, जवा कुसुम के वर्ण का रज हर एक जीवधारी के शरीर में रहता है। उसको ‘देवी तत्व’ कहते हैं। उस रज और वीर्य के योग से राजयोग की प्राप्ति होती है अर्थात् इन दोनों के योग का फल राजयोग है।

गुदा और उपस्थ के मध्य में सीवनी के ऊपर त्रिकोणाकृति गुह्य-गह्वर है, जिसको ‘योनि-स्थान’ कहते हैं।


  गलितोपि यदा बिन्दुः संप्रप्ति योनिमण्डले।

      ज्वलितोपि यथा बिन्दुः संप्राप्तश्च हुताशनम्॥

   ब्रजत्पूर्ध्वं दृढ़ाच्छक्त्या निबद्धो योनिभुदया।

       स एव द्विविधो बिन्दुः पाण्डुरो लोहितस्तथा॥

पाण्डुरं शुक्रभित्याहु र्लोंहितारथं महारजः।

   विद्रुमद्रुम संकाराँ योनिस्थाने स्थितं रजः॥

                                            शीशस्थाने बसेद्विदुस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम्।   —ध्यान बिन्दु उपनिषत्


सहस्रार से क्षरित गलित होने पर जब वीर्य योनि स्थान पर ले जाया जाता है तो वहाँ कुण्डलिनी अग्नि कुण्ड में गिरकर जलता हुआ वह वीर्य योनि मुद्रा के अभ्यास से हठात् ऊपर चढ़ा लिया जाता है और प्रचण्ड तेज के रूप में परिणत होता है यही आध्यात्मिक काम सेवन एवं गर्भ धारण है।


स पुनर्द्विविधो बिन्दुः पाण्डुरो लोहितस्तथा।

                         पाण्डुरः शुक्रमित्या हुर्लोहिताख्यो महारजः॥   —गोरक्ष पद्धति


बिन्दु दो प्रकार का होता है—एक तो पाण्डु वर्ण जिसे शुक्र कहते हैं और दूसरा (लोहित) रक्त वर्ण जिसे महारज कहते हैं।


सिन्दूरद्रव सकाश नाभिस्थाने स्थित रजः।

                                 शशिस्थाने स्थितो बिन्दुस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम्॥   —गोरक्ष पद्धति


तैल मिले सिन्दूर के द्रव (रस) के समान रज सूर्य स्थान नाभि मण्डल में रहता है तथा बिन्दु (वीर्य) चन्द्रमा के स्थान कण्ठ देश षोडशाधर चक्र में स्थिर रहता है। इन दोनों का ऐक्य अत्यन्त दुर्लभ है।


बिन्दुः शिवो रजः शक्तिश्चन्दो बिन्दु रजो रविः।

         अनयोः संगमादेव प्राप्यते परमं पद्म॥   —गोरक्ष पद्धति


बिन्दु शिव रस शक्ति है। इनके एक होने से योग सिद्धि एवं परम पद प्राप्त होता है। चन्द्रमा सूर्य का ऐक्य करना ही योग है।


वायुना शक्ति चारेण प्रेरितं तु यदा रजः।

                            याति बिन्दोः सहकत्वं भवेद्दिव्यं वपुस्ततः॥ —गोरक्ष पद्धति


शक्तिचालिनी विधि से वायु द्वारा जब रज-बिन्दु के साथ ऐक्य को प्राप्त होता है तब शरीर दिव्य हो जाता है।


       अपने शरीरस्था रज-वीर्य एकता सिद्धिदायक,

  स बिन्दुस्त दजश्चैव एकीभूत स्वदेहगौ।

                                     वज्रोल्पभ्यास योगेन सर्वसिद्धिं प्रयच्छतः॥   —ह॰ योग प्रदीपिका


अपने देह स्थित रज व वीर्य वज्रोली के अभ्यास के योग से सब सिद्धियों को देने वाले हो जाते हैं।

शारीरिक काम सेवन की तुलना में आत्मिक काम सेवन असंख्य आनन्ददायक है। शारीरिक काम-क्रीड़ा को विषयानन्द और आत्मरति को ब्रह्मानन्द कहा गया है। विषयानन्द से ब्रह्मानन्द का आनन्द और प्रतिफल कोटि गुना है। शारीरिक संयोग से शरीर धारी सन्तान उत्पन्न होती है। आत्मिक संयोग प्रचण्ड आत्मबल और विशुद्ध विवेक को उत्पन्न करता है। उमा महेश विवाह के उपराँत दो पुत्र प्राप्त हुए थे। एक स्कन्द (आत्मबल) दूसरा गणेश (प्रज्ञा प्रकाश) कुण्डलिनी साधक इन्हीं दोनों को अपने आत्म लोक में जन्मा बढ़ा और परिपुष्ट हुआ देखता है।

स्थूल काम सेवन की ओर से विमुख होकर यह आत्मरति अधिक सफलता पूर्वक सम्पन्न हो सकती है। इसलिए इस साधना में शारीरिक ब्रह्मचर्य की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है और वासनात्मक मनोविचारों से बचने का निर्देश दिया गया है। शिवजी द्वारा तृतीय नेत्र तत्व विवेक द्वारा स्थूल काम सेवन को भस्म करना—उसके सूक्ष्म शरीर को अजर-अमर बनाना इसी तथ्य का आलंकारिक वर्णन है कि शारीरिक काम सेवन से विरत होने की और आत्म रति में संलग्न होने की प्रेरणा है। काम दहन के पश्चात् उसकी पत्नी रति की प्रार्थना पर शिवजी ने काम को अशरीरी रूप से जीवित रहने का वरदान दिया था और रति को विधवा नहीं होने दिया था उसे आत्म रति बना दिया था। वासनात्मक अग्नि का आह्य-डडडडडड अग्नि-कालाग्नि के रूप में परिणत होने का प्रयोजन भी यही है—


भस्मीभूते स्मरे शंभुतृतीयनयनाग्निना।

                             तस्मिन्प्रविष्टे जलधौ वद त्वं किमभूत्ततः॥   —शिव पुराण


शिवजी के तृतीय नेत्र की प्रदीप्त अग्नि की ज्वाला से जब कामदेव भस्म हो गया और वह अग्नि समुद्र में प्रवेश कर गई इसके पश्चात् क्या हुआ ?


ताँ च ज्ञात्वा तथाभूताँ तृतीयेनेक्षणेन वै।

                             ससर्ज कालीं कामारिः कालकंठीं कपर्दिनीम्॥  —लिंग पुराण


उस देवी को उस स्थिति में जानकर काम के मर्दन करने वाले शिव ने काल कण्ठी कमर्दिनी का सृजन किया था।


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